समीक्षा : मनुष्य होने के सन्दर्भ तलाशते लयबंध - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

समीक्षा : मनुष्य होने के सन्दर्भ तलाशते लयबंध

book-review-ankh-bhar-akash
बृजेश नीरज समकालीन कविता के महत्वपूर्ण युवा कवि हैं, लखनऊ वासी हैं, लखनवी तहजीब और संस्कृति के रंगोआब का प्रभाव उनकी कविता पर खूब पड़ा है। बृजेश लय आधारित विधा के सफल और नामचीन कवि हैं। उनके लयबन्धों पर लिखना चुनौती भरा काम है। अमूमन गीतों और गज़लों की समीक्षा में व्याकरण व भावनात्मक आवेगों की प्रतिच्छाया सक्रिय रहती है आलोचक वाह-वाही की शैली में स्ट्रक्चर पर अपनी बात रखकर आलोचना की इतिश्री कर देते हैं। वह गीतों और बन्धों की वैचारिक विनिर्मिति और समाजशास्त्र पर जाना ही नहीं चाहते हैं। इससे हिन्दी कविता के क्षेत्र में गज़ल और गीतों को दोयम माना जाता रहा है। यह कमी विधा की नहीं है आलोचना की कमी है कि गीतों और बन्धों में समाजशास्त्रीय आलोचना को नहीं लागू किया गया वह अब भी अपने परम्परागत आलोचना प्रतिमानों द्वारा मूल्यांकित की जा रही है। बृजेश के गीत क्लासिकल व्याकरण के समक्ष श्रेष्ठ तो हैं ही साथ ही वह समाजशास्त्रीय सरोकारों और युगीन प्रवृत्तियों के लिहाज से आधुनिक भी हैं। आधुनिकता विचार और युगबोध से तय की जाती है और परम्परा रूप से तय होती है। यदि बृजेश का मूल्यांकन केवल रूप के आधार पर किया जाए तो वह अधूरा होगा और केवल विचार के आधार पर किया जाए तो भी अधूरा होगा इसीलिए मैंने कहा कि सामान्य आलोचक और विवेचक के लिए बृजेश के गीतों का मूल्यांकन चुनौती भरा काम है।

अब हवा भी खोजती है 
वह किनारा
हो जहाँ पर 
लाल-सा कनेर कोई   
अब बवंडर रेत के 
उठने लगे हैं 
आँख में मारीचिका 
फिर भी पली है 
पाँव धँसते हैं 
दरकती हैं जमीनें 
आस हर अब 
ठूँठ सी होती खड़ी है 
दृश्य से ओझल हुए हैं 
रंग सारे 
काश होता 
श्वेत सा कनेर कोई 

बृजेश ने अपने इस काव्य संग्रह का नाम "आँख भर आकाश" रखा है। यहाँ अनुभूति की तरलता, सघनता, प्रवाह और आयतन का विस्तार सभी कुछ है। गीतों और लयात्मक बन्धों की सबसे बड़ी विशेषता होती है कि वह अनुभूति प्रधान होते हैँ और अनुभूति की अभिव्यक्ति तरल और मृसण शब्दों से व्यक्त होती है। गीत नारेबाजी नहीं कर सकते हैं बल्कि नारों को भी तरल भावानुभूति में बदल देते हैं। बृजेश के गीतों में अनुभूति का दायरा वस्तु और विधान दोनों परिक्षेत्रों में वैविध्यपूर्ण है। विषय जितना वैविध्यपूर्ण है शिल्प उतना ही सन्तुलित और सुगठित है। बिम्ब, प्रतीकानुसार शब्द योजना और लय विन्यास करना नाद सौन्दर्य का कारण बनता है। जिस बन्ध में नादसौन्दर्य नहीं होता वह आधुनिक सरोकारों से नहीं जुड़ सकता है या यह कह सकते हैं कि नाद की व्यंजक छटा ही आधुनिकता का कारण बनती है। बृजेश नादसौन्दर्य के कुशल सृजक हैं। यही कारण है कि वह जितने क्लासिकल हैं उतने ही आधुनिक हैं। उनको पढ़ना जितना साधारण है उनके अन्तर्निहित मन्तव्य को समझना उतना ही आसाधारण है। देखिए इस कविता में व्यंजक नाद अपनी वास्तविक अर्थवत्ता को किस सूक्ष्मता से व्यक्त कर रहा है-

सो गए सन्दर्भ तो सब 
मुँह-अँधेरे 
पर कथा 
अब व्यर्थ की बनने लगी है 
गौढ़ होते 
व्याकरण के प्रश्न सारे 
रात 
भाषा इस तरह गढ़ने लगी है 

दूसरी विशिष्टता जो बृजेश के लयात्मक बन्धों को महत्वपूर्ण बनाती है वह है उनका नजरिया। जीवन को देखने का उनका नजरिया वैविध्यपूर्ण है। इससे अनुभवों के तमाम व्यंजक प्रभाव पाठक की समझ में आ जाते हैं। एक नजरिया किसी भी प्रभाव के दायरे को सीमित कर देता है इसलिए एक ही वस्तु को अलग-अलग कोणों से परखना एक दूसरे किस्म का विस्तार है। यह विस्तार जीवन और जगत की सच्चाईयों और वास्तविकताओं को स्पष्ट कर देता है। जीवन और जगत हर काव्य रूप का मौलिक सच होता है। यही वह सूर्य है जिसके चतुर्दिक समूची सर्जना भ्रमण करती रहती है। बृजेश भी अपनी कविताओं और बन्धों में जीवन जगत को केन्द्रीय अस्मिता बनाते हैं लेकिन अन्य गीतकारों की तरह उसे किसी दार्शनिक मतमतान्तर में नहीं बाँधते हैं। किसी अव्यक्त दर्शन में रचना का आबद्ध हो जाना रचनात्मक कमजोरी है। यह कमजोरी गीतकारों में होना आम बात है। जो इस दोष से बच जाता है वही बड़ा गीतकार और  छन्दकार होता है। बृजेश के लयात्मक बन्धों में दर्शन की भंगिमा नहीं है; यह बड़ी विशेषता है। वह जीवन और जगत को नितान्त भौतिकवादी उपादानों से विवेचित करते हैँ। इस हायकू को देखिए- 

टेढ़ी मचिया 
टिमटिमाता दिया 
टूटी खटिया

वर्षा की बूँदें 
रिसती हुई छत 
गीली है फर्श

छीजती आस
बिखरते सपने 
टूटा साहस

छोटी सी जेब
बढ़ती महंगाई 
भूखा पेट

बूढ़ा छप्पर
दरकती दीवार
खंडित द्वार

तीसरी विशेषता जो बृजेश को सभी गीतकरों और नवगीतकारों से अलग करती है वह है कि बृजेश यथार्थ को किसी आदर्श का स्थानापन्न नहीं बनाते हैं। वह आदर्श के फेर में रियल्टी को रिड्यूज नहीं करते हैं। आदर्शवाद का प्रभाव गीतकारों और नवगीतकारों पर बहुत ज्यादा है। आदर्शवाद की अधिक मात्रा गीत को रचना के बजाय उपदेश बना देती है। आदर्शवाद से बगैर बचे हुए आधुनिक होना सम्भव नहीं है। बृजेश परिवेशगत जटिलाताओं, विसंगतियों और पीड़ाओं से घिरे आदमी की पहचान रखते हैं और उस घिरे आदमी की जरूरत भी समझते हैं। ऐसे घेराव को आदर्शवादी ढंग से व्यक्त करना कहीं न कहीं यथार्थ के प्रति छल है और यथार्थ के साथ राजनीति है इसलिए बृजेश यथार्थ के व्यापारों को उसी तरीके से व्यक्त करना जनते हैं। बृजेश का समय राजनीति और पूँजी के आपसी गठजोड़ का समय है, लोकतान्त्रिक मूल्यों के क्षरण का समय है। आम आदमी पूँजी और सत्ता के इस नापाक गठबन्धन को नियति मानकर बैठ गया है, वह इस नियति को स्वीकार कर चुका है। बृजेश इस स्वीकारोक्ति को तोड़ते हैं। समाज से अनुभव गृहीत करना और इन अनुभवों को अपनी विचारधारा से संस्कारित करना बृजेश की अपनी रचना प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया उनके बन्धों को आदर्श से विरत कर प्रतिरोधी और जनवादी बनाती है। आज के दौर में विचारधारा पर बात हो रही है। गीतों का आदर्शवाद और दार्शनिक आधार लगभग खंडित हो रहा है इसलिए गीत और गज़लों की हिन्दी कविता में वापसी हो रही है। बृजेश के बन्ध इस वापसी को और भी सहज बनाते हैं-

मज़हबों में आपसी जो भेद है 
क्या खुदा का राम से विच्छेद है
कौन से बाज़ार में हम आ गए 
कौड़ियों के भाव में संवेद है 
चलनियों की साजिशें हैं कामयाब
सूप के किरदार में भी छेद है
भूख से वह शख्स आखिर मर गया 
मौत पर उसकी सभी को खेद है

बृजेश के बन्धों को जनतान्त्रिक चेतना के तहत ही देखना चाहिए। वह जनतान्त्रिक चेतना के कवि हैं भी। जनतान्त्रिक मूल्यों के प्रति आस्था बृजेश की बेचैनी का कारण है। इन गीतों से गीतकार की संवेदनशीलता, रचनात्मकता, कल्पनाशीलता सबका पता चलता है। गीतों में घटनात्मक और प्रभावात्मक ब्योरे दर्ज करना कठिन काम है। हर गीतकार नवगीतकार इससे बचता है। ब्योरों के अन्तर्ग्रथन के अपने खतरे हैं। इससे सबसे बड़ा कुप्रभाव तो यह पड़ता है कि लयात्मक पक्ष कमजोर होता है और रचना अखबारी होने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं लेकिन यदि रचनाकार की वैचारिक अवस्थिति साफ़ है और विषय को वह आकस्मिक दुर्घटना की तरह बनाकर या नाटकीय और चमत्कारी नहीं बनाना चाहता तो इस खतरे से बचा जा सकता है और मैं कहना चाहूगा बृजेश नीरज अपने इस कविता संग्रह ‘आँख भर आकाश’ में इस खतरे से बच गए हैं। वह यथार्थ के तथ्यात्मक वस्तुवादी विवरण देकर भी लयात्मक क्षय नहीं करते हैँ-

गाँव-नगर में हुई मुनादी 
हाकिम आज निवाले देंगे 
चूल्हे अपनी राख झाड़ते 
बासन सारे चमक रहे हैं 
हरियाई सी एक लता है 
फूल कहीं पर महक रहे हैं 
मासूमों को पता नहीं है 
वादे और हवाले देंगे 

भारतीय साहित्य परम्परा में संस्कृति को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं लेकिन संस्कृति का मानवीय पक्ष क्या है इस पर बातें बहुत कम की जाती हैं। समकालीन कविता ने तो बातें की हैं पर गीत गज़ल की रीति में इन बातों को एक सिरे से नकार दिया गया है। संस्कृति व्यक्ति की चेतना को प्रभावित करती है। जब व्यक्ति अपनी संस्कृति से प्रभावित होता है तब वह अपनी रचनात्मकता का स्रोत उस संस्कृति की गतिविधियों में खोजने लगता है। यह संस्कृति का रचनात्मक रूपान्तरण है, आधुनिक होने की पहली और अनिवार्य शर्त भी है। बृजेश कोई कमजोर गीतकार नहीं हैं, वाम प्रतिबद्ध युवा लोकधर्मी कवि हैं। भले ही वह विगत चार-पाँच वर्ष से गीत और गज़ल की जमात से अलग होकर काम कर रहे हैं लेकिन वह अपना सांस्कृतिक उत्तरदायित्व भली प्रकार समझते हैं। इस उत्तरदायित्व का निर्वहन उनकी कविता में तो है ही उनके गीतों में भी है। यह विशेषता आज के तमाम गीतकारों से बृजेश को अलग करती है। इस सांस्कृतिक रूपान्तरण की माँग है कि बृजेश के गीत अपने आपको कलात्मक उपकरणों से अलग हटकर माँग करते हैं। वह वैचारिक खाँचे के प्रति भी अधिक आग्रही नहीं दिखाई देते जैसे कविता में हैं इसलिए वह अपने गीतों से विशिष्ट साहित्यिक लोकधर्मी सौन्दर्य की सृष्टि करने में सफल होते हैं-

दीप हमने सजाए घर-द्वार हैं  
फिर भी संचित अँधेरा होता रहा 
मन अयोध्या बना व्याकुल सा सदा 
तन ये लंका हुआ बस छलता रहा 
राम को तो सदा ही वनवास है 
मंथरा की कुटिलता जीती जहाँ 
भाव दशरथ दिखे बस लाचार से 
खेल आसक्ति ऐसे खेले यहाँ 

वह जीवन से जुड़े और ताजे अछूते बिम्ब देने में समर्थ गीतकार हैं। वह प्रचलन के बाहर हो चुकी मान्यताओं को नकारकर अपने तरीके का फार्मेट तय करते हैँ जो उनकी कविता का निजी ठाठ है। उनका यह ठाठ उनकी निजी समझ है। वह लोक के भीतर भी ह़ै लोक से बाहर भी है। वह लोक की उस अर्थवत्ता में नहीं है जिस लोक को हम लोकछन्दों और भाषाओं में देखते हैं। बृजेश का लोक भवानी प्रसाद मिश्र के जैसा विस्तृत आयतन का लोक है। बृजेश की कविता और छन्द बन्धों की एक खासियत मुझे बेहद आकर्षित करती है वह है कि बृजेश आत्मग्रस्त नहीं होते हैं। वैसे कोई भी कवि हो, कविता लिखते समय वह अपनी अनुभूति और संवेदना का प्रकाशन करता है इसलिए अक्सर वह प्रकृति और चेतना को आत्मग्रस्त होकर अनुभव करता है और अपने अनुभव के आधार पर वह प्रस्तुत करता है। इधर समकालीन कविता में आत्मग्रस्तता बढ़ सी गयी है लेकिन बृजेश की कविताओं को यदि गहराई से देखा जाए तो वह आत्मग्रस्तता से निर्वैयक्तिकता की ओर बढ़ रहे हैं। कवि प्रगतिशील कन्टेंट तभी दे पाता है जब वह आत्मग्रस्तता से मुक्त होकर अपने भीतर के ‘मैं’ को ‘हम सब’ में तब्दील कर लेता है। बृजेश की कविताएँ हों या गीत इस मायने में अन्य गीतकारों से अलग दिखाई देती हैं। किसी भी कविता में उनका लेखक का ‘मैं’ प्रभावी नहीं है हर जगह ‘सब’ प्रभावी है। यही कारण है कि वह निजी अनुभूति और निजी संस्कृति का सार्वजनिकीकरण कर पाते हैं। देखिए एक बन्ध, यहाँ पर कवि की अनुभूति जगत के व्यापक अनुभवों से युक्त होकर सवाल को सार्वजनिक बना रही है- 

क्या सुनना है
क्या कहना है
जीना औ मरना है

क्या पाया है
जो खोना है
दिन ही बस गिनना है
सपने सारे 
सूखा मारे
घिस-घिसकर चलना है
देह को बस गलना है

‘आँख भर आकाश’ की रचनाएँ जीवन और जीवन की विविधता से गुजरते हुए समूची सृष्टि को आत्मसात करती हुई इककीसवीं सदी की नयी कविताएँ हैँ। इन कविताओं में लयबद्धता और रचनात्मक व्याकरण का खण्डन कहीं नहीं है फिर भी अपनी वस्तुपरकता से विपरीत विचार, प्रतिरोध और प्रगतिशीलता का वहन करती ह़ै। समकालीन कविता में समाहित हो चुके जीवन के सभी वाक्यांश और मुहावरे इन गीतों का शिल्प निश्चित करते हुए कवि की वैचारिक मनोरचना का प्रभावपूर्ण संकेत करते हैं। यही कारण है कि रचनाएँ सभी प्रकार की अतियों से विरत होकर सधी हुई और सन्तुलित हैं। भाषा और संवेदना आपस में हिल-मिलकर एक हो गए हैं। कवि ने किसी प्रकार की आवधारणा और अपनी निजता को थोपा नहीं है, सब कुछ भाषा के भरोसे छोड दिया है इसलिए ये रचनाएँ आज की छलरहित और निष्कपट अभिव्यक्ति बन गयी हैं।
                                        



उमाशंकर सिंह परमार                                                     
बबेरू, बाँदा 
सम्पर्क : ९८३८६१०७७६

कोई टिप्पणी नहीं: