गुजरात : टूटता खुमार ? - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 27 नवंबर 2017

गुजरात : टूटता खुमार ?

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2014 में नरेंद्र मोदी की आसमानी जीत ने सभी को अचंभित कर दिया था. यह कोई मामूली जीत नहीं थी. ऐसी मिसालें भारतीय राजनीति के इतिहास में बहुत कम मिलती हैं. इसके बाद पिछले तीन सालों में भाजपा ने अपना अभूतपूर्व विस्तार किया है. कई राज्यों में उनकी सरकारें बनी हैं. ज्यादा दिन नहीं हुये जब उतरप्रदेश की प्रचंड जीत ने एक बार फिर पूरे विपक्ष को स्तब्ध कर दिया था और फिर 2019 में विपक्ष की तरफ से सबसे बड़ा चेहरा माने जाने वाले नीतीश कुमार की एनडीए वापसी ने विरोधियों की रही सही उम्मीदों पर पानी फेर दिया था. लेकिन जीवन की तरह अनिश्चिताओं से भरे राजनीति के इस खेल में हालत अचानक बदले हुए नजर आ रहे हैं. पहली बार अमित शाह और मोदी का अश्वमेघ रथ अपने ही गढ़ में ठिठका हुआ नजर आ रहा है. गुजरात में चुनावी बिगुल बज चूका है लेकिन यहाँ की हवा बदली हुई नजर आ रही है. दरअसल गुजरात बीजेपी की शीर्ष जोड़ी का गढ़ हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यही के अपने “विकास मॉडल” को पेश करके दिल्ली की सत्ता तक पहुंचे थे. लेकिन अब विकास के इस “मॉडल” की हवा इस कदर उतरी हुयी नजर आ रही है कि यहाँ लोग “विकास पागल हो गया है” के नारे लगा रहे हैं. इन सबसे भगवा खेमे की बैचैनी साफ़ महसूस की जा सकती है. जनता अधीर होती है और सोशल मीडिया के इस दौर ने इस अधीरता को और बढ़ाया है.लोगों को मोदी सरकार से बड़ी उम्मीदें थीं लेकिन तमाम दावों और प्रचार प्रसार के बावजूद जमीन पर हालत बदतर ही हुये हैं. मोदी सरकार पूरे समय अभियान मोड में ही रही और उनका पूरा ध्यान चुनावी और हिन्दुतत्व विचारधारा के विस्तार पर ही रहा, इस दौरान 2014 में किये गये वायदों  पर शायद ही ध्यान दिया गया हो. नतीजे के तौर पर आज तीन साल बीत जाने के बाद मोदी सरकार के पास दिखाने के लिए कुछ खास नहीं है और अब निराशा के बादल उमड़ने लगे हैं. इधर नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदमों ने निराशाओं को और बढ़ाने का काम किया है. पहली बार विपक्ष मोदी सरकार को रोजगार, मंदी और जीएसटी की विफलता जैसे वास्तविक मुद्दों पर घेरने की कोशिश करते हुए कामयाब नजर आ रहा है. राहुल गाँधी संकेत देने लगे हैं कि उनका सीखने का लम्बा दौर अब समाप्ति की ओर हैं. अमित शाह के बेटे पर लगे आरोप से पार्टी और सरकार दोनों को बैकफूट पर आना पड़ा है. सोशल मीडिया पर खेल एकतरफ नहीं बचा है. कोरी लफ्फाजी, जुमलेबाजी बढ़-चढ़ कर बोलने और हवाई सपने दिखाने की तरकीबें अब खुद पर ही भारी पड़ने लगी हैं.  

क्या गुरदासपुर उपचुनाव में मिली करारी मात और इससे पहले इलाहाबाद,हैदराबाद, दिल्ली और जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में एबीवीपी की विफलताओं के सन्देश इस तरफ इशारा नहीं हैं कि भारत की राजनीतिक में हवा एक बार फिर बदल रही है? इस साल के बाकी बचे महीनों में दो राज्यों में चुनाव होने हैं और उसके बाद 2018 में चार राज्यों में चुनाव होंगें, ऐसे में अगर अपनी फितरत के हिसाब से मोदी सरकार का बाकी समय भी चुनाव लड़ने में ही बीत गया तो फिर 2014 और उसके बाद लगातार किये गये आसमानी वायदों का क्या होगा ? 

दावं पर गुजरात 
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गुजरात को लेकर भाजपाई खेमे में बेचैनी साफ़ महसूस की जा सकती है, पिछले कुछ महीनों से नरेंद्र मोदी लगातार गुजरात के दौरे कर रहे हैं, घोषणायें की जा रही हैं, यहाँ तक कि गुजरात में चुनाव तारीखों की घोषणा को इसलिये स्थगित करना पड़ा ताकि प्रधानमंत्री वहां जाकर “मैं ही विकास हूँ” का एलान कर सकें. दरअसल नरेंद्र मोदी के दिल्ली जाने के बाद से गुजरात भाजपा में एक ऐसी रिक्तता आई है जिसे कभी भरा नहीं जा सका. इस दौरान सूबे में दो बार मुख्यमंत्री बदलना पड़ा है. पाटीदार और दलितों के आंदोलोनों ने भी जमीन पर उनकी पकड़ ढ़ीली की है. नोटबंदी, जीएसटी जैसे क़दमों ने कारोबार प्रेमी राज्य गुजरात में गुस्से को बढ़ाया है. इस दौरान हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकोर जैसे विद्रोही उभरे हैं जो भाजपा का खेल बिगाड़ सकते हैं. ये तीनों किसी भी कीमत पर भाजपा के राजनैतिक समीकरणों को बिगाड़ना चाहते हैं. भाजपा द्वारा इन लोगों को पार्टी में शामिल करने के लिए करोड़ों रूपये खर्च करने के आरोप भी लग रहे हैं. उधर पिछले दो दशकों के दौरान कांग्रेस पार्टी कभी भी इतनी उत्साहित नजर नहीं आयी है, इस बार कांग्रेस सच में चुनाव लड़ती हुयी नजर आ रही है. राज्यसभा में अहमद पटेल की जीत ने भी कांग्रेसियों का उत्साह बढाने का काम किया है. भाजपा की समस्या यह है कि गुजरात की जनता विकास के तथाकथित मॉडल से ऊब चुकी है और अब इसे और स्वीकार करने को तैयार नहीं है, इसके प्रतिरोध में 'विकास पगला गया है' जैसे आवाजें सुनाई पड़ रही हैं. ऐसे में भाजपा फिर से अपने हिंदुत्व के मूल मुद्दे पर वापस आकर चुनाव लड़ना चाहती है. इसके लिये वहां योगी आदित्यनाथ को लाया गया लेकिन इसका भी खास असर देखने को नहीं मिला. इधर कांग्रेस साफ्ट हिन्दुतत्व को अपनाते हुए आर्थिक मुद्दों पर फोकस कर रही है जिसका असर भी होता दिखाई पड़ रहा है. गुजरात चुनाव बीजेपी के लिये अपना गढ़ बचाने की चुनौती साबित होने वाला है जबकि पूरे देश में लगातार अपनी जमीन खोती जा रही कांग्रेस के लिये यह अपने आप को दोबारा खोज लेने का एक मौका साबित हो सकता है. जो भी हो दबाव में भाजपा ही नजर आ रही हैं और उसका नर्वसनेस कांग्रेस को उर्जा देने का काम कर रहा है. गुजरात में भाजपा वही गलतियां दोहराती हुई नजर आ रही है जो उसने दिल्ली और बिहार विधानसभा के चुनाओं में किया था. 

टूटता तिलिस्म ?
पिछले तीन सालों में पहली बार मोदी सरकार घिरती हुई नजर आ रही है. अच्छे दिनों के सपने अब जमीनी सच्चाईयों का मुकाबला नहीं कर पा रहे है. नरेंद्र मोदी का जादू अभी भी काफी हद तक बरकरार है लेकिन हवा नार्मल हो चुकी है. पहली बार प्रधानमंत्री बैकफुट पर और उनके सिपहसालार घिरे हुए नजर आ रहे हैं. पहले मोदी की आंधी के सामने विपक्ष टिक नहीं पा रहा था लेकिन अब हालत नाटकीय रूप से बदले हुए नजर आ रहे हैं. सत्ता गंवाने के बाद पहली बार कांग्रेस खुद को एक मजबूत विपक्ष के रूप में पेश करने की कोशिश करती हुई नजर आ रही है. परिस्थितियां भी कुछ ऐसी बनी हैं जिसने मोदी सरकार बैकफुट पर आने को मजबूर किया है. कुछ महीनों पहले तक हताश नजर आ रही कांग्रेस अब धीरे-धीरे एजेंडा सेट करने की स्थिति में आने लगी है.  दरअसल अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर मोदी सरकार की विफलता और उस पर रोमांचकारी प्रयोगों ने विपक्ष को संभालने का मौका दे दिया है. भारत की चमकदार इकॉनामी आज पूरी तरह से लड़खड़ाई हुई दिखाई दे रही है. बेहद खराब तरीके से लागू किए गए नोटबंदी और जीएसटी ने इसकी कमर तोड़ दी है, इस दौरान विकास दर लगातार नीचे गया है, बेरोजगारी बढ़ रही है, बाजार सूने पड़े है और कारोबारी तबका हतप्रभ है, ऐसा महसूस होता है कि यह सरकार आर्थिक मोर्च पर स्थितियों को नियंत्रित करने में सक्षम ही नहीं है. दूसरी तरफ अमित शाह के बेटे जय शाह के अचानक विवादों में आ जाने के कारण मोदी सरकार के भ्रष्टाचार से लड़ने के दावों पर गंभीर सवाल खड़ा हुआ है. इधर गुजरात में खरीद फरोख्त के आरोपों ने भी इन दावों का हवा निकालने का काम किया है.

अपने ही लोग आलोचना करने में सबसे आगे हैं, भाजपा वरिष्ठ नेता और अटल कैबिनेट में वित्त मंत्री रह चुके यशवंत सिन्हा जैसे लोग अर्थव्यवस्था को लेकर बहुत तीखे तरीके से अपनी चिंतायें जता रहे हैं. पिछले दिनों इंडिया एक्सप्रेस में उन्होंने लिखा था ‘देश की अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से गिर रही है,इंस्पेक्टर राज, नोटबंदी तथा जीएसटी की वजह से करोड़ों नौकरियां गईं तथा देश की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गयी, निजी निवेश पिछले दो दशकों में सबसे निचले स्तर पर है, औद्योगिक उत्पादन ढह गया है, कृषि का क्षेत्र दबाव में है. निर्माण उद्योग जो सबसे ज्यादा नौकरियां देने वाला क्षेत्र है, वह मंदी में है और निर्यात सूख गया है’.उन्होंने आरोप लगाया है कि ‘चूंकि जीडीपी को तय करने के पुराने तरीके को भी मोदी सरकार ने बदल दिया, इसकी वजह से विकास दर 5.7 दिख रहा है, वरना देश का असली विकास दर केवल 3.7 और उससे कम है’. उन्होंने आशंका जताई है कि आगामी लोकसभा चुनाव तक देश की आर्थिक हालत के सुधरने की कोई उम्मीद नहीं है. इसी तरह से अरुण शौरी भी मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों को दिशाहीन बता चुके हैं. नोटबंदी की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा है कि ‘नोटबंदी काले धन को सफेद करने की सरकार की बड़ी स्कीम थी, जिसके पास भी काला धन था उसने नोटबंदी में उसे सफेद कर लिया’. उन्होंने तो यहां तक आरोप लगाया है कि केंद्र में ढाई लोगों की सरकार है और यह सरकार विशेषज्ञों की बात नहीं सुनती है. 

उलटे पड़ते दावं 
पूरे भारत को एक बाजार बना देने का दावा करने वाली सरकार के राज्य में बाजार ही वीरान है. यह पिछले दस सालों की सबसे सुस्त दीपावली थी. खुदरा कारोबारियों के संगठन “कंफेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स” के अनुसार इस साल दीपावली की बिक्री में पिछले साल की तुलना में 40 प्रतिशत की गिरावट आई है. मोदी सरकार का नोटबंदी व जीएसटी का दावं उल्टा पड़ गया है जिसकी वजह से मुल्क में आर्थिक स्थिति पर बेचैनी बढ़ती जा रही है. इन दो फैसलों ने कारोबार की कमर तोड़ दी है,भारत का आर्थिक विकास तीन सालों में अपने सबसे निचले स्तर पर है, जानकार चेतावनी दे रहे हैं कि देश मंदी की ओर जा साकता है. नोटबंदी के वाकई महीनों बाद जब आरबीआई  ने बताया कि 99 फीसदी पुरानी नकदी फिर बैंकों में जमा हो गई है तो फिर इसको लेकर डींगें मार रही सरकार को अपने तेवर ढीले करने पड़े. इसके बाद जीएसटी को इतने जटिल तरीके से लागू किया गया कि इस को लेकर मजाक गढ़ा जाने लगा और अब हर समझ ना आने वाली बात की तुलना जीएसटी से की जा रही है, यह  कारोबारियों और ग्राहक दोनों पर बोझ साबित हो रहा है. इससे कई व्यवसाय मुश्किल में आ गए हैं और क्षेत्रों में ग्राहकों को अधिक भुगतान करना पड़ रहा है. जाहिर है कि आज भारत की अर्थव्यवस्था मुश्किल दौर से गुजर रही है. भारत की पहली मुक्कमल दक्षिणपंथी सरकार अपने आर्थिक कुप्रबंधन के लिए कुख्यात होती जा रही है, उसकी  प्रतिभा भारत पर अपने धुर दक्षिणपंथी विचारधारा को लागू करने में ही सामने आयी है.

2014 की फांस 
2014 में नरेंद्र मोदी ‘अच्छे दिन” की लहर पर सवार होकर सत्ता में आये थे. इस दौरान लम्बे –चौड़े वायदे किए गये थे,आसमानी सपने दिखाए गये थे, 60 सालों की बर्बादी के एवज में महज  60 महीने मांगे गये थे जिसमें सब कुछ ठीक किया जाना था. जनता को मोदी सरकार से बड़ी उम्मीदें थीं. नरेंद्र मोदी को वोट देने वाले लोगों में एक बड़ा समूह युवाओं का था जिन्होंने उनके अच्छे दिनों के वायदे पर यकीन किया था. देश अभी भी “अच्छे दिन” का इंतजार ही कर रहा है, उम्मीदें साथ छोड़ रही हैं अगर अच्छे दिनों की जगह मंदी ने अपना पैर पसार लिया तो फिर सब्र का बाँध टूट सकता है.

कांग्रेस को मिला मौका 
मज़बूत और एकजुट विपक्ष की गैरहाजिरी मोदी सरकार के लिये वरदान साबित हुई है. पिछले तीन सालों में सरकार को घेरने का काम सिविल सोसाइटी और खुद भगवा खेमे के लोगों ने किया हैं. इस दौरान विपक्ष प्रभावहीन नजर आया, प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस एक के बाद एक झटके के सदमे और सुस्ती से बाहर ही नहीं निकल सकी. नीतीश कुमार के महागठबंधन का साथ छोड़ कर भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने के फैसले ने रही सही उम्मीदों पर पानी फेर दिया था. लेकिन इधर परिस्थितयों ने ही विपक्ष विशेषकर कांग्रेस को सर उठाने का मौका दे दिया है, कांग्रेस और उसके उपाध्यक्ष एक बार फिर से अपनी विश्वसनीयता हासिल करने के लिये जोड़- तोड़ कर रहे हैं. कुछ महीने पहले तक कांग्रेस भाजपा द्वारा उठाये गए विवादित मुद्दों के जाल में फंस कर रिस्पोंस करती हुयी ही नजर आ रही थी लेकिन अब वो एजेंडा तय करते हुए मोदी सरकार की विफलताओं को सामने लाने की कोशिश कर रही है, कांग्रेस ने अपने संवाद और सोशल मीडिया के मोर्चे पर भी काम किया है जिसका असर देखा जा सकता है.  इस दौरान दो घटनायें कांग्रेस के लिये टर्निंग पॉइन्ट साबित हुई हैं, पहला पंजाब विधानसभा चुनाव में “आप” के गुब्बारे का फूटना और दूसरा नीतीश कुमार का भगवा खेमे में चले जाना. पंजाब में आप की विफलता से राष्ट्रीय स्तर पर उसके कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरने की सम्भावना क्षीण हुयी है, जबकि नीतीश कुमार को 2019 में नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष का चेहरा माना जा रहा था लेकिन उनके पाला बदल लेने से अब 2019 में चाहे अनचाहे राहुल गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी और विपक्ष को नरेंद्र मोदी का सामना करना है.  इधर पहले गुजरात के राज्यसभा में अहमद पटेल और फिर गुरदासपुर में सुनील जाखड़ की बम्पर जीत ने कांग्रेस के लिये टानिक का काम किया है. अमेरिका दौरे और उसके बाद राहुल गांधी कुछ अलग ही तेवर में नजर आ रहे हैं. राहुल गांधी में दिख रहे यह बदलाव अब स्थायी नजर आने लगे हैं, इन दिनों वे मोदी के गढ़ गुजरात की जमीन पर उतरकर जिस तरह से सुर्खियाँ बटोर रहे हैं उससे भाजपा बैकफुट पर नजर आ रही है. सोशल मीडिया पर भी वे आजकल खूब सक्रिय हैं. कांग्रेस के लिये सबसे अच्छी खबर यह है कि राहुल गाँधी अपने काम को मजे के साथ करना सीख चुके हैं.  फिलहाल कांग्रेस और राहुल गाँधी के पास गंवाने के लिए कुछ खास नहीं बचा है आगे उन्हें अपने खोये को  दोबारा हासिल करना है .

पेशगोई मुश्किल 
ज्यादा दिन नहीं बीते जब अमित शाह अगले आम चुनाव में लोकसभा की 350 से ज्यादा सीटें जीतने का लक्ष्य तय करते हुए नजर आ रहे थे. दरअसल 2014 और उसके बाद राज्यों में मिली चुनावी जीत,विपक्ष की खस्ता हालत, नरेंद्र मोदी के मुकाबले किसी चमत्कारी,मजबूत और फोकस रखने वाले नेता का अभाव ने भाजपा को अपने दूसरे कार्यकाल का यकीन दिला दिया था. इसलिये वर्तमान कार्यकाल में पूरा फोकस राज्यों में चुनाव जीतने या किसी भी तरह से सरकार बनाने पर रहा है. अब यह रणनीति एक चूक साबित हुई है.राजनीति एक लगातार बदलते रहने वाला खेल है जहाँ मौके आते-जाते रहे हैं. कोई भी ढिलाई बाजी पलट सकता है. यह कहना तो बहुत जल्दबाजी होगा कि बाजी पलट चुकी है, लेकिन सतह पर बेचैनी जरूर हैं, हवा का रुख कुछ बदला सा लग रहा है. सत्ता के शीर्ष पर बैठी तिकड़ी के चेहरे पर हताशा की बूंदें दिखाई पड़ने लगी हैं. मोदी तिलस्म की चमक फीकी पड़ी है, लहर थम चुकी है. अगर टूटती उम्मीदों,चिंताओं और निराशाओं को सही तरीके से दूर नहीं किया गया तो आने वाले समय में इसका राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है.  आज की तारीख में कोई सियासी नजूमी भी यह पेशगोई करने का खतरा मोल नहीं ले सकता कि 2019 में ऊंट किस करवट बैठेगा. जिंदगी की तरह सियासत में भी हालत बदलते देर नहीं लगती. 2013 से पहले कोई नहीं कह सकता था कि नरेंद्र मोदी भाजपा के केंद्र में आ जायेंगें.  राहुल गाँधी के बारे में भी यह जरूरी नहीं की वे हर बार असफल ही हों और कभी –कभी दूसरी की नाकामियां भी तो आपको कामयाब बना सकती हैं. 





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जावेद अनीस 
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