विशेष ; जन्मभूमि पर रामलला के बाद अब बालकृष्ण मांग रहे मालिकाना हक - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 11 अक्तूबर 2020

विशेष ; जन्मभूमि पर रामलला के बाद अब बालकृष्ण मांग रहे मालिकाना हक

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अयोध्या में भले ही मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के बालस्वरूप को न्याय मिल गया हो लेकिन मथुरा में  लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण  के बाल रूप को अभी न्याय की दरकार है। राम का भी जन्मभूमि का विवाद था और श्रीकृष्ण का भी जन्मभूमि का ही विवाद है। श्रीकृष्ण का जन्मभूमि मंदिर तो राम मंदिर से पहले टूटा था।  महमूद गजनवी ने सन 1017 ई. में आक्रमण कर इसे लूटने के बाद तोड़ दिया था। राम मंदिर तो बस एक बार टूटा लेकिन कृष्ण जन्मभूमि मंदिर चार बार बना और चार बार  टूटा । अयोध्या में हिंदुओं को अपनी आस्था की जंग जीतने में 492 साल लग गए लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने 9 नवंबर 2019 को ऐतिहासिक फैसला देकर अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। 1528 में जो गलती औरंगजेब ने की थी, कुछ उसी तरह की गलती 1955 के बाद अकबर ने भी की थी।  ऐसी मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ ने यहां पहला मंदिर बनवाया था। यहां मिले ब्राह्मी-लिपि में लिखे शिलालेखों से पता चलता है कि यहां शोडास के शासन काल में वसु ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर एक मंदिर, उसके तोरण-द्वार और वेदिका का निर्माण कराया था। इतिहासकार मानते हैं कि सम्राट विक्रमादित्य के शासन काल में दूसरा भव्य मंदिर 400 ईसवी में बनवाया गया था। खुदाई में मिले संस्कृत के एक शिलालेख से पता चलता है कि 1150 ईस्वी में राजा विजयपाल देव के शासनकाल के दौरान जाजन उर्फ जज्ज ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर एक नया मंदि‍र बनवाया था। इस मंदिर को 16वीं शताब्दी के शुरुआत में सिकंदर लोधी के शासन काल में नष्ट कर दिया गया था। इसके 125 साल बाद जहांगीर के शासनकाल के दौरान ओरछा के राजा वीर सिंह देव बुंदेला ने इसी स्थान पर चौथी बार मंदिर बनवाया। इस मंदिर की भव्यता से चिढ़कर औरंगजेब ने सन 1669 में इसे तुड़वा दिया और इसके एक भाग पर ईदगाह का निर्माण करा दिया।

 वर्ष 1815 में नीलामी के दौरान बनारस के राजा पटनीमल ने इस जगह को खरीद लिया था। वर्ष 1940 में जब यहां पंडि‍त मदन मोहन मालवीय आए, तो श्रीकृष्ण जन्मस्थान की दुर्दशा देखकर वे काफी निराश हुए। मालवीय जी ने जुगल किशोर बिड़ला को श्रीकृष्ण जन्मभूमि के पुनरुद्धार  के संबंध में पत्र लिखा। मालवीय की इच्छा का सम्मान करते हुए बिड़ला ने 7 फरवरी 1944 को कटरा केशव देव को राजा पटनीमल के तत्कालीन उत्तराधिकारियों से खरीद लिया। इससे पहले कि वे कुछ कर पाते मालवीय का देहांत हो गया। बिड़ला ने 21 फरवरी 1951 को श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना की। ट्रस्ट की स्थापना से पहले ही यहां रहने वाले कुछ मुसलमानों ने 1945 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक रिट दायर कर दी। इसका फैसला 1953 में आया।  इसके बाद ही यहां कुछ निर्माण कार्य शुरू हो सका। यहां गर्भ गृह और भव्य भागवत भवन के पुनरुद्धार और निर्माण कार्य आरंभ हुआ, जो फरवरी 1982 में पूरा हुआ।

 श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान और शाही मस्जिद ईदगाह के बीच पहला मुकदमा 1832 में शुरू हुआ था। तब से लेकर विभिन्न मसलों को लेकर कई बार मुकदमेबाजी हुई लेकिन जीत हर बार श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान की हुई। श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान के सदस्य गोपेश्वर नाथ चतुर्वेदी की मानें तो  पहला मुकदमा 1832 में हुआ था। अताउल्ला खान ने 15 मार्च 1832 में कलेक्टर के यहां प्रार्थनापत्र दिया। जिसमें कहा कि 1815 में जो नीलामी हुई है उसको निरस्त किया जाए और ईदगाह की मरम्मत की अनुमति दी जाए। 29 अक्टूबर 1832 को आदेश कलेक्टर डब्ल्यूएच टेलर ने आदेश दिया जिसमें नीलामी को उचित बताया गया और कहा कि मालिकाना हक पटनीमल राज परिवार का है। इस नीलामी की जमीन में ईदगाह भी शामिल थी। इसके बाद तमाम मुकदमे हुए। 1897, 1921, 1923, 1929, 1932, 1935, 1955, 1956, 1958, 1959, 1960, 1961, 1964, 1966 में भी मुकदमे चले।

गौरतलब है कि  9 नवंबर, 2019 को अयोध्या के राम मंदिर—बाबरी मस्जिद विवाद पर फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे मामलों में काशी—मथुरा समेत देश में नई मुकदमेबाजी के लिए दरवाजा बंद कर दिया था। साथ ही यह भी टिप्पणी की थी कि अदालतें ऐतिहासिक गलतियां नहीं सुधार सकतीं। सवाल यह है कि क्सा मथुरा और काशी के मामले को यूं ही छोड़ दिया जाए या उस पर कुछ किया जाए। भगवान श्रीकृष्ण विराजमान की सखी लखनऊ निवासी वकील रंजना अग्निहोत्री और छह अन्य भक्तों प्रवेश कुमार, राजेशमणि त्रिपाठी, करुणेश कुमार शुक्ला, शिवाजी सिंह और त्रिपुरारी तिवारी की ओर से  सर्वोच्च न्यायालय के  अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन और हरिशंकर जैन ने स्थानीय न्यायालय में याचिका दायर की है। याचिका में जमीन को लेकर 1968 के समझौते को गलत बताया गया है।  रामनगरी अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का काम चल रहा है। इसी बीच मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि परिसर का मामला स्थानीय कोर्ट में पहुंचने से माहौल गरमा गया है।  इस सिविल केस में 13.37 एकड़ जमीन पर दावा करते हुए स्वामित्व मांगा गया है और शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने की मांग की गई है। याचिका में कहा गया है कि जमीन के मालिक कृष्ण जन्मस्थान पर विराजमान भगवान श्रीकृष्ण है। जमीन पर मालिकाना हक विराजमान भगवान श्रीकृष्ण का है। जबकि श्रीकृष्ण जन्म स्थान सोसाइटी द्वारा 12 अक्टूबर 1968 को कटरा केशव देव की जमीन का समझौता हुआ और 20 जुलाई 1973 को यह जमीन समझौते के बाद डिक्री की गई। भगवान श्रीकृष्ण विराजमान की जमीन की डिक्री करने का अधिकार सोसाइटी को नहीं है। लिहाजा सोसाइटी की जमीन की डिक्री खत्म की जाए और भगवान श्रीकृष्ण विराजमान को उनकी 13.37 एकड़ जमीन का मालिकाना हक दिया जाए। अधिवक्ताओं ने बताया कि याचिका में उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, कमेटी ऑफ मैनेजमेंट ट्रस्ट शाही मस्जिद ईदगाह, श्रीकृष्ण जन्म भूमि ट्रस्ट, श्रीजन्मस्थान सेवा संस्थान को प्रतिवादी बनाया गया है। हालांकि श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट के सचिव कपिल शर्मा ने इस मुकदमे से  अपना कोई ताल्लुकात न होने की बात कही है।‘भगवान श्रीकृष्ण विराजमान’ और ‘स्थान श्रीकृष्ण जन्मभूमि’ के नाम से दायर  इस याचिका में इस बात का दावा किया गया है कि मौजूदा शाही ईदगाह मस्जिद की जगह द्वापर युग में महाराज कंस का कारागार हुआ करता था और उसी कारागार में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। हालांकि इस केस के निस्तारण में प्लेस आफ वोरशिप एक्ट, 1991 बड़ी बाधा है। इस एक्ट का कहना है कि आजादी के दिन 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस संप्रदाय का था, उसी का रहेगा।  हालांकि इस कानून के तहत सिर्फ रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को छूट दी गई थी। सवाल यह है कि जब  रामजन्मभूमि विवाद मामले में छूट दी जा सकती है तो श्रीकृष्ण जन्म भूमि मामले में क्यों नहीं जबकि दोनों ही अवतार भगवान विष्णु के ही हैं। दोनों ही विवाद जन्मभूमि स्थल को लेकर ही हैं। हरिशंकर जैन और विष्णु शंकर जैन हिंदू महासभा के वकील रहे हैं और इन्होंने रामजन्मभूमि केस में हिंदू महासभा की पैरवी की थी।  

गौरतलब है कि 1951 में श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट बनाकर यह तय किया गया कि वहां दोबारा भव्य मंदिर का निर्माण होगा और ट्रस्ट उसका प्रबंधन करेगा। इसके बाद 1958 में श्रीकृष्ण जन्म स्थान सेवा संघ नाम की संस्था का गठन किया गया था। कानूनी तौर पर इस संस्था को जमीन पर मालिकाना हक हासिल नहीं था, लेकिन इसने ट्रस्ट के लिए तय सारी भूमिकाएं निभानी शुरू कर दीं। इस संस्था ने 1964 में पूरी जमीन पर नियंत्रण के लिए एक सिविल केस दायर किया, लेकिन 1968 में खुद ही मुस्लिम पक्ष के साथ समझौता कर लिया। इसके तहत मुस्लिम पक्ष ने मंदिर के लिए अपने कब्जे की कुछ जगह छोड़ी और उन्हें  उसके बदले समीपवर्ती जगह दे दी गई। मथुरा में अकेले यही मंदिर नहीं तोड़ा गया था। सन् 1018 में महमूद गजनवी ने मथुरा के समस्त मंदिर तुड़वा दिए थे, लेकिन उसके लौटते ही फिर मंदिर बन गए। वर्ष 1192 में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद भारत में मुस्लिम साम्राज्य की जड़ें जम गईं।  भारत में फिर मंदिर टूटने लगे और उनकी जगह मकबरे और मस्जिदें बना दी गईं। इतिहास गवाह है कि मथुरा 350 साल तक मंदिर विहीन रहा। यहां के हिंदुओं को बिना किसी मंदिर के जीवन यापन करना पड़ा। वर्ष  1555 में आदिलशाह सूर के सेनापति हेमचन्द्र भार्गव ने दिल्ली-आगरा व आसपास का इलाका जीत लिया और यज्ञ कर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। दिल्ली में हिन्दू राज्य की स्थापना की। दुर्भाग्य से हेमू भार्गव का राज्य मात्र एक वर्ष तक ही रहा किंतु इस एक वर्ष में ही आसपास के जाट और यादवों ने मिलकर मथुरा की एक-एक मस्जिद तोड़ डाली। मथुरा खंडहरों का शहर बन गया, किंतु 1556 में अकबर का राज्य स्थापित होने पर नए मंदिर नहीं बन सके।

भगवान कृष्ण की जन्मभूमि का खंडहर मथुरा के चौबे की हवेली के समीप था। यह पूरा इलाका कटरा केशवदेव कहलाता था। हिन्दू तीर्थयात्री आते थे। श्रद्धालुओं को प्रतिदिन खंडहर की परिक्रमा-पूजा करते देख चौबे अपनी हवेली में बैठ दुखी होता  लेकिन असहाय था। केशवदेव मंदिर पर बनी मस्जिद के खंडहर पर उसे मंदिर कौन बनाने देता?

  जिस बंगाल को पूरा का पूरा बाबर, हुमायूं और अकबर भी नहीं जीत सके थे, उस बंगाल को जीतकर जब राजा मान सिंह लौटे तो आगरे में धूमधाम से मानसिंह का स्वागत हुआ।  भलाहो राज मान सिंह का कि उन्होंने पुरस्कार स्वरूप  मथुरा और वृंदावन के हिन्दू तीर्थ मांग लिए अन्यथा मथुरा और वृंदावन मंदिर विहीन ही रह जाते। । अकबर ने मथुरा-वृंदावन के तीर्थ तुरंत मानसिंह को जागीर में दे दिए, साथ ही बंगाल, बिहार, उड़ीसा का नाम बदलकर वीर मानसिंह भूमि कर दिया। वर्तमान में परगना वीरभूमि, परगना मानभूमि और परगना सिंहभूमि के रूप में ये क्षेत्र पुकारे जाते हैं। मथुरा-वृंदावन के मानसिंह की जागीर में शामिल होते ही वहां से मुगल सैनिक हटा लिए गए, किंतु न्यायाधीश के पद पर काजी डटा रहा। अकबर ने शेख अब्दुल नबी को सदर उल्सदूर (प्रधान धर्माचार्य) के पद पर नियुक्त कर रखा था। मथुरा की प्रशासन व्यवस्था आमेर कछवाहा सैनिकों के हाथ में आते ही मथुरा के हिन्दुओं का साहस लौट आया। कटरा केशवदेव के चौबे ने कृष्ण जन्मभूमि के खंडहर से पत्‍थर-ईंटें चुनकर एक चबूतरा बना डाला। उस काल में तब मंदिर बनाने पर रोक थी तो मूर्तियां कौन बनाता? कृष्ण की मूर्ति नहीं थी, सो चौबे ने जल्दी-जल्दी में शिव की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा कर डाली। गुलामी के बीते 350 वर्षों में यह मथुरा का पहला हिन्दू मंदिर था। दर्शनार्थियों की भीड़ उमड़ पड़ी।  खबर मिलते ही सदर उल्सदूर और देशी-विदेशी मुस्लिम सरदारों ने सीकरी के दरबार में अकबर से इसकी शिकायत की और कुफ्र की सीनाजोरी को कुचलने की मांग करने लगे। दरबार और हरम में पक्ष और विपक्ष में दो दल हो गए। समस्त मुस्लिम सरदार एक ओर तथा हिन्दू सरदार दूसरी ओर हो गए। हरम की मुसलमान बेगमों और हिंदू बेगमों में ठन गई। एक पक्ष मंदिर तोड़ने की बात  कर रहा था तो दूसरा न तोड़ने की हिमायत।  अकबर दुविधा में थे। भारत का हिन्दू प्रतिरोध तो समाप्त हो चुका था, लेकिन उसके परिवार के मिर्जा और भारतीय अफगान सिर उठा रहे थे। गुजरात के मिर्जा अब्दुल्ला, जौनपुर व  चुनार के अलीकुली खां, खानजमां और बहादुर खां, मालवा-कड़ा के आसफ खां, बंगाल के अफगान दाऊद खां और काबुल का उसका भाई मिर्जा हकीम मानसिंह और टोडरमल की तलवारों से ही झुकाए जा सकते थे। ऐसे में अकबर राजपूतों को दुश्मन बनाना नहीं चाहता था और न देशी-विदेशी मुसलमानों को नाराज करना चाहता था। इस कारण उसने सदर से कहा, यह धार्मिक मामला है और आप उसके प्रमुख हैं, जैसा चाहें वैसा करें। मैं हस्तक्षेप नहीं करूंगा।  शेख अब्दुल नबी सदर ने फरमान जारी किया कि बिना इजाजत बन रहे मथुरा के मंदिर को तोड़ दिया जाए, साथ ही दो हजार मुगल सैनिक मथुरा रवाना कर दिए। इसका अहीर, जाट,गड़रिए और राजपूतों ने कड़ा विरोध किया। मुगल दस्ता मथुरा पहुंचा तो गली-मोहल्लों में खचाखच भरे हथियारबंद हिन्दुओं को देख सहम गया। तब घूमकर मुगल घुड़सवार जन्मभूमि पहुंचे। वहां भी हिन्दू जनता अटी पड़ी थी। मुगलों को जन्मभूमि की ओर जाते देख मथुरा के कछवाहा सैनिक भी घोड़ों पर बैठ उसी ओर चल दिए। कछवाहा सैनिकों को देख मुगलों की हिम्मत बंधी। मुगल सरदार ने ऊंची आवाज में परिसर में खड़े हिन्दुओं से कहा कि आप लोग यह जगह खाली कर दीजिए, यहां बिना इजाजत काम हो रहा है, नहीं तो खून-खराबा हो जाएगा। लेकिन कोई टस से मस नहीं हुआ। मुगल घुड़सवारों के हमला करने से पूर्व ही कछवाहा सैनिक तलवारें खींच मुगलों और जनता के बीच आ गए। इस बदली परिस्थिति में मुगल चकरा गए।  आगरा जाकर मुगल सालार ने जनता की और कछवाहा सैनिकों की बगावत की बात नमक-मिर्च लगाकर अकबर को सुनाई। सदर और मुसलमान सरदारों ने भी दबाव डाला, लेकिन महाविनाश की आशंका से अकबर चुप्पी साध गया। उधर मेवाड़ में महाराणा प्रताप एक के बाद एक मुगल किले छिनते जा रहे थे। चित्तौड़, अजमेर और मांडलगढ़ को छोड़ सभी जगह से मुगल खदेड़ दिए गए। अकबर ने सोचा कि 50 हजार कछवाहे सैनिक महाराणा प्रताप से मिल गए तो फिर मेरी सल्तनत का क्या होगा? आखिरकार यह तय हुआ कि चौबे को आगरा बुलाया जाए और पूछताछ की जाए। दरबार के राजा बीरबल और अबुल फजल आगरा भेजे गए। वे अपनी ओर से विश्वास दिलाकर उस ब्राह्मण को लेकर आगरा आए और दरबार में निवेदन किया कि थोड़ी बेअदबी जरूर हुई है लेकिन अपने देवता के जन्मस्थान पर मंदिर बनाना कोई अपराध नहीं है।  ब्राह्मण (चौबे) सदर के हुक्म से वह जेल में डाल दिया गया। अगले दिन शेख सदर ने ब्राह्मण का कत्ल करवा दिया। ब्राह्मण के कत्ल की खबर फैलते ही हिन्दू दरबारी सीकरी के तालाब पर जा पहुंचे। पुन: बहस छिड़ गई। फाजिल बदायूंनी हत्या को उचित ठहरा रहा था तो अकबर ने डांटकर उसे दरबार से भगा दिया, फिर जीवनपर्यंत बदायूंनी दरबार में नहीं आया। बादशाह के गुरु शेख मुबारक ने कहा कि सारी इमामत और निर्णय के अधिकार अकबर के पास होने चाहिए। उनके ऐसा कहने पर शेख सदर के सारे अधिकार छीन उन्हें ‍मस्जिद में बैठा दिया गया, किंतु हिन्दू शांत नहीं हुए। अकबर ने सदर को बहुत सा धन और मखदूम-उलमुल्क के साथ हज रवाना किया और वृंदावन में 4 मंदिर बनाने की इजाजत दे दी। सबसे पहले गोपीनाथ का मंदिर फिर मदनमोहन का मंदिर और 1590 में गोविंददेव के मंदिर बने। सबसे अंत में जुगलकिशोर का मंदिर 1627 में जहांगीर के काल में पूर्ण हुआ। कृष्ण जन्मभूमि के संघर्षों का इतिहास भी बहुत पुराना है। हिंदू धर्मावलंबियों का नारा रहा है कि अयोध्या तो बस झांकी है, काशी—मथुरा बाकी है। जिस तरह राम मंदिर पर फैसले के बाद संत समाज काशी और मथुरा को लेकर लामबंद हो रहा है और अब यह मुकदमा मथुरा की अदालत में पहुंचा है, उससे तूफान के बड़े होने का संकेत तो मिलता है। मुस्लिम जमात की ओर से कहा जा रहा है कि मथुरा में दोनों वर्गों के बीच शांति है, ऐसे में इस समय इस मुदृदे को गरमाना क्या उचित है लेकिन जो अपनी धार्मिक अस्मिता पर अड़े हों, उनका क्या किया जाए। भले ही यह मुकदमा अदालत में चला गया हो लेकिन इसका समय उपयुक्त नहीं है, यह तो माना ही जाना चाहिए।    




- सियाराम पांडेय 'शांत'-

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