बिहार : चार दशक पहले इंदिरा आपातकाल की तरह मोदी आपातकाल को निर्णायक तौर पर हरायें: दीपंकर भट्टाचार्य - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 29 अगस्त 2018

बिहार : चार दशक पहले इंदिरा आपातकाल की तरह मोदी आपातकाल को निर्णायक तौर पर हरायें: दीपंकर भट्टाचार्य

1975 के आपाकाल व 1984 के सिख विरोधी दंगों के खिलाफ लड़ने वाले कार्यकताओं को आज मोदी सरकार बना रही निशाना. लोकसभा चुनाव के पहले इस तरह की कार्रवाई सरकार की हताशा का परिणाम., बिना शर्त सभी की अविलंब रिहाई करे सरकार.
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पटना 29 अगस्त 2018, भाकपा-माले महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा है कि घोषित हो या नहीं, भारत आज पूरी तरह मोदी आपातकाल के दौर से गुजर रहा है, और इसका इलाज उसी तरह किया जाना चाहिए जैसा कि लोगों ने 1977 में इंदिरा आपातकाल का किया था.  उमर खालिद पर हमले का प्रयास, दाबोलकर, पंसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या, स्वामी अग्निवेश पर बार-बार हमले और मानवाधिकार प्रचारकों का निरंतर उत्पीड़न लोकतंत्र को एक फासीवादी शासन के अधीन करने की एक ही रणनीति का हिस्सा हैं. आज जब आम लोगों के लिए लड़ने वाले वकीलों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और लेखकों पर हमले हो रहे हैं और और उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है, तो लोगों को उनके पक्ष में खड़े रहना होगा और बिना शर्त उनकी रिहाई के लिए आवाज उठानी होगी. लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर ऐसी कार्रवाई शासकों के हताशा को ही दिखाती है. आने वाले चुनावों में वे अपनी निर्णायक हार भी देख रहे हैं. जैसे-जैसे 2019 का लोकसभा चुनाव करीब आ रहा है, मोदी सरकार प्रतिरोध के स्वरों की पूरी शृंखला के खिलाफ वीचहंट पर उतर गई है. जिसमें देश के सर्वाधिक विश्वसनीय और सम्मानित मानवाधिकार कार्यकर्ता और बु़िद्धजीवी शामिल हैं. मानवाधिकार वकील सुरेंद्र गडलिंग, दलित अधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार सुधीर ढवाले, महेश राउत, नागपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर शोमा सेन और मानवाधिकार प्रचारक रोना विल्सन की गिरफ्तारी के दो महीने बाद पुणे पुलिस ने 28 अगस्त को दमन व गिरफ्तारियों  का दूसरा चक्र चलाया है. 28 अगस्त को गिरफ्तार होने वालो में जानी मानी कार्यकर्ता सुधा भारद्वााज भी शािमल हैं, जो एक वकील हैं और आजीवन छत्तीसगढ़ के सबसे उत्पीड़ित समुदायों की रक्षा के लिए काम करती रही हैं. उनके अतिरिक्त वर्नोंन गौंजाल्वेस, गौतम नवलखा, वरवरा राव एवं कई अन्य प्रसिद्ध हस्तियों को गिरफ्तार किया गया है. मंुबई, दिल्ली, रांची, गोवा और हैदराबाद में कई कार्यकर्ताओं के घरों पर छापेमारी की गई है. दिलचस्प बात यह है कि महाराष्ट्र सरकार और पुणे पुलिस इस दमन व गिरफ्तारी के लिए 1 जनवरी को भीमा कोरेगांव में घटित हिंसा का इस्तेमाल कर रही है। इस वर्ष भीम कोरेगांव (दलितों ने इस युद्ध में ब्रिटिश सेना के हिस्से के रूप में लड़ा था) की लड़ाई में पेशवाओं की हार की दो सौ साल पूरे होने पर दलित समुदाय ने इस अवसर एक कार्यक्रम का आयोजन किया था. जिसपर दक्षिणपंथी जातिवादी ताकतों ने हमलाा किया था. इसमें शंभाजी भाई और मिलिंद एकबोटे को आरोपी बनाया गया था.  पहले की कभी गिरफ्तारी नहीं हुई और दूसरे को अप्रैल में ही जमानत दी गई है. भीमा कोरेगांव में हुए शंातिपूर्ण कार्यक्रम को आतंकवादी कार्यवाही बताने की कोशिशें बिलुकंल आधारहीन व भत्र्सना के योग्य हैं. भाजपा 1975 के आपातकाल और 1984 के सिख विरोधी दंगों के काले अध्यायों की कभी चर्चा नहीं करती है. यहां तक कि 2002 के गुजरात में राज्य प्रायोजित जनसंहारों और हाल के दिनों में सांप्रदायिक भीड़ हत्याओं पर या तो वह चुप रहती है अथवा उसका उत्सव मनाती है. विडंबना यह है कि आज जिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर हमला किया जा रहा है, उन्होंने 1975 के आपातकाल और 1984 के सिख दंगों के खिलाफ मजबूत लड़ाई लड़ी थी. उदाहरण के लिए, गौतम नवलाखा पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स के एक प्रमुख आयोजक रहे हैं, जिन्होंने पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के साथ मिलकर राजनीतिक कैदियों की रिहाई के लिए लंबी लड़ाई लड़ी है और 1984 के सिख विरोधी दंगांें पर कई विश्वसनीय तथ्य व खोजों को सामने लाया है. मानव अधिकार आंदोलन 1975 के आपातकाल और 1984 के सिख विरोधी दंगों के प्रतिरोध के अनुभव से उभरा है, आज इसे ‘शहरी नक्सल’ परियोजना के रूप में ब्रांडेड किया जा रहा है. दलित अधिकार कार्यकर्ताओं पर अत्याचार करने के लिए दलितों के खिलाफ की गई हिंसा की घटना का इस्तेमाल किया जा रहा है. दूसरी ओर सनातन संस्थान जैसे आतंकवादी संगठन भारतीय गणराज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को उखाड़ फेंकने का आह्वान कर रहे हैं. ऐसे आतंकवादी संगठनों को प्रधानमंत्री समेत सभी नेता ‘राष्ट्रवादी’ बता रहे हैं. हम सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वर्नोन गौंजाल्वेस, वरवरा राव व अन्य सभी गिरफ्तार लोगों की तत्काल रिहाई की मांग करते हैं.

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