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शनिवार, 10 नवंबर 2018

विशेष : ‘अहिंसा मीट’: एक भ्रामक नाम :- डाॅ. दिलीप धींग

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बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने जीवन, समाज और संस्कृति के अनेक क्षेत्रों को नकारात्मक तरीके से प्रभावित किया है। सच्चे-झूठे विज्ञापन और अंधाधुंध विपणन (मार्केटिंग) के जरिये बाजार में ऐसे भ्रम पैदा किये जाते हैं कि आम आदमी कुछ शातिर लोगों की चाल समझ ही नहीं पाता है, अपितु वह झाँसे में आ जाता है। नतीजतन आदमी अपनी स्वस्थ और किफायती जीवनशैली को छोड़कर बाजार की कई गलत चीजों या हानिकर विकल्पों को अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी अपनाने लगता है।  कुछ दशकों पूर्व भारत में पौल्ट्री जैसे खूनी धंधे का जाल बिछाने के लिए बाजारवाद के षड़यंत्रकारियों ने अण्डे को शाकाहार कहकर एक महाझूठ फैलाने की कुटिल कोशिश की। शाकाहार प्रधान भारत में मांस व्यापार और मांसाहार को बढ़ावा देने के लिए ऐसे अनेक कुत्सित प्रयास समय-समय पर होते रहे हैं। कभी पोषण के नाम पर तो कभी आदमी के भोजन चयन के अधिकार के नाम पर भारतीय अहिंसा संस्कृति को चोट पहुँचाने के प्रयास होते रहे हैं। 

जाने-अनजाने ऐसे किसी प्रयास में यदि अहिंसा के अलम्बरदार ही लग जाए तो अधिक चिन्ताजनक है। ऐसी ही एक खबर 26 अगस्त 2018 को दैनिक भास्कर, उदयपुर में प्रकाशित हुई, जिसमें केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने ‘क्लीन मीट’ का जिक्र करते हुए कहा कि अब भारत ‘अहिंसा मीट’ के लिए तैयार है। अपने भ्रामक शब्दों के समर्थन में शाकाहार प्रचारिका मेनका ने कहा कि किसी जानवर की जान लिये बिना ही ऐसा मांस प्रयोगशाला में तैयार होगा। गौरतलब है कि इस तकनीक के द्वारा ‘अहिंसा मांस’ जानवरों की स्टेम सेल (मूल कोशिका) से तैयार किया जाएगा।  मेनका ने यह बात 24 अगस्त को हैदराबाद में ‘फ्यूचर आॅफ प्रोटीन: फुड टेक रेवाॅल्यूशन’ (प्रोटीन का भविष्य: भोजन तकनीक क्रांति) विषय पर आयोजित कार्यक्रम में कही। अपने भाषण में उन्होंने यह भी कहा कि इससे गोहत्या तथा इसके कारण होने वाली लिंचिंग भी रुकेगी। उनके इस कथन पर सहमत नहीं हुआ जा सकता। कारण यह है कि मांसाहार का सम्बन्ध सिर्फ गोहत्या से ही नहीं है। मांसाहार के कारण अनेक प्रकार के लाखों प्राणियों की रोज ही हत्याएँ होती हैं। इसके अलावा शाकाहारिता और लिंचिंग (मारपीट) में कोई सम्बन्ध नहीं है। शाकाहारिता तो अनुशासन, सहअस्तित्व और सद्भावनाओं की विस्तारक श्रेष्ठ जीवन-पद्धति है।  

केन्द्रीय मंत्री ने कहा कि भारत की प्रयोगशालाओं में ऐसा ‘क्लीन मीट’ (साफ मांस) तैयार करने की तकनीक मौजूद है, जिसे पाँच वर्षों में बाजार में लाने का लक्ष्य होना चाहिये। उन्होंने एक निजी सर्वे का हवाला भी दिया और कहा कि 66 प्रतिशत लोग परम्परागत मांसाहार के साथ ‘अहिंसा मांस’ को शामिल करने के लिए तैयार है, वहीं 53 प्रतिशत लोग ‘अहिंसा मांस’ मिलने पर पारंपरिक मांसाहार छोड़ने को तैयार है। 46 प्रतिशत लोगों ने यह भी कहा कि ‘अहिंसा मांस’ बाजार में आने लगेगा तो वे रोज ऐसा मांस खाएँगे।  स्पष्ट है कि मांसाहारी भी मांस के लिए दृश्यमान और प्रत्यक्ष क्रूरता को नापसन्द करते हैं। सवाल यह है कि उन्हें किसी लुभावने नाम के साथ ‘परोक्ष क्रूरता’ का भागीदार क्यों बनाया जाए? मांस के ऐसे नामकरण से हमारी आहार संस्कृति की शुद्धता को चुनौती मिल सकती है। उक्त कार्यक्रम में शामिल विशेषज्ञों ने कहा कि कुछ दिनों में ‘बीयर मेकिंग’ की तरह ही ‘मीट मेकिंग’ का भी बड़ा बाजार होगा। भारतीय आहार की शुद्धता और सात्विकता पर वैसे भी अनेक आक्रमण हुए और हो रहे हैं। ‘मीट-मेकिंग’ के बाजार से भी यह आक्रमण नए रूप में हो सकता है! 

कमाई और भलाई के नाम पर बाजार में अनेक लुभावने शब्द फेंके और इस्तेमाल किये जाते हैं, जिनसे आम आदमी भ्रमित होता है। इस समाचार के शब्द और वाक्य भी अनेक भ्रम पैदा करते हैं और भारत की शुद्ध, सात्विक व शाकाहारी जीवनशैली के साथ खिलवाड़ करते हैं। जब हम शाकाहारी जीवनशैली के सन्दर्भ में समाचार के भ्रांतिपूर्ण शब्दों पर विचार करते हैं तो अनेक सवाल खड़े होते हैं।  ‘अहिंसा मीट’ शब्द, किसी भी प्रकार के मांस के लिए पूरी तरह से अस्वीकार्य है। यह एक ऐसा ही कुटिल नामकरण है, जैसा अण्डे के साथ शाकाहार शब्द लगाकर किया गया था। अनेक परम्परागत शाकाहारी लोग भी उस नाम के झाँसे में आकर अण्डे को भक्ष्य समझने की भूल कर बैठे थे। ‘शाकाहारी अण्डा’ जैसे सर्वथा गलत नाम से भारत की निरामिष थाली को अपवित्र करने की साजिश रची गई। अब ‘अहिंसा मीट’ के नाम पर कुछ ऐसी ही गैर-जरूरी कोशिश नजर आती है। 
समाचार में यह स्पष्ट कहा गया है कि ‘अहिंसा मीट’ का निर्माण जानवरों की मूल कोशिकाओं (स्टेम सेल्स) से किया जाएगा। जैव प्रौद्योगिकी (बायो टेक्नोलाजी) के अन्तर्गत स्टेम सेल तकनीक चिकित्सा-विज्ञान में हितकारी सिद्ध हो रही है। लेकिन यहाँ स्टेम सेल तकनीक से मानव के भोजन हेतु मांस तैयार करने का विचार है। यह विचार भोजन के साथ जुड़ी व्यक्ति की धार्मिक आस्थाओं और सामाजिक मान्यताओं को तोड़-मरोड़ सकता है।  कोई भी तथ्य या ज्ञान वैज्ञानिक दृष्टि से सत्य हो सकता है, लेकिन यदि वह मानवीय, नैतिक और सामाजिक दृष्टि से स्वीकार्य नहीं है तो उसके प्रयोग और व्यवहार को धर्म, नीति, समाज या शासन के द्वारा अनुशासित या निषिद्ध किया जाता है। वैज्ञानिक जगत में भी अनेक प्रकार की मानवीय और नैतिक मर्यादाओं पर विचार किया जाता है। अतः मानवीय सम्बन्ध और भोजन के बारे में भी नैतिक मर्यादाओं का खयाल रखा जाना चाहिये। विज्ञान का उपयोग इस प्रकार नहीं होना चाहिये कि कोई ‘सामाजिक क्षोभ’ या ‘जैविक अराजकता’ फैल जाए। 

इस सम्बन्ध में क्लोनिंग का उदाहरण लिया जा सकता है। आधुनिक जीव-विज्ञान में क्लोनिंग, स्टेम सेल जैसी ही एक तकनीक है। विज्ञान जगत में इसे अलैंगिक प्रजनन भी कहते हैं। वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया कि पशुओं की कुछ प्रजातियों में नर-मादा संयोग के बिना ही प्राणियों की प्रतिरूपकीय उत्पŸिा संभव है। इसी शोध के आधार पर एक भेड़ का जन्माया गया था। जिसका नाम डाॅली रखा गया। डाॅली भेड़ छह वर्ष तक जीवित रही। वैज्ञानिकों ने गाय, भैंस, ऊँट, मछली, बन्दर, घोड़ा अनेक पंचेन्द्रिय प्राणियों पर क्लोनिंग तकनीक का प्रयोग किये। ऐसे प्रयोग प्राणी विज्ञान शाखा के चर्चित समाचार बने। लेकिन जब मानव प्रतिरूपण (ह्यूमन क्लोनिंग) की बात आई तो दुनियाभर के धार्मिक, सामाजिक और शासकीय संस्थानों ने इसका विरोध किया। स्वयं वैज्ञानिक समुदाय ने भी ऐसे प्रयोग पर सवाल खड़े किये। बड़ा सत्य यह है कि विज्ञान और वैज्ञानिकों के कार्यों का मूल उद्देश्य भी मानव और मानवता का व्यापक कल्याण ही है, होना चाहिये। 

स्टेम सेल एक ऐसी तकनीक है, जिसमें किसी भी प्राणी की मूल कोशिका से उसी प्राणी के किसी भी घटक और अंग को विकसित किया जा सकता है। इस तकनीक से उस जानवर का मांस तैयार किया जाएगा, जिसकी मूल कोशिका बीज रूप में प्रयुक्त की जाएगी। स्पष्ट है कि जिसे ‘अहिंसा मीट’ नाम दिया जा रहा है, वह कतई अहिंसक नहीं होगा। ठीक है, ऐसे मांस को तैयार करने में बूचड़खानों जैसा खून-खच्चर नहीं होगा तथा बाहर में कोई क्रूरता भी नहीं दिखाई पड़ेगी। लेकिन मांस तो मांस ही है। वह शाकाहारियों के लिए तो सर्वदा और सर्वथा अस्वीकार्य ही है और रहेगा।  

क्लोनिंग की तरह स्टेम सेल से जीवोत्पŸिा को भी अलैंगिक प्रजजन कहा जा सकता है। जैन शास्त्रों में इस प्रकार से उत्पन्न जीवों को अगर्भज प्राणी और सम्मूच्र्छिम जीव कहा जाता है। प्राणियों के जीवित या मृत शरीर में, उनके अंश या उससे निसृत या प्राप्त पदार्थ में सम्मूच्र्छिम जीव उत्पन्न हो सकते हैं। ऐसे अगर्भज प्राणियों में मनुष्य भी होता है। जैन ग्रंथों में ऐसे स्थल या पदार्थ भी गिनाए गए हैं, जिनसे सम्मूच्र्छिम जीव पैदा हो सकते हैं। ऐसे पदार्थों में मल, मूत्र, शुक्र, रक्त, श्लेष्म, मृत कलेवर आदि 14 नाम गिनाए गए हैं। 

इसके अतिरिक्त जैन ग्रंथों में नौ प्रकार की योनियाँ भी बताई गई हैं, जहाँ जीवों की उत्पŸिा हो सकती है। ये जीवोत्पŸिा स्थान हैं- सचिŸा, अचिŸा, मिश्र, उष्ण, शीत, शीतोष्ण, संवृŸा (ढँके), विवृŸा और संवृŸा-विवृŸा। स्पष्ट है कि जीवों के स्वभाव और वर्ग के अनुसार जीवोत्पŸिा विभिन्न प्रकार के स्थानों पर होती है। प्रयोगशाला में भी सम्बन्धित प्राणी के लिए अनुकूल वातावरण बनाकर जीव उत्पन्न किये जा सकते हैं। जीवोत्पŸिा के ये स्थान गर्भज और अगर्भज, दोनों प्रकार के जीवों के लिए हैं। वैसे जैन दर्शन और अन्य भारतीय दर्शनों में चैरासी लाख प्रकार की जीवयोनियाँ बताई गई हैं, जिनमें जीवों के उत्पŸिास्थान के प्रचुर विकल्पों पर विचार किया गया है। लेकिन समझने के लिए उन्हें विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है।  

जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान, दोनों अपनी-अपनी शब्दावली में यह स्वीकार करते हैं कि अनेक प्रकार से प्राणियों की उत्पŸिा संभव है। नर-मादा संयोग के बिना एवं गर्भ के बिना भी प्राणियों की उत्पŸिा होती है। प्रसंगवश यहाँ उन लोगों का यह पोचा तर्क भी खारिज हो जाता है कि पौल्ट्री फाॅर्म में अण्डे उत्पन्न करने वाली मुर्गियों को मुर्गों का संसर्ग नहीं मिलता है, इसलिए अनिषेचित अण्डा शाकाहार है! सामान्य बोध (काॅमन सेंस) से भी अण्डे को शाकाहार कहना सर्वथा मिथ्या है। वस्तुतः ‘शाकाहारी अण्डा’ एक गलत और अवैज्ञानिक शब्द-प्रयोग भी है। कुछ शिक्षित लोग भी ऐसे शब्द-जाल में उलझ जाते हैं। ‘अहिंसा मीट’ भी एक ऐसा ही भ्रामक नामकरण है।  

जहाँ तक स्टेम सेल तकनीक की बात है, वह प्राणी जगत के अलावा वनस्पति जगत में भी किसी न किसी रूप में खेती-बाड़ी और बागवानी में प्रयुक्त होती है। वनस्पति की कलम (टहनी) से नया पौधा उगाने को ‘पारम्परिक स्टेम सेल विधि’ कहा जा सकता है। आधुनिक जीव-विज्ञान की दो मुख्य शाखाएँ हैं- वनस्पति विज्ञान और प्राणी विज्ञान। वनस्पति विज्ञान में सभी प्रकार की वनस्पतियों का अध्ययन-अनुसंधान किया जाता है। उसमें कृषि और उद्यानिकी भी आ जाते हैं। वनस्पति विज्ञान की तुलना में प्राणी विज्ञान अधिक विस्तृत विषय है। जैन दर्शन की भाषा में प्राणी विज्ञान में बेइन्द्रिय प्राणियों से लेकर पंचेन्द्रिय प्राणियों तक का अध्ययन व अनुसंधान सम्मिलित है।  

‘अहिंसा मीट’ शब्द को लेकर जिस तकनीक की चर्चा की गई है, वह प्राणी विज्ञान से जुड़ी है। उसमें जानवरों की मूल कोशिका से मांस विकसित करने की बात कही गई है। निश्चित ही, प्रयोगशालाओं में उस जानवर का मांस बनेगा, जिस जानवर की मूल कोशिका (स्टेम सेल) से वह बनाया जाएगा। ऐसे मांस को ‘लैब-मीट’ या कुछ और नाम दिया जा सकता है, लेकिन ‘अहिंसा-मीट’ नाम किसी भी तरह से उपयुक्त, तर्कसंगत और स्वीकार्य नहीं है। ‘अहिंसा’ और ‘मीट’ (मांस), ये दो विरोधी शब्द हैं। ‘क्लीन मीट’ शब्द भी भ्रामक है। भारत या दुनिया के किसी भी निष्ठावान शाकाहारी परिवार में किसी भी प्रकार के मांस को कभी क्लीन, साफ, शुद्ध या पवित्र नहीं माना जाता है। प्रयोगशाला के मांस को भी ‘क्लीन’ कहना अनुचित है। 

देश-दुनिया में अहिंसक और शाकाहारी जीवनशैली जीने वाले करोड़ों व्यक्ति और परिवार हैं। उन्हें अपने जीवन के संवेदनशील और महत्वपूर्ण विषयों में भ्रांतियाँ पैदा करने वाले शब्दों और विचारों के बारे में चैकन्ना रहना चाहिये। कहीं ऐसा न हो कि ऐसे शब्दों के चक्कर में वे अपने सुविचारित, शुद्ध व सात्विक आहार को दूषित कर बैठें। ऐसे विषय में प्राणी विज्ञान, आहार विज्ञान और समाज विज्ञान के विशेषज्ञों एवं शास्त्रों के विद्वानों से आशा की जाती है कि वे अपनी उपयोगी राय से समाज को सावधान करें।  आज का प्रयोगधर्मी विज्ञान छोटे से छोटे तथ्य को भी शोध, खोज, अनुसंधान और सर्वेक्षण का विषय बनाता है। वैसी प्रयोगधर्मी चेतना धर्म, दर्शन और अहिंसा के क्षेत्र में भी जागनी या जगानी चाहिये। ऐसा होने से वैज्ञानिक और व्यावसायिक उन्नतियों पर मूल्यात्मक चेतना का अंकुश लग सकेगा। 


सुगन हाउस, 
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