विशेष आलेख : "दलित"जब संशोधन में अपमानजनक तो उसके नाम सियासत क्यों? - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 15 सितंबर 2018

विशेष आलेख : "दलित"जब संशोधन में अपमानजनक तो उसके नाम सियासत क्यों?

शब्द आईने की नजर में "दलित" 
एसटीएससी  एक्ट को लेकर देश में  मचे  सियासी घमासान ने एक नई राजनीति बहस को जन्म दे दिया है।इस बहस में सवाल उठ  रहे हैं कि जब "दलित "और "हररिजन"शब्द कानूनी तौर पर प्रतिबंधित हैं तो उनके नाम पर विशेषाधिकार क्यों?क्या राजनीतिक फायदे के लिये इनके तुस्टीकरण का खेल खेला जा रहा और एट्रोसिटी एक्ट भी उसी का एक पार्ट है। इतिहास  में जाएं तो भारतीय समाज में वे जातियां जो हिन्दू  वर्ण व्यवस्था से बाहर थी जिन्हें अवर्ण माना गया।अवर्ण वर्ग में वो  जातियां रखीं गयीं  जो कई कुरीतियो की शिकार   और उनका रहन सहन  उच्च वर्गों को पसंद नही था। दलित की संज्ञा दी गई है और इसी वर्ग के व्दारा अपनी स्थिति के सुधार हेतु किए गए सामूहिक प्रयास को ही दलित आंदोलन खा जाता हैं। दलित एक मराठी शब्द है धरती एवं टूटे हुए खण्ड  और इसको सबसे पहले महाराष्ट्र में दलित पेंथर्स प्रचलन में लाया गया जिसका मतलब साफ है कि अनुसूचित जाति की जनता। बसपा व्दारा किए गए प्रयासों ने जरूर दलितों के उत्थान की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया लेकिन ये तमाम आयाम माकूल अभी भी नही है।बसपा के पास दलितों के लिए विचार है कार्यकम है लेकिन गरीबो के लिए नही

सुप्रीम कोर्ट की ओर से sc/st- एक्ट में किए गए संशोधन के खिलाफ लाए गए अध्यादेश के बाद सोशल मीडिया पर छेड़ी गई मुहिम अब सड़क पर उतर कर असली रंग दिखा रही है।पता नही इस रंग का असर सही है या गलत लेकिन इसने अवरोध शुरू कर दिया हे पूरे देश के माहौल पर देखने को मिल रहा है।दलित शब्द को लेकर जो एडवाईजरी बॉम्बे सुप्रीम कोर्ट और मध्य प्रदेश की जबलपुर हाईकोर्ट के व्दारा साफ कहा गया है कि दलित शब्द से सबको बचना चाहिए। और एडवाईजरी में तो शब्द सही है sc/st एक्ट में जो धारा है जिसमे प्रतिबंधित शब्द बोलने भर से मुकदमा लिख दिया जाता है, और वंही अगर बात की जाए तो जब दलित वर्ग से कोई किसी योजना के लिए आवेदन करता या प्राथना पत्र में sc/st के लोग प्रतिबंधित शब्दो को लिख देते हैं तो कोई परेशानी  नही । यंहा विरोधाभास इसलिए की कोई दूसरा प्रतिबनधित शब्द बोले तो गाली और खुद अपने लिए इन्ही शब्दों का इस्तेमाल करे तो गाली क्यों नही फिर?  गांधी जी भी खुद इस विचारधारा से सहमत नही थे इसलिए उन्होंने हरिजन शब्द का इस्तेमाल करना शुरू किया ताकी किसी की भी भवनाएं आहत न हो। सुप्रीम कोर्ट को संविधान का गार्जियन माना गया है । सुप्रिम कोर्ट ने यदि कोई फैसला लिया है तो गम्भीर सोच विचार के बाद फैसला लिया। और सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को नए फलक पर देखने की जरूरत है और इस फैसले को देश के प्रत्येक नागरिक को  भी समझना होगा। तब कंही जाकर हम और आप इस मसले की गम्भीरता को समझ पाएंगे बेहतर तो ये ही होगा की इस मसले को राजनीती के चश्मे से न देखा जाए।

सर्वोच्च अदालत ने जो फैसला दिया उसने भी कई मुकदमो की मोनेटरिंग के बाद ही दिया , क्योंकि जितने भी मुकदमे आते हैं उनमें से 25 प्रतिशत  मुकदमे ही सही पाए जाते हैं। कोर्ट ने भी देखा है कि  fir और चार्जशीट का क्या हश्र होता है । अमूमन देखा गया है कि मुकदमा ट्रायल में ही खत्म हो जाता है या पैसों के लेंन देन के चलते उस मुकदमे की कोर्ट पुहचने से पहले ही इतिश्री हो जाती है। बात यंही खत्म नही होती दीगर हाल आपको यव भी बताते चले  की sc/st एक्ट की धारा 4 में भी विरोधाभास है जो विवेचकों  में भी विभेद उतपन्न करती है। विवेचना में st/sc के विवेचक से  कोई त्रुटि हो जाए तो माफ़ी है और यदि गैर sc/st से यदि गलती होती है तो सजा का प्रावधान। अक्सर अनुदान और पेशबंदी में के लिए sc/st एक्ट का इस्तेमाल    बतौर हथियार किया जाता है।

देश की सरकारें कोशिश कर रही है चीज़ो में सुधार की लेकिन ये साहस तो सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही कर सकता है और सरकार को रास्ता दिखा सकता है और वक्त वक्त पे सुप्रीम कोर ने अपना डंडा चलाया भी है। आंदोलन चाहे दलित करे या स्वर्ण करे दोनों का ही तरीका गलत है आंदोलन से समस्याओं का कोई समाधान नही होता लेकिन व्यवधान जरूर उतपन्न हो जाता है। सरकार को चाहिए की दलितों और स्वर्णों दोनों को एक साथ संगोष्टी के लिए बुलाया जाए और मसले का हल निकाला जाए। और साथ ही ये भी ज्ञात रहे इस पुरे मसले पर सबसे ज्यादा नफा जो देख रहा है वो दलित एलिट क्लास देख रहा है और होता भी उसी को हे  और इसी एलिट क्लास ने दलित शब्द का सबसे ज्यादा फायदा उठाया है और ये ही एलिट क्लास नही चाहता की दलित शब्द को हटाया जाए। हो भी ये ही रहा है कि नीचे वाले हो हल्ला कर रहें है और फायदा उठाकर ये ही एलिट क्लास मलाई खा रहा है ये क्लास चाहता ही नही की नीचे वालो का विकास हो।  सतना में सोहावल जनपद पंचायत के सीईओ राजीव तिवारी ने अपने मातहत मातहत समग्र स्वच्छता अभियान के प्रभारी विष्णु बागरी को विभागीय  कामकाज  मे लपरवाही  पर फटकार लगाई तो उसने अजाक थाने में शिकायत दर्ज करा दी कि वो उसे जातिगत द्वेषवश मानसिक रूप से परेशान कर रहे और कूटरचित दस्तावेज तैयार कर उसके खिलाफ विभागीय कार्रवाई कर सकते हैं।तिवारी पुलिस ने उन्हें नोटिस जारी किया है कि क्यों न उनके खिलाफ एसटीएससी एक्ट का केस दर्ज कर दिया जाए और वो अब कलेक्टर ,एसपी के चक्कर लगा रहे हैं।

ठीक इसी तरह का मामला यूपी के गोंडा का है जहां झंझरी क्षेत्र के मगहर के सरकारी स्कूल की प्रधान अध्यापक निशी श्रीवास्तव ने अधिकारियों को भेजी गई शिकायत में बताया है कि विद्यालय की एक दलित शिक्षिका के विदयालय कभी आती है कभी नहीं।इस पर अनुपस्थिति दर्शाने और समय से आने को कहने पर वो एसटीएससी एक्ट में फंसा देने की धमकी देती है।यही नही उसके द्वारा हरिजन एक्ट में फंसाने की धमकी देकर अपमानित भी किया जाता है।निशी इस कदर डरी हुई हैं कि उन्होंने अधिकारियों को अपनी व्यथा बताते हुए इस्तीफे तक की पेशकश कर डाली है।एमपी के सतना यूपी के गोंडा की ये कहानी है तो यूपी के लखीमपुर खीरी में तो एक निजी अस्पताल के तीन डॉक्टरों पर तो डिलीवरी के बाद नवजात की मौत पर एट्रोसिटी एक्ट का मुकदमा दर्ज भी हो गया।मामला भगवतीपुरा शहर का है जहां एक दलित परिवार की महिला को प्रसव के लिए भर्ती कराया गया था और नवजात की मौत होने पर महिला के परिजनों ने पुलिस के पास शिकायत दर्ज करा दी कि महिला ने मृत बच्चे को जन्म दिया था लेकिन डॉक्टरों ने उसके इलाज के नाम उनसे बीस हजार रुपये ऐंठ लिए।महिला के परिजन की शिकायत पर पुलिस ने अस्पताल के तीन चिकित्सकों राजेश यादव ,अमित पांडेय और दिव्या तिवारी पर एसटीएससी एक्ट के तहत केस दर्ज कर लिया है। और इस आंदोलन की आंच पूरे देश में देखी जा रही है कंही माननीयों पर  पथराव के अलावा उन पर जूता  भी फेंक जा रहा है

दरअसल किसी मुहिम के जोर पकड़ने के लिए जो भी बुनियादी तत्व चाहिए वो इस समर्थित मुहिम में मौजूद हैं। नाराजगी आरक्षण से कहीं ज्यादा एससी-एसटी एक्ट पर विचारधारा के रवैये को लेकर है। गौर करने वाली बात ये है कि एससी-एसटी एक्ट के दुष्प्रभावों से प्रभावित होने वालों में केवल सवर्ण ही नहीं बल्कि पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक भी शामिल हैं। अल्पसंख्यक तो खैर वोट बैंक को तहस-नहस होता देखकर किनारे खड़े होकर मजा लूट रहे हैं। पिछड़ा वर्ग चूंकि खुद आरक्षण का लाभार्थी है, लिहाजा वो फिलहाल तटस्थता के भाव के साथ घटनाक्रम का साक्षी बना हुआ है। अब रह गया के परंपरागत मतदाता के ठप्पे वाला सवर्ण वर्ग, जो फिलहाल नाराजगी के जरिए दुसरो का लोटा डुबोने को आमादा है। 

वाकई सरकारो के लिए एक तरफ कुआँ एक तरफ खाई वाली स्थिति है फंस । ये मकड़जाल खुद उसने बुना है। सवर्ण वर्ग तो आरक्षण को लोकतंत्र की अनिवार्य बुराई मानकर अपनी नियती से समझौता कर चुका था। लेकिन एससी-एसटी एक्ट पर  सरकार के रुख ने सवर्ण बिरादरी में जो बेचैनी की चिंगारी सुलगाई थी वो अब नाराजगी की फूंक पाकर शोला बन चुकी है। 

ये सही है कि सवर्णों के आक्रोश को इस मुकाम तक पहुंचाने में  कुछ विचारधारा का प्रायोजित विरोध काफी हद तक जिम्मेदार है। लेकिन सवाल उठता है कि ये मौका आखिर दिया किसने? एससी/एसटी एक्ट को लेकर दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आखिर उड़ता तीर लेने की जरूरत क्या थी? कोढ़ के ऊपर खाज ये कि एक्ट में शामिल अपराधों की सूची को 22 से बढ़ाकर 47 कर दिया जिस वजह से स्थिति हाथ से निकलती जा रही है और आक्रोश बढ़ता जा रहा है ये वो समर्थक वर्ग था जिसने नोटबंदी और जीएसटी के कथित दुष्प्रभावों को देशहित में जरूरी माना  मुंह फुलाए फूफाओं के मान-मनौव्वल की कोशिश भी जारी है। 

कुल मिलाकर सरकारों के लिए इस आंदोलन या मुहिम से निबटना एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। मध्यप्रदेश,राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तीन महीने बाद होने जा रहे विधानसभा चुनाव के मद्देनजर ये चुनौती किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। और हो भी क्यों नहीं, आखिर इन प्रदेशों के नतीजों से ही तो लोकसभा का राजपथ प्रशस्त होना है। सरकारें ये भी ये याद रखे कि अटल जी ने 'फील गुड' की गलतफहमी में सरकार गंवाई थी,तो कहीं सवर्णों के 'फील बैड' का शिकार या सरकार  ना हो जाएं।

बात बेहद साफ है यदि इतनी आरक्षण पर बहस छिड़ी हुई है और आरक्षण के आईने में स्नर्र्षआत्मक भेदभाव को तनिक इस लिहाज से भी देखा जा सकता है यदि किसी महिला के जुड़वाँ बच्चे हुए एक सुपोषित है और दूसरा कुपोषित तो माँ अपने कुपोषित बच्चे को उस मात्रा में ही स्तनपान कराएगी जिससे उसका कुपोषण खत्म हो लेकिन इसका ये कतई अर्थ न निकल जाए की सुपोषित बच्चे को नजरअंदाज कर दिया जाए




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विनीत सिंह 
डिप्टी एस. पी
उत्तर प्रदेश पुलिस

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