विजय सिंह, लाइव आर्यावर्त,८ नवंबर,२०१८
८ नवंबर २०१६ की शाम तो हम सब को याद है.रात लगभग ८ बजे अचानक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ५०० और १००० रुपये के नोटों को प्रचलन से बाहर कर दिया था. सामान्य भाषा में इसे नोटबंदी कहा गया. दिन भर की ऊर्जा खर्च करके शाम को जब आदमी घर की ओर चलायमान था तो बहुतों को नहीं पता था कि अब उन्हें दिन भर की ऊर्जा से कहीं ज्यादा जोश की जरुरत होगी ,रात बारह बजे के पहले स्वचालित मशीनों से रुपये निकालने के लिए,क्योंकि अगले ५/६ दिनों तक बैंक से रुपये नहीं निकाल सकेंगे. एटीएम् की जद्धोजहद में कुछ तो रुपये पाने में सफल रहे बाकी लोग मुहं लटका कर घर लौट आये. उसके बाद दूसरे दिन से पूरे देश में जो हुआ,वह किसी से छुपा नहीं है. धनाढ्यों ने काला धन छुपाने के लिए न सिर्फ नोटों को जलाया बल्कि कूड़े कचड़े में फेंकने से भी नहीं हिचकिचाए. दूसरी तरफ आम जन विशेषतः मध्यमवर्गीय और निचले तबके के लोगों में अफरा तफरी का माहौल बना.कईयों के इलाज रुके, सफर रुका,व्यवसाय रुका,शादियां रुकीं,रोज कमाने वाले नकद लेनदेन वाले कईयों के तात्कालिक मुसीबत झेलने की सूचनाएं मिलीं.जब बैंक खुला तो नोट बदलने और नया नोट पाने के लिए लम्बी लाईने, होश खोते लोग, बदहवास जनता का भी रूप देखने को मिला. कईयों की बदहवासी या गलत सूचना पर भावनाओं को काबू नहीं कर पाने के कारण जाने भी गयीं.यह सब हुआ, लगभग हर नागरिक यह जानता है,देखा है ,सुना है,पढ़ा है. काला धन निकलवाने, देश में कर दाताओं की संख्या बढ़ाने, नकली नोटों का प्रचलन रोकने,आतंकी गतिविधियों पर लगाम लगाने, गैर कानूनी कामों पर अंकुश लगाने,नकद प्रचलन कम कर डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा देने जैसी सरकारी निर्णयों से हमें कोई गुरेज नहीं है पर सच तो यह भी है कि इसी नोटबंदी ने कईयों की जाने भी ली हैं,रोजी रोटी भी छीनी है, तात्कालिक कार्यों का नुकसान भी किया है और वो भी आम आदमी के. तो फिर आम आदमी की परेशानी का जश्न क्यों? सरकार अब तक नोटबंदी की वजह से निकले न तो कालाधन का हिसाब दे पायी है न ही कितने रुपये वापस आये,यह बता पायी है.हाँ यह जरूर उल्लेखनीय है कि परेशानियों के बावजूद आम जनों को प्रधानमंत्री की मंशा पर कभी शक नहीं दिखा और लोगों ने "अच्छे दिनों" के लिए उनकी अपील को आत्मसात भी किया. नोटबंदी हमारे ख्याल से सरकार की और विशेषतः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का "विशेष कारणों" से लिया गया तात्कालिक फैसला था,उसे देश के नेतृत्व का निर्णय तक ही मानना या मनाना उचित होगा ,जश्न तो कतई तर्कसंगत नहीं.
-विजय सिंह-
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