विशेष आलेख : राज्यसभा चुनाव नतीजे ने ढीले किए सपा-बसपा के कसबल - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

विशेष आलेख : राज्यसभा चुनाव नतीजे ने ढीले किए सपा-बसपा के कसबल

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उत्तर प्रदेश में भाजपा के नौ राज्यसभा प्रत्याशियों की जीत ने सपा और बसपा गठबंधन के कसबल ढीले कर दिए हैं। जिस तरह बिगड़े हुए दूध से माखन नहीं निकलता, उसी तरह बिगड़ी बात नहीं बनती। टूटे हुए धागे को जोड़ने पर उसमें गांठ तो लगती ही है। राज्य अतिथिगृह कांड के बाद सपा और बसपा के बीच जो दरार पड़ गई थी, उसे दूर करने के लिए अखिलेश यादव लंबे समय से प्रयासरत थे लेकिन सफलता नहीं मिल पा रही थी। गोरखपुर और फूलपुर संसदीय उपचुनाव में मायावती ने सपा के समर्थन की घोषणा कर वर्षों पुरानी मतभेद की दरार पर मिट्टी डालने का काम किया था। उस चुनाव में भाजपा प्रत्याशियों को उन्होंने शिकस्त भी दी और इसी के साथ भाजपा बनाम गठबंधन दल की राजनीति पर देश भर में विमर्श तेज हो गया था। कांग्रेस भी गठबंधन में शामिल होने को बेताब है। उत्तर प्रदेश के राज्यसभा चुनाव में इसी भावभूमि के साथ उसने बसपा प्रत्याशी भीमराव अंबेडकर को अपने विधायक के मत भी दिलाए। अगर बसपा प्रत्याशी जीतता तो शायद कांग्रेस के योगदान की कोई कीमत भी होती लेकिन मायावती ने अखिलेश यादव को सहयोग के लिए जितनी तवज्जो दी, उतना शायद कांग्रेस को नहीं दिया। सिर्फ धन्यवाद से काम चला लिया। कांग्रेस की स्थिति तो ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ वाली ही है। वह नेकी भी करती है और दरिया में भी डाल रही है। श्रेय मिलना नहीं है तो इसके अलावा उसके पास चारा ही क्या है?

  रही बात मायावती की तो वे कभी किसी का उधार नहीं रखतीं। तुरंत हिसाब बराबर कर देती हैं। बसपा प्रमुख मायावती ने तो अखिलेश यादव को अनुभवहीन करार दे दिया है। बकौल मायावती अगर अखिलेश यादव राजा भैया के झांसे में नहीं आते तो बसपा प्रत्याशी नहीं हारता। उन्होंने यह भी कहा कि अखिलेश की जगह अगर मैं होती तो मैं सपा प्रत्याशी को पहले जिताती। इसका मतलब साफ है कि सपा ने खुलकर उनका साथ नहीं दिया। जब उन्हीं के दल के विधायक ने भाजपा प्रत्याशी के पक्ष में वोट डाल दिया तो वे अखिलेश को क्या कहेंगी। भले ही मायावती ने अपने विधायक अनिल सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया हो लेकिन अखिलेश पर दिए गए अनुभवहीनता वाले बयान ने सपा-बसपा गठबंधन की मजबूती पर सवाल तो उठा ही दिए हैं। यह बयान कहीं न कहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उस आरोप के नजदीक है जिसमें उन्होंने कहा था कि सपा केवल लेना जानती है, देना नहीं जानती। वह चाहती तो बसपा प्रत्याशी को राज्यसभा चुनाव जिता सकती थी। जाहिर तौर पर मुख्यमंत्री का यह बयान सपा-बसपा गठबंधन को कमजोर करने की रणनीति का ही हिस्सा हो सकता है। मायावती ने यह भी स्वीकार किया है कि गोरखपुर और फूलपुर की हार के बाद भाजपा को दिन में तारे दिख रहे थे। भाजपा ने सपा- बसपा गठबंधन तोड़ने के लिए राज्यसभा चुनाव में नौवां उम्मीदवार खड़ा किया। भाजपा और संघ को लगता है कि ऐसा करके वह सपा-बसपा गठबंधन में दरार डाल देगी लेकिन ऐसा नहीं होगा। हम लोकसभा आम चुनाव में पूरी ताकत झोंक देंगे। उन्होंने रालोद के बारे में नए सिरे से चिंतन करने की बात कही। यह जीत गोरखपुर और फूलपुर का बदला नहीं हो सकती। बकौल मायावती फूलपुर और गोरखपुर में भाजपा जनता के वोट से हारी है जबकि राज्यसभा को नौवीं सीट उसने जोड़-तोड़ से जीती है। यह खरीद-फरोख्त की जीत है। राजनीति कारोबार नहीं है लेकिन उसे कारोबार बनाने का काम तो मायावती ने ही किया था। न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि मध्य प्रदेश में भी वह गिव एंड टेक की रणनीति पर काम कर रही थीं। इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि सपा अगर चाहती तो बसपा प्रत्याशी नहीं हारता लेकिन सपा ने सबसे पहले अपनी प्रत्याशी जया बच्चन को वरीयता दी। उन्हें पता था कि राजा भैया उनका साथ देंगे लेकिन यह नहीं सोचा कि राजा भैया मायावती राज में हुए अपने उत्पीड़न को कैसे भूल जाएंगेेे। उन्होंने अखिलेश यादव से भी अपने रिश्ते निभाए और भाजपा के साथ भी। उन्होंने अगर यह कहा कि डिनर खाकर उन्होंने कोई गड़बड़ नहीं किया है तो वे अपनी जगह बिल्कुल सही थे। उन्होंने तो पहले ही स्पष्ट कर दिया कि वे अखिलेश के प्रति प्रतिबद्ध हैं, मायावती और उनकी पार्टी उनकी पसंद नहीं हो सकती। उन्होंने अपना वोट जया बच्चन को दिया। सिद्धांततः यह सही भी था। वे मायावती की पार्टी को किस उपकार के बदले लाभ पहुंचाते। उन्होंने अपने एक परिचित विधायक का वोट भाजपा के नवम प्रत्याशी अनिल अग्रवाल को दिला दिया। राजा भैया जिस किसी के भी साथ रहे, संबंध निभाने के मामले में कभी पीछे नहीं घटे। यह तो अखिलेश यादव को भी सोचना चाहिए था कि राजा भैया मायावती के प्रत्याशी का साथ क्यों देंगे?  वे चाहते तो राजा भैया के वोट को पहले ही जया बच्चन के लिए जोड़ लेते और किसी सपा विधायक एक वोट भीमराव अंबेडकर के लिए निर्धारित कर देते। 

 रही बात चुनाव में जीत-हार की तो वह बेहद सामान्य बात है लेकिन मायावती को अखिलेश को अनुभवहीन नहीं कहना चाहिए था। यह तो सोचा ही जाना चाहिए कि अखिलेश यादव भी अब उनकी तरह ही एक क्षेत्रीय दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। गोरखपुर और फूलपुर में भाजपा की हार न होती तो शायद यह गठबंधन आगे बढ़ता ही नहीं। इसके बाद डिनर डिप्लोमेसी का खेल शुरू हो गया था लेकिन भाजपा ने राज्यसभा चुनाव में नौवां प्रत्याशी उतारकर, उसे चुनाव जिताकर इस गठबंधन की नींव में दरार तो डाल ही दी है। मुख्यमंत्री पहले ही इस दोस्ती को ‘केर-बेर की’ बता चुके हैं। मायावती राजनीतिक नुकसान बर्दाश्त नहीं कर सकतीं। मायावती को प्रधानमंत्री पद का दावेदार करार देकर सपा ने प्रदेश की हुकूमत अपने नाम करने की चाल तो चली लेकिन राज्यसभा चुनाव नतीजे ने पहले ही मायावती के विश्वास को हिला दिया है। मायावती के ‘कुंडा के गुंडा’ वाली टिप्पणी के बाद भले ही अखिलेश यादव ने राजा भैया के शुक्रिया वाले ट्विट को हटा दिया है लेकिन इससे भी उनकी अनुभवहीनता ही साबित हुई है। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे में कांग्रेस और सपा के बीच की खींचतान किसी से छिपी नहीं है। मायावती इतना मोल-भाव कर पाने की स्थिति में तो नहीं ही होंगी। चुनाव में हार-जीत रणनीति की होती है। प्रत्याशी तो निमित्त मात्र होते हैं। भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिए विपक्ष एकजुट तो हो भी जाए लेकिन अपने स्वार्थों से वह समझौता नहीं कर सकता। विपक्ष राज्य सभा चुनाव को लोकसभा उपचुनाव का बदला माने या न माने लेकिन भाजपा अब अति आत्मविश्वास में नहीं आने वाली है। दूध का जला छांछ फूंककर पीता है, यह बात विपक्ष को समझनी ही होगी। कांग्रेस कह रही है कि भाजपा ने दलित को हराया है, दलित उसे हराएंगे। बेहद हास्यास्पद तर्क है यह। कांग्रेस इससे आगे सोच भी नहीं सकती। गठबंधन धर्म निभाना आसान नहीं है शायद। यह आग का दरिया है और डूबकर जाना है। मोदी और योगी के विरोध की नाव पर सवार विपक्ष को नाव में स्वार्थगत मतभेदों के छेद भरने पर भी विचार करना होगा क्योंकि राजनीति में चुनाव जीतना ही सबका अभीष्ठ है। कोई किसी का सगा नहीं है, सब मतलब के यार हैं। खुद ही से दोस्ती है, खुद ही से प्यार है। यहां बस नकद ही चलता है, उधार का नहीं कोई आधार है। राजनीति एक ऐसा बाजार है, जहां अपने ही का संसार है। जिस तरह लोभियों के शहर में ठग उपासा नहीं मरता, उसी तरह मतलबियों के संसार में निश्छल प्रेम नहीं टिका करते। सपा-बसपा गठबंधन अभी चलेगा क्योंकि दोनों के पास ‘इनके और न उनके ठौर’ वाली स्थिति है लेकिन जब धक्का लगेगा तो संबंधों का यह घड़ा जरूर फूटेगा। ‘धबका लागा फूटि गा कछू न आया हाथ।’ मायावती, अखिलेश के साथ भी यही कुछ होना है। गठबंधन की राजनीति टिकाऊ नहीं होती, इसका हस्र यह देश पहले ही देख चुका है।     






--सियाराम पांडेय ‘शांत’ --

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