आलेख : सच है, कितना लाभकारी कितना उपयोगी - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

आलेख : सच है, कितना लाभकारी कितना उपयोगी

truth-and-life
दुनिया के लोग स्व-विवेक के बजाय औरों के थोपे गये विचारों के अनुरुप अपना जीवन संचालित करने का प्रयास करते हैं और यही उनकी दुख-तकलीफों का मुख्य कारण है। वे कभी इस बात की सच्चाई को जानने की कोशिश नहीं करते कि जिन्हें वे फॉलो कर रहे हैं अथवा फॉलो करते आ रहे हैं, उन्होंने जो कुछ कहा है, वह कितना सच है, कितना लाभकारी है, कितना उपयोगी है। दुनिया के अधिकांश लोग इसी भांति दूसरों के विचारों का बोझ ढोते-ढोते अपना पूरा जीवन गंवा देते हैं। जिस प्रकार मृग की नाभि में कस्तुरी होती है, लेकिन वह सारी दुनिया में उसे खोजता फिरता है, उसी भांति मनुष्य के मन के अंदर ही उसकी सुख, शांति, समृद्धि की कस्तुरी छुपी होती है, लेकिन वह उसे जीवन भर अल्ला-भगवान-गॉड, मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर अथवा किसी मौलवी, धर्मगुरु, पादरी के जरिये हासिल करने की वृथा कोशिश करता रहता है, इसीलिए उसका जीवन मृगतृष्णा बन जाता है, जो कभी तृप्त नहीं होता। रोटी खाने से आपकी भूख मिट सकती है, लेकिन आप अगर घास खाकर उसे तृप्त करना चाहेंगे तो वो भला कब तृप्त होने वाली है? दुनिया में लोग युगों से काफी कुछ कहते, लिखते, बताते आये हैं और हम उन्हें अंधों की तरह सच मानकर उनका पालन करते आये हैं, हमने कभी भी उसकी सच्चाई, उसकी उपयोगिता, उसकी असलियत जानने की कोशिश नहीं की।

हाल ही में असम के ग्वालपाड़ा जिले के बगुवान में रहने वाले एक परिवार ने मुझे वास्तु सलाह के लिए आमंत्रित किया था। मेरे कार्यक्रम के बारे में जानकर कवि, पत्रकार दीपक शर्मा ने मुझे फोन कर कहा कि उनका भी रविवार को सुबह मेरे सफर के बीच में पडऩे वाले बामुनीगांव में बिहू की मिटिंग में जाने का कार्यक्रम है। सो जब आप घर से निकलें तो मुझे फोन कर दें, मैं भी रामपुर से आपके साथ बामुनीगांव तक चलूंगा। इधर छयगांव से शुक्लेश्वर कलिता के भी मेरे साथ बगुवान जाने का कार्यक्रम तय था। दोनों को साथ लेकर जब मैं बामुनीगांव पहुंचा तो दीपक शर्मा ने ड्राईवर मोहन अली से कहा-'कृृष्ण, जरा गाड़ी रोक देना, मैं यहीं उतर जाता हूँ।' दीपक शर्मा की आदत है कि वे कभी किसी को 'प्रभू' कहकर संबोधित करते हैं तो कभी 'कृृष्ण' कहकर, कभी 'महोदय' कहकर संबोधित करते हैं तो कभी 'भैय्या' कहकर बुलाते हैं। जब उन्होंने ड्राईवर को कृृष्ण कहकर संबोधित करते हुए गाड़ी रोकने को कहा तो ड्राईवर ने गाड़ी रोक दी और दीपक शर्मा गाड़ी से उतर गये। हमारी गाड़ी कुछ दूर आगे चली ही थी कि शुक्लेश्वर कलिता ने ड्राईवर से कहा, 'कृृष्ण, जरा किसी सुनसान जगह पर गाड़ी रोक देना, मुझे लघुशंका करनी होगी।' ड्राइवर ने कुछ आगे एक सुनसान जगह देखकर गाड़ी रोक दी। लघुशंका के बाद हमारी यात्रा पुन: प्रारंभ हो गयी। गाड़ी में बातचीत का दौर भी चलता रहा। बीच-बीच में शुक्लेश्वर कलिता ड्राईवर को 'कृृष्ण' कहकर पुकारते रहे। न तो ड्राईवर ने और न मैंने ही उन्हें यह बताने की कोशिश की कि ड्राईवर का नाम कृृष्ण नहीं, बल्कि मोहन अली है और उन्होंने भी एक बार भी यह जानने की कोशिश नहीं कि ड्राईवर का असली नाम क्या है? शाम को हम जब वापस लौटे तो गाड़ी से उतरते वक्त भी शुक्लेश्वर कलिता ने ड्राईवर को 'कृृष्ण' कहकर ही उससे विदा ली।

किसी ने ड्राईवर को 'कृृष्ण' कहकर पुकारा और शुक्लेश्वर कलिता भी उसे दिन भर 'कृृष्ण' कहकर ही पुकारते रहे। उन्होंने उसका असली नाम जानने की एक बार भी कोशिश नहीं की। यही हाल मानव जाति का है। युगों से लोग अपने विचार दूसरों पर थोपते आये हैं और शुक्लेश्वर कलिता की तरह हम उन्हें जैसे का तैसा स्वीकारते और अपनाते आये हैं। हम कभी भी यह जानने की कोशिश नहीं करते या हमने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि उन विचारों में कितनी सच्चाई है, वे विचार उस काल में भले ही उपयोगी रहे हों, लेकिन हो सकता है कि आज के आधुनिक युग में उनकी कोई उपयोगिता न हो। जिसने इन विचारों को लिखा है उनकी नियत में कहीं, किसी प्रकार की खोट तो नहीं थी या फिर उन्होंने अपना उल्लु सीधा करने के लिए तो कहीं ये विचार दुनिया के लोगों के दिल ओ दिमाग पर नहीं थोपे थे आदि-आदि। किसी ने कहा भगवान ही असली सच्चाई है, तो किसी ने कहा नहीं दुनिया का असली मालिक तो अल्ला ही है। किसी ने कहा प्रभू यिशु की प्रार्थना करने से ही मुक्ति मिलती है तो किसी ने कहा नहीं, मंदिर-मस्जिद में पशुओं की बलि-कुर्बानी देने से ही स्वर्ग-मोक्ष या जहन्नुम नसीब होता है। लोग मौलवियों, पादरियों, धर्मगुरुओं को लोगों का शोषण करने, लड़कियों से बलात्कार करने, मार-पीट, हत्या, लूटपाट करने की घटनाओं में सम्मिलित होने के मामले सार्वजनिक होने अथवा विभिन्न अपराधों में उनके जेल जाने के बावजूद अंधों की तरह उन्हें अपना गुरु, अपना भगवान-अल्ला-गॉड मानते रहते हैं।

लोग कहते हैं कि हम आधुनिक हैं, हम उच्च शिक्षित हैं, हम प्रगतिशील हैं, हम विवेकवान हैं, लेकिन क्या वाकई हम वैसे हैं, जैसा कि खुद को कहते या समझते हैं। कोई यह नहीं कहता कि असल में हम अंधे हैं, क्योंकि हम अपने नहीं बल्कि दूसरों के विचारों पर चलते हैं, हम उन्हीं विचारों को सच मानते आये हैं अथवा आज भी मान रहे हैं, जैसा कि हमें युगों से समझाया जाता रहा है। चूंकि हमारे पास विवेक की आंख नहीं है, इसलिए हम अंधे नहीं तो क्या हैं? लेकिन क्या हम सिर्फ अंधे ही हैं? जी नहीं, हम अंधे ही नहीं बल्कि लंगड़े भी हैं क्योंकि हमें खुद पर भरोसा नहीं और हम अपने मन की शक्ति के बजाय किसी भगवान-अल्ला-गॉड अथवा किसी धर्मगुरु, मौलवी, पादरी की बैशाखी के भरोसे अपनी जीवन नैय्या को पार लगाने में विश्वास अथवा रुचि रखते हैं। प्रकृृति ने हमारे मन में असीम शक्ति प्रदान की है, लेकिन जीवन भर हम अपनी शक्ति, अपनी बाजुओं पर भरोसा करने के बजाय दूसरों की बाजुओं, बैशाखियों के भरोसे चलते हैं, इसलिए हम अंधे ही नहीं हम लंगड़े भी हैं, विकलांग भी हैं।



---राजकुमार झांझरी---
संपादक, 'आगमन' (मासिक पत्रिका)
अध्यक्ष, रि-बिल्ड नॉर्थ इस्ट, गुवाहाटी

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