आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। संघ लगातार अपने जातीय आधार बढ़ाने की कोशिश में नया-नया प्रयोग करता रहा है। इसी कड़ी में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को संघ ने अपना गैरयादव पिछड़ा फ्रंट बना लिया है। नीतीश कुमार की पूरी राजनीति यादवों के खिलाफ गैरयादव पिछड़ी जातियों की गोलबंदी की रही है। नीतीश कुमार की इसी राजनीतिक धारा को आरएसएस ने संबल प्रदान किया है। इसी कड़ी में 2000 में समता पार्टी से भाजपा के विधायकों की संख्या काफी अधिक थी, इसके बावजूद भाजपा ने नीतीश कुमार की सरकार बनवायी। 2005 के विधान सभा चुनाव में आरएसएस ने भाजपा के माध्यम से नीतीश कुमार को आर्थिक और सामाजिक ताकत दी। लालू यादव के पिछड़ा आधार के खिलाफ नीतीश कुमार से पिछड़ा आधार में सेंधमारी करवायी। इसमें सफल भी रहा। अब भाजपा और जदयू दोनों आरएसएस के राजनीतिक संगठन के रूप में काम कर रहे हैं। भाजपा सवर्णों के साथ बनिया को अपना आधार मानती है तो नीतीश कुमार गैरयादव पिछडा़ को अपना आधार मानते हैं। दोनों पार्टियों का काम आरएसएस के राजनीतिक एजेंडे को पूरा करना है। पिछले लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने भाजपा के घोषणा पत्र पर चुनाव लड़ा था। आवश्यकता पड़ी तो नीतीश ने उम्मीदवार भी भाजपा से उठा लिया। बिहार की राजनीति में जदयू और भाजपा आरएसएस की विचारधारा रूपी गाड़ी के दो पहिया हैं। दोनों का साझा लक्ष्य कुर्सी बचाये रखना और सामाजिक न्याय की राजनीतिक ताकत और सरोकार को कूचलना है। अप्रत्यक्ष रूप से जदयू गैरयादव पिछड़ी जातियों को जोड़ने के लिए आरएसएस का राजनीतिक फ्रंट है। राजनीतिक रूप से जातियों को जोड़ना और उसका राजनीतिक इस्तेमाल गलत नहीं है। पहले आरएसएस राजनीतिक पार्टी के लिए स्वयंसेवकों को भेजता था और अब राजनीतिक पार्टी को ही स्वयंसेवक बना रहा है। यह भी एक राजनीतिक प्रक्रिया है।
------- वीरेंद्र यादव न्यूज़ --------
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