विशेष आलेख : अभिव्यक्ति की आज़ादी और जम्हूरियत के चौथे स्‍तंभ पर खूनी हमलों का दौर - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।

मंगलवार, 28 नवंबर 2017

विशेष आलेख : अभिव्यक्ति की आज़ादी और जम्हूरियत के चौथे स्‍तंभ पर खूनी हमलों का दौर

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत पत्रकारिता के लिहाज से सबसे खतरनाक मुल्कों की सूची में बहुत ऊपर है. रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स  द्वारा 2017 में जारी वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स के अनुसार इस मामले में 180 देशों की सूची में भारत 136वें स्थान पर है. यहाँ अपराध, भ्रष्टाचार, घोटालों, कार्पोरेट व बाहुबली नेताओं के कारनामें उजागर करने वाले पत्रकारों को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है. इसको लेकर पत्रकारों के सिलसिलेवार हत्याओं का लम्बा इतिहास रहा है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक पिछले दो सालों के दौरान देश भर में पत्रकारों पर 142 हमलों के मामले दर्ज किये हैं जिसमें सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश (64 मामले) फिर मध्य प्रदेश (26 मामले) और बिहार (22 मामले) में दर्ज हुए हैं. इधर एक नया ट्रेंड भी चल पड़ा है जिसमें वैचारिक रूप से अलग राय रखने वालों, लिखने पढ़ने वालों को डराया, धमकाया जा रहा है, उनपर हमले हो रहे हैं यहाँ तक कि उनकी हत्यायें की जा रही हैं. आरडब्ल्यूबी की ही रिपोर्ट बताती है कि भारत में कट्टरपंथियों द्वारा चलाए जा रहे ऑनलाइन अभियानों का सबसे बड़े शिकार पत्रकार ही बन रहे हैं, यहां न केवल उन्हें गालियों का सामना करना पड़ता है, बल्कि शारीरिक हिंसा की धमकियां भी मिलती रहती हैं.

पिछले दिनों वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश को बेंगलुरु जैसे शहर में उनके घर में घुसकर मार दिया गया. लेकिन जैसे उनके वैचारिक विरोधियों के लिये यह काफी ना रहा हो. सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी समूहों के लोग उनकी जघन्य हत्या को सही ठहराते हुए जश्न मानते नजर आये. विचार के आधार पर पहले हत्या और फिर जश्न यह सचमुच में डरावना और ख़तरनाक समय है. गौरी लंकेश की निर्मम हत्या ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हामियों को झकझोर दिया है, यह एक ऐसी घटना है जिसने स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता करने वाले लोगों में गुस्से और निराशा से भर दिया है. आज गौरी लंकेश दक्षिणपंथी राजनीति के खिलाफ प्रतिरोध की सबसे बड़ी प्रतीक बन चुकी है. जाहिर है उनके कहे और लिखे की कोई अहिमियत रही होगी जिसके चलते उनकी वैचारिक विरोधियों ने उनकी जान ले ली. गौरी एक निर्भीक पत्रकार थीं, वे सांप्रदायिक राजनीति और हिन्दुतत्ववादियों के खिलाफ लगातार मुखर थी. यह उनकी निडरता और ना चुप बैठने की आदत थी जिसकी कीमत उन्होंने अपनी जान देकर चुकाई है. गौरी की हत्या बिल्कुल उसी तरह की गयी है जिस तरह से उनसे पहले गोविन्द पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर,एमएम कलबुर्गी की आवाजों को खामोश कर दिया गया था. ये सभी लोग लिखने,पढ़ने और बोलने वाले लोग थे जो सामाजिक रूप से भी काफ़ी सक्रिय थे.

गौरी लंकेश की हत्या के बाद एक फेसबुक पोस्ट में कहा गया कि “गौरी लंकेश की हत्या को देश विरोधी पत्रकारिता करने वालों के लिए एक उदाहरण के तौर पर पेश करना चाहिए, मुझे उम्मीद है कि ऐसे देश द्रोहियों की हत्या का सिलसिला यही खत्म नहीं होगा और शोभा डे, अरुंधति राय, सागरिका घोष, कविता कृष्णन एवं शेहला रशीद आदि को भी इस सूची में शामिल किया जाना चाहिए.” जाहिर है हत्यारों और उनके पैरेकारों के हौंसले बुलंद हैं. भारतीय संस्कृति के पैरोकार होने का दावा करने वाले गिरोह और साईबर बन्दर बिना किसी खौफ के नयी सूचियाँ जारी कर रहे हैं, धमकी और गली-गलौज कर रहे हैं, सरकार की आलोचना या विरोध करने वाले लोगों को देशद्रोही करार देते हैं और अब हत्याओं के बाद शैतानी जश्न मन रहे हैं. गौरी लंकेश को लेकर की हत्या के बाद जिस तरह से सोशल मीडिया पर उन्हें नक्सल समर्थक, देशद्रोही और हिन्दू विरोधी बताते हुए उनके खिलाफ घृणा अभियान चलाया गया वैसा इस देश में पहले कभी नहीं देखा गया. इसमें ज्यादातर वे लोग हैं, दक्षिणपंथी विचारधारा और मौजूदा सरकार का समर्थन करने का दावा करते हैं. जश्न मनाने वालों को किसकी शह मिली हुई है यह भी दुनिया के सामने है. यह हैरान करने वाली बात है कि इस हत्या को जायज़ बताने वालों में वे लोग भी शामिल हैं जिन्हें देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ट्विटर पर फॉलो करते हैं. निखिल दधीच का उदाहरण सबके सामने है जिसने बेहद आपत्तिजनक और अमर्यादित भाषा का प्रयोग करते हुए गौरी लंकेश की हत्या को जायज ठहराया. गौरी की हत्या के कुछ समय बाद ही उसने यह ट्वीट किया था कि ‘एक कुतिया कुत्ते की मौत क्या मरी सारे पिल्ले एक सुर में बिलबिला रहे है’. निखिल दधीच को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह द्वारा फॉलो किया जाता है. निखिल की कई ऐसी तस्वीरें भी वायरल हो चुकी है जिसमें वह केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा के शीर्ष नेताओं के साथ नजर आ रहा है.

भारत के प्रधानमंत्री सोशल मीडिया पर गाली गलौज और नितांत आपत्तिजनक पोस्ट करने वालों के अनुसरण किये जाने को लेकर पहले भी सुर्खियाँ बटोर चुके हैं. पिछले साल सत्याग्रह पोर्टल पर इसको लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी जिसमें बताया गया था कि प्रधानमंत्री ट्विटर पर विपक्ष के किसी भी नेता को फॉलो नहीं करते थे लेकिन वे ऐसे दर्जनों लोगों को फॉलो करते हैं जो निहायत ही शर्मनाक और आपतिजनक पोस्ट करते हैं. सांप्रदायिक द्वेष व अफवाहों को फैलाने में मशगूल रहते हैं और महिलाओं को भद्दी गलियां देते हैं. सत्याग्रह पोर्टल के अनुसार रिपोर्ट प्रकाशित होने के कुछ दिनों बाद प्रधानमंत्री ने विपक्ष के दर्जनों नेताओं को तो फॉलो करना तो शुरू कर दिया था लेकिन इसके साथ ही उन्होंने ऐसे लोगों को फॉलो करना नहीं छोड़ा जो ट्विटर पर गाली-गलौज और नफरत फैलाते है. स्वाति चतुर्वेदी जिन्होंने ‘आई एम अ ट्रोल: इनसाइड द सीक्रेट डिजिटल आर्मी ऑफ द बीजेपी’ किताब लिखी है, बताती हैं कि प्रधानमंत्री कई अकाउंट को फॉलो करते हैं, जो खुले आम बलात्कार, मौत की धमकियां भेजते हैं, सांप्रदायिक भावनाएं भड़काते हैं. हत्या के बाद सत्ताधारियो पार्टी और इसके संगठनों से जुड़े कुछ नेता भी दबे और खुले शब्दों में इस हत्या को जायज ठहराते हुए नजर आये. कर्नाटक के भाजपा विधायक और पूर्व मंत्री डीएन जीवराज ने बयां दिया कि ‘गौरी लंकेश जिस तरह लिखती थीं, वो बर्दाश्त के बाहर था, अगर उन्होंने आरएसएस के ख़िलाफ़ नहीं लिखा होता तो आज वह ज़िंदा होतीं’. इसी तरह से केरल हिंदू ऐक्य वेदी आरएसएस समर्थक संगठनों का साझा मंच है, के राज्य प्रमुख केपी शशिकला टीचर का बयान देखिये जिसमें वे कह रही हैं कि “मैं सेकुलर लेखकों से कहना चाहूंगी कि अगर वो लंबा जीवन चाहते हैं तो उन्हें मत्युंजय जाप कराना चाहिए नहीं तो आप भी गौरी लंकेश की तरह शिकार बनोगे”.

भारत हमेशा से ही एक बहुलतावादी समाज रहा है जहाँ हर तरह के विचार एक साथ फलते-फूलते रहे हैं यही हमारी सबसे बड़ी ताकत भी रही है लेकिन अचानक यहाँ किसी एक विचारधारा या सरकार की आलोचना करना बहुत खतरनाक हो गया है इसके लिए आप राष्ट्र-विरोधी घोषित किये जा सकते हैं और आपकी हत्या करके जश्न भी मनाया जा सकता है. बहुत ही अफरा-तफरी का माहौल है जहाँ ठहर कर सोचने–समझने और संवाद करने की परस्थितियाँ सिरे से गायब कर दी गयी हैं, सब कुछ खांचों में बट चूका है हिंदू बनाम मुसलमान, राष्ट्रवादी बनाम देशद्रोही. सोशल मीडिया ने लंगूर के हाथ में उस्तरे वाली कहावत को सच साबित कर दिया है जिसे राजनीतिक शक्तियां बहुत ही संगठित तौर पर अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर रही हैं. पूरे मुल्क में एक खास तरह की मानसिकता और उन्माद को तैयार किया जा चूका है. यह एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज बहुत महंगा साबित होने वाला है और बहुत संभव है कि यह जानलेवा भी साबित हो. समाज से साथ–साथ मीडिया का भी ध्रुवीकरण किया गया है. समाज में खींची गयीं विभाजन रेखाएं, मीडिया में भी साफ़ नजर आ रही है. यहाँ भी अभिव्यक्ति की आज़ादी और असहमति की आवाजों को निशाना बनाया गया है इसके लिए ब्लैकमेल, विज्ञापन रोकने, न झुकने वाले संपादकों को निकलवाने जैसे हथखंडे अपनाये गये हैं, इस मुश्किल समय में मीडिया को आजाद होना चाहिए था लेकिन आज लगभग पूरा मीडिया हुकूमत की डफली बजा रहा है. यहाँ पूरी तरह एक खास एजेंडा हावी हो गया है, पत्रकारों को किसी एक खेमे में शामिल होने और पक्ष लेने को मजबूर किया जा रहा है.
 
किसी भी लोकतान्त्रिक समाज के लिये अभिव्यक्ति की आज़ादी और असहमति का अधिकार बहुत ज़रूरी है. फ्रांसीसी दार्शनिक “वोल्तेयर” ने कहा था कि “मैं जानता हूँ कि जो तुम कह रहे हो वह सही नहीं है, लेकिन तुम कह सको इस अधिकार की लडाई में, मैं अपनी जान भी दे सकता हूँ”. एक मुल्क के तौर पर हमने भी नियति से एक ऐसा ही समाज बनाने का वादा किया था जहाँ सभी नागिरकों को अपनी राजनीतिक विचारधारा रखने, उसका प्रचार करने और असहमत होने का अधिकार हो. लेकिन यात्रा के इस पड़ाव पर हम अपने संवैधानिक मूल्यों से भटक चुके हैं आज इस देश के नागरिक अपने विचारों के कारण मारे जा रहे हैं और इसे सही ठहराया जा रहा है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हम एक ऐसे समय में धकेल दिये गये हैं जहाँ असहमति की आवाजों के लिये कोई जगह नहीं है गौरी लंकेश एक निडर और दुस्साहसी महिला थीं और बहुत ही निडरता के साथ अपना पक्ष रखती थीं और अपनी कलम और विचारों से अपने विरोधियों को लगातार ललकारती थी. वे अपनी कलम लिए शहीद हुईं हैं. चुप्पी और डर भरे इस महौल में उन्होंने सवाल उठाने और अभिव्यक्ति जताने की कीमत अपनी जान देकर चुकायी है. शायद इसका पहले से अंदाजा भी था, पिछले साल एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "मेरे बारे में किए जा रहे कॉमेंट्स और ट्वीट्स की तरफ जब मैं देखती हूं तो मैं चौकन्नी हो जाती हूं... मुझे ये डर सताता है कि हमारे देश में लोकतंत्र के चौथे खम्भे की अभिव्यक्ति की आजादी का क्या होगा... ये केवल मेरे निजी विचारों की बात है, इसका फलक बहुत बड़ा है."

गौरी लंकेश की हत्या एक संदेश है जिसे हम और अनसुना नहीं कर सकते हैं, इसने अभिव्यक्ति की आज़ादी और पत्रकारों की सुरक्षा का सवाल को एक बार फिर केंद्र में ला दिया है. यह हमारी सामूहिक नाकामी का परिणाम है और इसे सामूहिक रूप से ही सुधार जा सकता है. यह राजनीतिक हत्या है जो बताती है कि वैचारिक अखाड़े की लड़ाई और खूनी खेल में तबदील हो चुकी है. इस स्थिति के लिए सिर्फ कोई विचारधारा, सत्ता या राजनीति ही जिम्मेदार नहीं है इसकी जवाबदेही समाज को भी लेनी पड़ेगी. भले ही इसके बोने वाले कोई और हों लेकिन आखिरकार नफरतों की यह फसल समाज और सोशल मीडिया में ही तो लहलहा रही है. नफरती राजनीति को प्रश्रय भी तो समाज में मिल रहा है. नागरिता की पहचान को सबसे ऊपर लाना पड़ेगा. लोकतंत्रक चौथे स्तंभ को भी अपना खोया सम्मान और आत्मविश्वास खुद से ही हासिल करना होगा .





liveaaryaavart dot com

जावेद अनीस 
Contact-9424401459
javed4media@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं: