विशेष आलेख : जब मां विन्ध्यवासिनी का पलड़ा बैकुंठ से पड़ गया भारी - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।

शनिवार, 23 सितंबर 2017

विशेष आलेख : जब मां विन्ध्यवासिनी का पलड़ा बैकुंठ से पड़ गया भारी

मां विंध्यवासिनी एक ऐसी जागृत शक्तिपीठ है, जिसका अस्तित्व सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी रहेगा। त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल निवासिनी देवी लोकहिताय, महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती का रूप धारण करती हैं। विंध्यवासिनी देवी विंध्य पर्वत पर स्थित मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। कहा जाता है कि इस स्थान पर जो तप करता है, उसे अवश्य सिद्वि प्राप्त होती है। शायद यही वजह है जब देवासुर संग्राम के वक्त देवों पर दानव भारी पड़ने लगे तो देवों के देव महादेव, ब्रह्मा व विष्णु ने भी इस धाम में तप की और मां के आर्शीवाद से विजय हासिल की। विविध संप्रदाय के उपासकों को मनवांछित फल देने वाली मां विंध्यवासिनी देवी अपने अलौकिक प्रकाश के साथ यहां नित्य विराजमान रहती हैं


vindhyachal-wasini-mata
चमत्कार की ढेरों कहानियां अपने अंदर समेटे विन्ध्य पहाड़ी पर विराजमान है आदिशक्ति जगत जननी मां विन्ध्यवासिनी। वह भी एक-दो नहीं, बल्कि तीन रुपों में भक्तों को दर्शन देती है मां विन्ध्यवासिनी। पहला मां विन्ध्यवासिनी, दुसरा मां काली और तीसरा मां सरस्वती, जिन्हें अष्टभुजा के रुप में भी जाना जाता है। मां किसी को भी अपने दरबार से खाली हाथ नहीं भेजती, तभी तो मां अपने भक्तों की चिंता तो दूर करती ही है, यहां वही भक्त पहुंच पाता है, जिसे मां का बुलावा होता है। मां का ये धाम अनोखा व अद्भूत इसलिए भी है कि भक्तों को यहां मां का दर्शन होता है गुफा के एक छोटे झरोखे में। खास बात यह है कि मां के तीनों रुप एक त्रिकोण पर विराजमान है, जिनकी परिक्रमा व विधि-विधान से पूजन-हवन कर लेने मात्र से भक्त न सिर्फ मोक्ष को प्राप्त होता है, बल्कि लौकिक व इलौकिक सुखों को भोगता हुआ प्राणियों की हर प्रकार की मुरादें पूरी होती है। इसके अलावा मंदिर पसिर में ही स्थित कुंड में हवन बारहों महीने अखंड ज्योति के रुप में जलता रहता है, जिसमें पूर्णाहुति कर लेने से शत्रु तो परास्त होते ही है, मिलता है राजसत्ता सुख का वरदान। मां के आशीर्वाद से बिगड़े काम भी तो बन जाते ही हैं, सफलता की राह में आ रही बाधाएं भी दूर हो जाती है। मुश्किलों को हरने वाली मां के शरण में आने वाला राजा हो या रंक मां के नेत्र सभी पर एक समान कृपा बरसाते है। मां की कृपा से असंभव कार्य भी पूरे हो जाते है।  



मां के चमत्कारों की कहानी लंबी है और महिमा अनंत। मां के द्वार पर एक बार जो आ गया, वो फिर कहीं और नहीं जाता। कहते है दरबार में नित्य होने वाली मां के चारों रुपों की आरती का दर्शन कर लेने मात्र से हजार अश्वमेघ यज्ञ के फलों की प्राप्ति होती है। यह दिव्य मनोरम जगह है बाबा भोलेनाथ की नगरी काशी व भगवान विष्णु की नगरी प्रयाग के मध्य पवित्र विन्ध्याचल धाम, जो उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में है। जहां यूपी ही नहीं देश के कोने-कोने से तो श्रद्धालुओं का मां के दर्शन को तो आना होता ही है। चैत व शारदीय नवरात्र के नौ दिनों तक विशाल मेला लगता है। इस मेले में लाख-दो लाख नहीं बल्कि 25 लाख से भी अधिक श्रद्धालु पहुंचते है मां का दर्शन कर मन्नतों की झोली भरकर ले जाते है। मंदिर के प्रधान पुजारी श्रृंगारिया शेखर सरन उपाध्याय कहते है, विन्ध्य क्षेत्रे परम् दिव्यम् नास्ति ब्रह्मांड गोलके अर्थात विन्ध्याचल जैसा स्थान, जहां मां भगवती के तीनों रुप मां लक्ष्मी, मां काली मां सरस्वती एक ऐसे त्रिकोण पर विराजमान है, जो पूरे ब्रहमांड में कहीं नहीं है। नंदगोप गृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा, तत्स्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलवासिनी।। अर्थात भगवती जी ने स्वयं बोली है मैं द्वापर युग में नंद के यहां यशोदा के गर्भ से पैदा होगी और कंस के हाथों से मुक्त होकर विन्ध्य क्षेत्र में निवास करेगी। मां विंध्यवासिनी एक मात्र ऐसी जागृत शक्तिपीठ है जिसका अस्तित्व सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी रहेगा। यहां देवी के 3 रूपों का सौभाग्य भक्तों को प्राप्त होता है। पुराणों में विंध्य क्षेत्र का महत्व तपोभूमि के रूप में वर्णित है। त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल निवासिनी देवी लोकहिताय, महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती का रूप धारण करती हैं। विंध्यवासिनी देवी विंध्य पर्वत पर स्थित मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। यहां पर संकल्प मात्र से उपासकों को सिद्वि प्राप्त होती है। इस कारण यह क्षेत्र सिद्व पीठ के रूप में विख्यात है। ब्रह्मा, विष्णु व महेश भी भगवती की मातृभाव से उपासना करते हैं, तभी वे सृष्टि की व्यवस्था करने में समर्थ होते हैं। इसकी पुष्टि मार्कंडेय पुराण श्री दुर्गा सप्तशती की कथा से भी होती है। शास्त्रों में मां विंध्यवासिनी के ऐतिहासिक महात्म्य का अलग-अलग वर्णन मिलता है. शिव पुराण में मां विंध्यवासिनी को सती माना गया है तो श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी कहा गया है। मां के अन्य नाम कृष्णानुजा, वनदुर्गा भी शास्त्रों में वर्णित हैं। इस महाशक्तिपीठ में वैदिक तथा वाम मार्ग विधि से पूजन होता है। शास्त्रों में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि आदिशक्ति देवी कहीं भी पूर्णरूप में विराजमान नहीं हैं, विंध्याचल ही ऐसा स्थान है जहां देवी के पूरे विग्रह के दर्शन होते हैं। शास्त्रों के अनुसार, अन्य शक्तिपीठों में देवी के अलग-अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है। 

vindhyachal-wasini-mata
जागृत है मां विन्ध्यवासिनी शक्तिपीठ 
देश के तमाम स्थानों में शक्तिपीठ है, लेकिन यहां की शक्तिपीठ की महिमा अद्भूत व निराली है। पुराणों में विन्ध्याचल को शक्तिपीठ, सिद्धपीठ व मणिपीठ कहा गया है। चूणामणि में 51 शक्तिपीठ व श्रीमद्भागवत में 108 पीठों का उल्लेख मिलता है। जिसमें विन्ध्याचल शक्तिपीठ का विशेष महत्व है। विन्ध्य पर्वत माला की आंचलों में स्थित यह विंध्याचल शक्तिपीठ अनादिकाल से ही शक्ति की लीला भूमि रही है। शास़्त्रों के अनुसार शती के पृष्ठभाग का विपार्थ हुआ था। कहा जाता है कि मां देवी पार्वती ने यहीं पर तप कर अर्पणा नाम पाया व भगवान शिव को प्राप्त किया। इस क्षेत्र को साधना व तपस्या हेतु जागृत प्रदेश माना जाता है। विन्ध्य क्षेत्र में ही नारायण ने महादेव की आराधना कर चक्र सुदर्शन प्राप्त किया था। इसके पीछे कथा यह है कि भगवान विष्णु की आराधना से जब महादेव प्रसंन हुए तो बदले में उनका नेत्र मांगा और जैसे ही विष्णु ने चाकू से अपनी आंख निकालने की कोशिश की, महादेव नेे रोक लिया और विश्व कल्याण व सुरक्षा के लिए सुदर्शन चक्र भेंट किया। इसके बाद यहीं पर मां लक्ष्मी ने शिवशंकर की तपस्या की तथा महादेव से स्त्री यौवन व सदैव युवती रहने का वरदान प्राप्त किया। कहा जाता है कि देवासुर संग्राम के वक्त जब दानव देवों पर भारी पड़ने लगे तब स्वयं देवों के देव महादेव, ब्रह्मा एवं विष्णु ने मां विन्ध्यवासिनी के गर्भगृह में बने कुंड में हजारों साल तक तपस्या कर मां के आर्शीवाद से दानवों को परास्त कर सके थे।  

अपरंपार है मां की महिमा 
कहा जाता है कि एक बार नारायण ने भगवान महादेव से विन्ध्य क्षेत्र की महिमा का वृतांत पूछा, महादेव ने कहा, विन्ध्य क्षेत्रस्य महात्मयम वक्तु शिशु परमेश्वर लिखतुम हहया क्षचु दृष्टतः सुरेश्यम् अर्थात विन्ध्य क्षेत्र की महिमा हजार मुख वाले सिस, लिखने को हजार भुजा वाले अर्जुन व सहस्त्र शस्त्रों से युक्त इंद्र भी बताने में असमर्थ है। जबकि एक बार ब्रहमा ने तराजु पर वैकुंठ व विंध्याचल को तौला था। वैकुंठ का पलड़ा हल्का होने से वह स्वर्ग चला गया, जबकि विंध्य पृथ्वी पर ही रह गया। इस तरह वैकुंठ स्वर्ग से भी विन्ध्यधाम अतिउत्तम है। कहा जाता है कि सूरज का रास्ता रोकने वाला इस संसार में एकमात्र विन्ध्य पर्वत ही था। विन्ध्य पर्वत द्वारा रास्ता रोक दिये जाने से परेशान सूर्यदेव, विन्ध्य के गुरु अगस्त्य मुनि की शरण में गये। सूरज की प्रार्थना सुनकर गुरु अगस्त्य मुनि ने विन्ध्य पर्वत से कहा कि, वह अपना आकार बढ़ाना रोक दे। अगस्त्य मुनि का कहना था, कि वे अब बूढ़े हो चले हैं। उनसे अब और ऊँचाई पर चढ़ पाना इस बढ़ती उम्र में असंभव है। अगस्त्य मुनि के लाख आग्रह के बाद भी जब विन्ध्य पर्वत नहीं माना तो उन्होंने श्राप देने को कहा, तभी विन्ध्य पर्वत शरणागत होते हुए क्षमा याचना की। मुनि द्वारा क्षमा किए जाने के बाद विन्ध्य पर्वत ने अपना आकार बढ़ाना रोक दिया। इसके बाद ही सूरज को आगे बढ़ने का रास्ता मिलना संभव हो पाया था। कहते हैं कि, तभी से विन्ध्य पर्वत आज भी जहां के तहां सिर झुकाये खड़ा है, अपने गुरु की आज्ञा पालन के लिए। इस तथ्य का उल्लेख श्वामन पुराण के 18वें अध्याय में भी है। कहते हैं कि, पर्वतराज विन्ध्य के ऊपरी शिखर पर ही मां भगवती दुर्गा आज भी निवास करती हैं। भगवान भास्कर की पहली किरण विध्याचल धाम पर ही पड़ती है। विन्ध्य क्षेत्रे समं क्षेत्रं, नास्ति ब्रहृमांड गोलके। विन्ध्य क्षेत्रं परम् दिव्यं, पावनं मंगलं प्रदत।। 

मां विन्ध्ययवासिनी आरती 
मां विन्ध्यवासिनी की चार आरती में चार पुरुषार्थ धर्म, काम, अर्थ व मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो भक्त जिस आरती में सरीक होता है उस आरती में उसे मां का उसी दिव्य स्वरुप का दर्शन होता है, और उसे उसी प्रकार के फलों की प्राप्ति होती है। ब्रह्ममुहूर्त में सुबह 4 बजे मां की प्रथम मंगला आरती होती है। इस आरती में मां का बाल्यवस्था का दर्शन होता है। इस आरती से भक्त को धर्म की प्राप्ति होती है। जिसमें उसका भविष्य मंगलमय होता है। मां के चरणों में शीश झुकाकर भक्त मनवांछित फल प्राप्त करता है। मध्यान्ह 12 बजे मां की द्वितीय आरती की जाती है, जिसे राजश्री आरती कहा जाता है। इसमें मातारानी का स्वरुप राज राजेश्वरी युवा अवस्था का होता है। इस आरती से भक्तों को अर्थ अर्थात समृद्धि एवं वैभव की प्राप्ति होती है जिससे मनुष्य धन-धान्य से परिपूर्ण होता है। मां विन्ध्यवासिनी को वन देवी भी कहा जाता है। इन्हीं के इच्छा से शती का प्रार्दुभाव हुआ। सायंकाल 7 बजे मां की तृतीय आरती छोटी आरती होती है जिसमें मां का स्वरुप द्रोणा अवस्था का होता है। इस आरती से भक्त को संतान तथा वंशवृद्धि की प्राप्ति होती है। मां की चतुर्थ शयन यानी बड़ी आरती रात साढ़े नौ बजे की जाती है इसमें मां का स्वरुप वैभव व वृद्धा अवस्था का होता है। इस आरती में शामिल होने वाले भक्त को मोक्ष की प्राप्ति होती है। मां की सुबह-शाम होने वाली आरती में जो लोग शामिल होते हैं वो अखंड पुण्य के भागी होते हैं। आरती की लौ में मां का असीम आशीर्वाद है और आरती के लौ की रौशनी जीवन के तमाम कष्टों का अंधियारा हर कर भक्तों के जीवन में खुशियों का उजियारा लाती है। हजारों लाखों भक्त मां के दर्शन करने, उनकी आरती में शामिल होने के लिए घंटों इंतजार करते हैं और जब ढोल नगाड़ों व घंटे की आवाजों के मां का श्रृंगार और उनकी आराधना होती है तो भक्तों की हर कामना पूरी हो जाती है।

त्रिकोण पर विराजती है मां 
मां विन्ध्यवासिनी मंदिर में दो प्रवेश द्वार व दो निकास द्वार है। इस मंदिर में मां अपने दिव्य रुप में विराजमान हो भक्तों को दर्शन देती है। हृदय में भक्ति और नैनों में दर्शन का उत्साह लिए उत्साह भक्तों को दर्शन मात्र से ही होती है फलों की प्राप्ति। लघु त्रिकोण पर मां के मंदिर में मां का विग्रह श्रीयंत्र पर है। कहते है नवरात्र के नौ दिनों में मां के मंदिर में लगे ध्वज पर ही विराजती है। ताकि किसी वजह से मंदिर में न पहुंच पाने वालों को भी मां के सूक्ष्म रूप के दर्शन हो जाएं। नवरात्र के दिनों में इतनी भीड़ होती है कि अधिसंख्य लोग मां की पताका के दर्शन करके ही खुद को धन्य मानते हैं। नवरात्र में मां भक्तों को नौ रुपों में भक्तों को दर्शन देकर उनकी मनोकामनाएं पूरी करती है। देवी के द्वादस ग्रहों में मां विन्ध्यवासिनी ही है। मंदिर प्रांगण में पंचमुखी महादेव है। यहां मां काली व मां सरस्वती का भी दिव्य स्थल है। जो भक्त वृहद त्रिकोण परिक्रमा नहीं कर सकते उनके लिए मां के मंदिर में ही लघु त्रिकोण परिक्रमा हो जाती है। भक्त लक्ष्मी स्वरुपा माता के गर्भ परिसर में स्थित सभी देवी-देवताओं का दर्शन-पूजन करते है। तो उन्हें लघु त्रिकोण का फल प्राप्त हो जाता है। गर्भ गृह परिसर में दक्षिण दिशा में महाकाली, पश्चिम में महा सरस्वती एवं महादेव विराजमान होकर त्रिकोण का फल प्रदान करते है। यहां विशाल नीम के पेड़ पर मां चूड़ा छोड़ती है ऐसा भक्तों का मान्यता है। अतः जहां भी मां का मंदिर होता हे वहां नीम का पेड़ अवश्य होता है। मां के श्रृंगार हेतु यहीं पर चंदन घिसा जाता है। मां के द्वार पर विराजित गणेश जी की पूजा के बाद मां की श्रृंगार फिर आरती की जाती है। मंदिर का उपरी परिसर जहां भक्त परिक्रमा व धागा बांधते है। मंदिर में पाठ करते हुए ये देवी भक्त साध रहे है जिनका मां इनका कल्याण करती है। भक्त हलवे का प्रसाद बनाकर लाते हे और मंदिर के भक्तों में वितरीत कराते है। मां विन्ध्यवासिनी का मंदिर त्रिकोण पर स्थित है। कहते है यहां मां का प्रार्दुभाव नहीं प्राकट्य होता है, इनका भी प्राकट्य हुआ था। भूमंडल में अद्भूत यह त्रिकोण तीन शक्तियों से जागृत त्रिकोण होता है। सारे जगत में उद्भव, सम्ृति व संहार का प्रतीक है। उसमें एक बिन्दु पर महालक्ष्मी के रुप में विराजमान है तो दुसरे बिन्दु पर महाकाली और तिसरे बिन्दु पर मां सरस्वती अष्टभुजा के नाम से जानी जाती है। इन्हीं तीनों रुपों का लोग दर्शन करते है। भगवती के दर्शन से अर्थ, मोक्ष काम धर्म प्राप्त होता है। यहां ज्ञानी और अज्ञानी दोनों प्रकार के लोग साधनाएं कर भगवती से अपनी क्षमता के अनुसार साधना ग्रहण करते है। मां के मंदिर से 6 किमी की दूर पहाड़ी पर महाकाली, महालक्ष्मी और अष्टभुजा के रुप में भी विराजती है। इसके बाद काली खोह में स्थित मां काली के दर्शन के लिए जाना होता है। दोनो मंदिरों की दूरी ज्यादा नहीं है। विन्ध्यवासिनी से काली मां के मंदिर को आटो-रिक्शा से जाया जा सकता है। शास्त्रों में मां विंध्यवासिनी के ऐतिहासिक महात्म्य का अलग-अलग वर्णन मिलता है। शिव पुराण में मां विंध्यवासिनी को सती माना गया है तो श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी कहा गया है। मां के अन्य नाम कृष्णानुजा, वनदुर्गा भी शास्त्रों में वर्णित हैं। इस महाशक्तिपीठ में वैदिक तथा वाम मार्ग विधि से पूजन होता है। शास्त्रों में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि आदिशक्ति देवी कहीं भी पूर्णरूप में विराजमान नहीं हैं, विंध्याचल ही ऐसा स्थान है जहां देवी के पूरे विग्रह के दर्शन होते हैं। शास्त्रों के अनुसार, अन्य शक्तिपीठों में देवी के अलग-अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है। लगभग सभी पुराणों के विंध्य महात्म्य में इस बात का उल्लेख है कि 51 शक्तिपीठों में मां विंध्यवासिनी ही पूर्णपीठ है। 

कालीखोह में मां काली 
मां काली के बारे में मान्यता है कि मां ने रक्तबीज का नाश करने के लिए मां दुर्गा का रुप धारण किया, लेकिन रक्तबीज को मारने के दौरान उसका रक्त जमीन पर गिरते ही वह जीवित हो उठता था। इसके बाद मां ने चंडी का रुप धारण किया फिर भी वह नहीं मरा। मां विन्ध्यवासिनी ने पुनः काली का रुप धारण किया, जो आकाश की ओर मुंह खोली थी और रक्त बीज का रक्त पान करने लगी, जिससे एक भी बूंद जमीन पर नहीं गिरा और उसकार सर्वनाश हो गया। मां के अधिक क्रोध के कारण शरीर काला पड़ गया। काली खोह में मां उसी मुद्रा में विराजमान है। जहां भक्त मां के दर्शन कर मनवांछित फलों को प्राप्त करते है। यहां भी चारों वक्त मां की आरती है। यहां भगवान शिव भी विराजमान है और जहां पर रक्तबीज का रक्त गिरा वह आज भी लाल है। इस मनोरम स्थान पर परम शांति मिलती है। पेड़ो पर यहां लंगूरों का जमावड़ा रहता है, भक्त इन्हें प्यार से चना खिलाते है। कालांतर में मां भगवान शिव की पत्नी बनी। सती और शिव का संबंध अटूट है। भगवान भोले में बसती हैं सती और शक्ति के हृदय में रहते हैं शिव, लेकिन दक्ष यज्ञ में सती की अग्निसमाधि के बाद जब शिव, सती का शरीर लेकर समूचे ब्रह्मांड में भटक रहे थे तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। धरती पर ये टुकड़े जहां-जहां गिरे वो स्थान शक्तिपीठ कहलाए। उन 51 शक्तिपीठों में से एक है मां काली देवी मंदिर जहां मां के शरीर के पक्ष का भाग का विपार्थ हुआ था। मां काली की सर्वसिद्धि ममता सर्वविदित है। बलि पूजा और पंचमकार साधना यहां की जागिर है। 

मां अष्टभुजा 
काली मां के दर्शन के बाद कुछ दूर आगे जाकर अष्टभुजा देवी का मंदिर है। मंदिर से दिखाई देना वाला पास ही बह रही गंगा का दृश्य अत्यंत मनोरम दिखाई देता है। अष्टभुजा मां को भगवान श्रीकृष्ण की सबसे छोटी और अंतिम बहन माना जाता है। कहा जाता है, श्रीकृष्ण के जन्म के समय ही इन मां का जन्म हुआ था। इनके जन्म की सुनकर कंस इन्हें ले आया। कंस ने जैसे ही इन मां की हत्या के लिये इन्हें पत्थर पर पटका, वे उसके हाथों से छूटकर आसमान की ओर चली गयीं। जाते-जाते मां ने घोषणा भी कि थी, कि कंस तुझे मारने वाला (भगवान श्रीकृष्ण) इस युग में धरती पर आ चुका है। कहते है मां भगवती ने मनु-सत्रुपा के तपस्या से प्रसंन होकर उन्हें वंश वृद्धि का आर्शीवाद देकर कहा था कि वह विन्ध्य पर्वत पर निवास करेगी। इसीलिए मां गंगा भी मां के धाम को स्पर्श करते हुए बहती है। मां महा-सरस्वती और विन्धयवासिनी देवी के रुप में साक्षात महा-लक्ष्मी जी हैं। सबसे पहले मां दुर्गा (पार्वती मां जिन्हें विन्यवासिनी भी कहा जाता है) के दरबार में पूजा के लिए जाया जाता है। मां अष्टभुजा मंदिर के पास ही एक झरना बहता है। इस झरने का जल इस हद तक शुद्ध और लाभकारी है, कि इसके पीने से शरीर के तमाम रोग दूर हो जाते हैं। इस झरने और जल के बारे में मां के दरबार में प्रसाद की दुकान लगाने वाले किसी भी दुकानदार से पूछा जा सकता है। मां अष्टभुजा मंदिर परिसर में ही पातालपुरी का भी मंदिर है। यह एक छोटी गुफा में स्थित देवी मंदिर है। 

चारों दिशाओं में विराजमान है लाटभैरव 
देवी मंदिर के अलावा बाहरी बाधाओं से रक्षा के लिए शहर के चारों दिशाओं में लाट भैरव भी स्थित हैं। ऐसा माना जाता है कि जिनके प्रभाव से शहर सुरक्षित रहता है। शहर के पूर्वी हिस्से में आनंद भैरव का मंदिर है, पश्चिम की ओर सिद्धनाथ का मंदिर, दक्षिण दिशा में कपाल भैरव एवं उत्तर की ओर रूद्र भैरव का मंदिर स्थित है। इन मंदिरों में भी भक्त दर्शन-पूजन के लिए आते हैं। तो दुसरी तरफ दिखता है मोइद्दीन चिश्ती का दरगाह। एक ही ईश्वर के दो रुपों के दर्शन। यहां बरतर तिराहा बटुक हनुमान जी का मंदिर है। परम सुखदायी, कल्याणकारी, हितकारी मां के सेवक व रक्षक बटुक हनुमान जी का दर्शन कर विन्ध्याचल के कोतवाल कहे जाने वाले बटूक भैरव के दर्शन बहुत जल्द ही होते है। संयोग देखिएं यहां भौतिक कोतवाल व दैविक कोतवाल दोनों आमने-सामने है। कहा जाता है कि जो भी भक्त आता है, बाबा का दर्शन जरुर करता है। बाबा के दर्शन बगैर मां का दर्शन पूर्ण नहीं होता और न ही फलों की प्राप्ति होती है। यहां जो भक्त अर्जी लगाता है तभी मां का दर्शन पूर्ण होता है और फल मिलता है। बटूक दर्शनोंपरांत प्राचीन संतोषी मां के भी दर्शन हो जाते है, जो पास में ही है। यहां महादेव भी विराजते है, जिन्हें वनखंडी भोलेनाथ के नाम से जाने जाते है।  

मुंडन संस्कार 
यहां मुंडन संस्कार उत्सव के रुप में होता है, लोग गंगा किनारे बच्चों का मुंडन कराने के बाद मां को अपनी श्रद्धा समर्पित कर दर्शन को मंदिर में जाते है। गंगा किनारे नौका बिहार हेतु यहां नाव का सुंदर प्रबध होता है। नाविक अपने नाव को सजाकर यात्रियों को गंगा के बीच ले जाते हे जहां मां का दर्शन और आनंद दोनों हो जाता है। लोग किसी मनौती के पूरा होने पर भी मां का दर्शन कर चढ़ावा चढ़ाते हैं। साथ ही पूर्वांचल के ज्यादातर परिवार के बच्चों का मुण्डन भी मां विन्ध्यवासिनी के दरबार में होता है। धार्मिक आस्था में गहरे से विश्वास रखने वाले इस देश में विन्ध्याचल का अपना खास महत्व है। घण्ट-घड़ियालों के संगीतमयी स्वर से गूंजने वाले इस क्षेत्र में लोगों का मन शांतचित्त हो जाता है। पतित पावनी मां गंगा एवं शक्तिरूपी मां विन्ध्यवासिनी से मिर्जापुर की धरती पवित्र हो जाती है। पंडा समाज के पं अमरेश पांडेय ने बताया कि सिद्धपीठ विन्ध्याचल धाम पुरातन काल से ऋषियों-मुनियों व जनसाधारण के लिए आकर्षण एवं प्रेरणा का स्रोत रहा है। कहा जाता है कि जो मनुष्य इस स्थान पर तप करता है, उसे अवश्य सिद्वि प्राप्त होती है। विविध संप्रदाय के उपासकों को मनवांछित फल देने वाली मां विंध्यवासिनी देवी अपने अलौकिक प्रकाश के साथ यहां नित्य विराजमान रहती हैं। ऐसी मान्यता है कि सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता। ब्रह्मा, विष्णु व महेश भी भगवती की मातृभाव से उपासना करते हैं, तभी वे सृष्टि की व्यवस्था करने में समर्थ होते हैं। इसकी पुष्टि मार्कंडेय पुराण श्री दुर्गा सप्तशती की कथा से भी होती है। नवरात्र में महानिशा पूजन का भी अपना महत्व है। यहां अष्टमी तिथि पर वाममार्गी तथा दक्षिण मार्गी तांत्रिकों का जमावड़ा रहता है। आधी रात के बाद रोंगटे खड़े कर देने वाली पूजा शुरू होती है। ऐसा माना जाता है कि तांत्रिक यहां अपनी तंत्र विद्या सिद्ध करते हैं। 

सीता कुंड 
अष्टभुजा के पश्चिम भाग में भगवती जगत नंदिनी सीता जी द्वारा निर्मित सीता कुंड स्थल प्रकृति की सुरम्यकोण मौजूद है। यहां श्रीराम जानकी की मूर्ति लक्ष्मण के साथ प्रतिष्ठित है। कहा जाता है वनवास काल में मां सीता ने यहां रसोई बनाई थी। जल की आवश्यकता पड़ने पर भगवान श्रीराम ने बाण मारकर यहां पानी का श्रोत निकाला था। बारहों मास इस कुंड का जल अत्यंत शीतल, मधुर व स्वास्थ्यवर्धक है। यहां प्राचीन कलात्मक मंदिर है, जहां मां सीता के चरण चिन्ह आज भी देखने को मिलता है। कहा यह भी जाता है कि वशिष्ठ मुनि के कहने पर भगवान श्रीराम ने अपने पिता का श्राद्ध तर्पण यहीं पर शिवलिंग की स्थापना कर किया थाजो आज भी रामेश्वरनाथ से मौजूद है। यहां स्नान करने से सभी की मनोकामनाएं पूरी हो जाती हे। पितृ विसर्जन के दौरान भक्त अपने पूर्वजों का यहां तर्पण करने भी आते है।    

धूमधाम से होता है कजरी महोत्सव 
मां विन्ध्यवासिनी का स्थान महाशक्तिपीठ है। यह सिद्धपीठ भी है। माता मंदिरों में सीढ़ियों से सटाएं कुंड है, जो साल में एक ही बार खुलता है। लोग दर्शन-पूजन के लिए रात से ही मां के दरबार में कतारबद्ध हो जाते हैं। भोर में मंदिर का कपाट खुलने के साथ ही मां के जयकारों से पूरा क्षेत्र गूंज उठता है। नवरात्र के नौ दिन उत्सवमयी महौल रहता है। मां विन्ध्यवासिनी के दरबार में बड़ा एवं महत्वपूर्ण कजरी महोत्सव जून में होता है। महोत्सव में कजरी गायन की प्रतियोगिता भी होती है। मां का आर्शिवाद प्राप्त कर जब कलाकार कजरी की स्वरलहरियों की तान लगाते हैं तो पूरा विन्ध्याचल धाम झंकृत हो जाता है। जिस विन्ध्याचल पर्वत पर यह त्रिकोण देवी मंदिर हैं, उस पर्वत का भी अपना दिलचस्प इतिहास है। महेंद्र, मलय, सह्य, शक्तिमान, ऋक्ष, विन्ध्य और परियात्र। इन सात पर्वतों को कुल-पर्वत माना गया है। यह सातों पर्वत हिंदुस्तान में पुण्यक्षेत्र के रुप में स्वीकारे गये हैं। इन पर्वतों में विन्ध्य पर्वत का अपना विशेष स्थान है। 






(सुरेश गांधी)

कोई टिप्पणी नहीं: