विशेष : परेशान और विचलित करते सियासी आंदोलन - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 4 जुलाई 2020

विशेष : परेशान और विचलित करते सियासी आंदोलन

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भारत में विरोध आंदोलनों का गौरवशाली इतिहास रहा है। आंदोलन लोकतंत्र को मजबूती देता है लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि आंदोलन किसके हाथ में है। उसका उद्देश्य या स्वरूप क्या है? डीजल और पेट्रोल के दाम में वृद्धि के खिलाफ आजकल देशव्यापी आंदोलन हो रहे हैं। आंदोलनकारी ट्रक और ट्रैक्टर खींच रहे हैं। कोई साइकिल चला रहा है तो कोई बैलगाड़ी और टमटम पर बैठकर विरोध—प्रदर्शन कर कर रहा है और इन सबके बीच कोरोना का डर न जाने कहां तिरोहित हो गया है। दो गज की दूरी का सिद्धांत तो पूरा होता नजर आता ही नहीं। आंदोलन के नाम पर हम संक्रमण की वास्तविकता से नजरें नहीं चुरा सकते। वैसे भी,भारत में इतने आंदोलन हो चुके हैं कि आंदोलन की ताजा खबर भी बासी लगती हैं। आजकल जो भी आंदोलन हो रहे हैं, उसे फोटोजेनिक बनाने के प्रयास भी खूब हो रहे हैं। वैसे जो लोग ट्रक खींच रहे हैं, उन्होंने इससे पहले भी कुछ खींचा हो, इसका तो उन्हें भी कुछ अनुभव और अंदाज नहीं होगा।जिसके पैर में कभी बेवाई फटी ही न हो, वे दूसरों का दर्द समझ नहीं सकते। आंदोलन करने का यह मतलब हरगिज नहीं होता कि हम जनता के दर्द को समझते ही हों। डीजल—पेट्रोल के दाम बढ़ रहे हैं, यह बेहद चिंताजनक स्थिति है। डीजल—पेट्रोल का सीधा संबंध देश के हर आम और खास से है। इसलिए सरकार सामान्य स्थितियों में डीजल और पेट्रोल के दाम बढ़ाकर जनता का कोपभाजन तो नहीं ही बनना चाहेगी। इस कोरोना काल में सरकार चारों तरफ दबाव से घिरी है। लॉकडाउन के चलते देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है। कोरोना संक्रमितों के इलाज और कोरोना संक्रमण को रोकने की कवायदों के तहत सरकार को कितना नुकसान झेलना पड़ रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है।
   
प्रवासी मजदूरों की वापसी के पूर्व और प्रवासी मजदूरों की वापसी के बाद सरकार पर आर्थिक दबाव ही तो पड़ रहा है। सरकार समाज के हर तबके को हजार—दो हजार की सुविधा दे रही है। इन सारे खर्चों की भरपाई सरकार कहीं न कहीं से तो करेगी ही। सरकार जनता के पैसे को ही जनता पर खर्च करती है। कांग्रेस की मांग है कि इस कोरोना काल में मोदी सरकार को समाज के हर तबके के खाते में मोटी रकम डालना चाहिए। ऐसा कर पाना किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है। चीन और भारत के बीच पूर्वी लद्दाख के गलवां मुद्दे पर तनातनी के हालात हैं। वार्ता फेल हुई तो उभय देशों के बीच युद्ध भी हो सकता है। अगर सरकार सारे पैसे केवल कोरोना संक्रमितों पर ही खर्च कर दे या समाज के विभिन्न वर्गों के बीच ही बांट दे तो केंद्रीय अर्थव्यवस्था का स्वरूप क्या होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों को इस सामान्य बात को समझना तो चाहिए ही। विरोध के लिए विरोध कदापि नहीं किया जाना चाहिए और दुर्भायवश भारत में संप्रति यही हो रहा है। आंदोलन का स्वरूप कैसा हो और उसका नेता कौन हो, इस पर भी परम विमर्श की जरूरत है। आंदोलन लोक मनोविज्ञान है। इसे समझना तो पड़ेगा ही। भारत में आजकल हर कार्य में नवाचार अपनाने की बात की जा रही है। कुटीर उद्योग तक में नवोन्मेष किए जा रहे हैं फिर आंदोलन को हल्के में तो नहीं लिया जा सकता। आंदोलन में में नवोन्मेष भारत से बेहतर कोई नहीं कर सकता। आजादी से लेकर आज तक भारत में जितने आंदोलन हुए हैं, उतने आंदोलन शायद ही किसी देश में हुए हों। महात्मा गांधी को हम नवाचार का पुरोधा कह सकते हैं। भारतीय शिक्षा  का तकली से पहला नवाचार गांधी ने ही किया था। उनका अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन,नमक सत्याग्रह, दलित आंदोलन,छुआछूत विरोधी लीक की स्थापना, अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन,करो और मरो जैसे आंदोलन एक दूसरे से बिल्कुल नया ही नहीं, विलक्षण भी है। सर्वोदय और भू-दान आंदोलन बहुत कुछ कहते हैं। क्या इनमें कांग्रेस समेत अन्य राजनीतिक दलों को नवोन्मेष नजर नहीं आता।
  
क्या वजह है कि चीन जैसा देश जो नशे की जद में डूबा हुआ था। कई टुकड़ों में बंटा था और भारत के बाद आजाद हुआ था, आर्थिक और तकनीकी रूप से समृद्ध होता चला गया। वह दुनिया के तमाम देशों को अपना कर्जदार बनाए हुए है और भारत आज भी परिवारवाद, भाई—भतीजावाद और भ्रष्टाचार के दलदल से निकल नहीं पा रहा है। चीन तरक्की इसलिए कर पाया कि वहां बेईमानी और मक्कारी नहीं थी, लेकिन भारत में तो भैंस तक को स्कूटर पर ढोने के चमत्कार हुए। जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ अगर आंदोलन छेड़ा तो उसके पीछे एक ही भाव था कि लोकतंत्र को दोष मुक्त बनाया जा सके।  धनबल और चुनाव के बढ़ते खर्च को कम किया जा सके ताकि जनता का भला हो सके। अन्ना हजारे ने अपने गांव रालेगण सिद्धि में समाज सेवा की अलख जगाकर यह साबित कर दिया कि अगर इच्छाशक्ति हो तो व्यक्ति कें लिए कुछ भी कर पाना असंभव नहीं है। अन्ना की सलाह पर ग्रामीणों ने नहर खोदी। वर्षाजल संचयन के लिए गड्ढे खोदे। अन्ना हजारे ने खुद इसमें सहयोग किया। गांव में जगह-जगह पेड़ लगाए गए। सौर ऊर्जा और गोबर गैस के जरिए बिजली की सप्लाई की गई। हर गांव का मुखिया अपने गांव की बेहतरी के लिए इतना सब तो कर ही सकता है। इसके लिए सरकार या किसी अन्य का मुंह ताकने की जरूरत नहीं है। बस इच्छाशक्ति होनी चाहिए। प्रधानमंत्री ने लालकिले की प्राचीर से इच्छा जाहिर की,हर सांसद एक गांव गोद ले और अपनी विकास निधि से उसे आदर्श ग्राम बनाए। कितने सांसदों को कितनी और कैसी प्रतिक्रियाएं आईं, यह बताने और जताने की जरूरत नहीं है। काम करना और बात है और गाल बजाना और बात है? अन्ना ने सूचना के अधिकार के लिए आंदोलन किया। जन लोकपाल विधेयक के लिए आंदोलन किया। इसे कहते हैं आंदोलन का नवोन्मेष। हांगकाग में चीन के खिलाफ प्रदर्शन हुए। एक प्रेमी जोड़ा एक दूसरे के कंधों पर एक हाथ रखे और दूसरे हाथ में विरोध की तख्ती लिए नजर आया। इस जोड़े के चेहरे पर कोई तनाव नहीं था। आक्रामक विरोध ही सब कुछ नहीं। विरोध सकारात्मक तरीके से भी किया जाए तो भी वह जनता और सरकार के संज्ञान में आता है। विरोध कहां, किस वक्त और क्यों किया जाना चाहिए तब तक यह देश तरक्की नहीं कर सकता।

विरोध कविवर बिहारी की तरह से किया जाना चाहिए जिसमें सत्ता को सीधा संदेश जाए। 'नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल, अली—कली ही सौं बंध्यौ आगे कवन हवाल।' हमें दुनिया के देशों से स्पर्धा करनी चाहिए। वहां के लोग अपने देश के लिए काम करते हैं और हम अपने लिए। इस फर्क को समझे जाने की जरूरत है। हम प्रोत्साहन से ज्यादा टांगखिंचाई में यकीन रखते हैं। यही वजह है कि आजादी के 73 साल बाद भी देश को उतना आगे नहीं ले जा पाए। हमारे नेता देश को आत्मनिर्भर कम, मुफ्तखोर ज्यादा बनाने के लिए प्रयासरत नजर आते हैं। कोशिश तो यह होनी चाहिए कि जो जहां है, उसे वहीं काम से जोड़ दीजिए। क्या इस तरह का कोई आंदोलन चलाया जा सकता है।  आप जो भी हैं,जैसे भी हैं, वैसे ही दिखें अच्छे लगेंगे,कृत्रिमता के आते ही मौलिकता खत्म हो जाती है। आंदोलन ही क्यों, किसी भी काम में नूतनता का ध्यान रखा जाना चाहिए लेकिन नूतनता वास्तविकता पर भारी न पड़ जाए, ध्यान तो इसका भी रखा जाना चाहिए। जिन्होंने कभी बैलगाड़ी की सवारी नहीं या जिन्होंने कभी किसी गाड़ी को धक्का नहीं लगाया अगर वे ट्रक में ट्रैक्टर बांधकर खींचें तो पता चलता है कि वे नाराज है क्योंकि नाराज व्यक्ति ही ऐसे काम कर सकता है। शीतल चित्त से सोचें कि इन आंदोलनों से आपको या समाज को क्या मिला? उल्टे आम आदमी की परेशानी बढ़ी। हर दल को सोचना होगा कि वह इस देश को आगे ले जाने के लिए और सरकार के विकास कार्यों से बड़ी रेखा खींचने के लिए अपने तईं, अपने संगठन के तईं क्या कुछ नया कर सकता है। उसे सोचना होगा कि सेवा सत्ता में बैठकर ही नहीं, हम जहां जिस किसी भी स्थिति में हैं, वहीं से की जा सकती है।  



-सियाराम पांडेय 'शांत'-

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