- · 2021 में राजकमल प्रकाशन प्रकाशन की पहली पेशकश
- · उर्दू के दिग्गज कथाकार की एक नायाब कृति, किस्सागोई की बेहतरीन मिसाल
नई दिल्ली : उर्दू के दिग्गज कथाकार-आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के चर्चित उपन्यास क़ब्ज़े ज़माँ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो गया है। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित यह उपन्यास एक सिपाही की आपबीती के बहाने वर्तमान समय से शुरू होकर गुजरे दो जमानों का हाल इतने दिलचस्प अन्दाज में बयान करता है कि एक ही कहानी में तीन जमानों की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक तसवीर साफ उभर आती है। इनमें से एक जमाना सोलहवीं सदी के शुरुआती दिनों का है जब तुगलकों का शासन था। जबकि दूसरा जमाना अठारहवींं सदी के मध्य का है जब मुगलों की सत्ता थी। भाषा के मामले में यह उपन्यास एक अलग ही मिसाल पेश करता है। कहानी जिस जमाने में पहुंचती है, इसके किरदार उस जमाने की जुबान बोलते नजर आने लगते हैं। साथ ही इसमें उन जमानों की रवायतों का नमूना भी नजर आता है। इस तरह उपन्यासकार भारत के गुजरे वक्तों की भाषाई विविधता, संस्कृति और परम्परा की झलक भी बखूबी दिखलाता है। उपन्यास भारत की जमीन पर विकसित किस्सागोई की ऐतिहासिक परम्परा को भी पूरी शिद्दत से जीवन्त करता है। इसका हिन्दी में अनुवाद डॉ. रिज़वानुल हक़ ने किया है, जो उर्दू से हिन्दी में अनुवाद के लिए जाने जाते हैं। हिन्दी पाठकों के लिए यह उपन्यास 11 जनवरी से बाजार में उपलब्ध होगा। जबकि इसकी प्री बुकिंग जारी है। प्रकाशन ने इसकी प्री बुकिंग पर 10 जनवरी तक विशेष ऑफर की घोषणा की है। राजकमल प्रकाशन के प्रबन्ध निदेशक अशोक महेश्वरी ने कहा, यह उपन्यास उन तमाम लोगों के लिए एक यादगार साबित होगा, जो फ़ारूक़ी साहब की किस्सागोई के मुरीद हैं। यह उन पाठकों के लिए भी अविस्मरणीय साबित होगा, जो इसके जरिये पहली बार फ़ारूक़ी साहब की लेखनी के जादू से रू-ब-रू होंगे। गौरतलब है कि शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का 25 दिसम्बर, 2020 को निधन हो गया था। आधुनिक उर्दू साहित्य के प्रमुख स्तंभों में शुमार फ़ारूक़ी की उर्दू और अंग्रेेजी में 40 से अधिक किताबें छप चुकी हैं। क़ब्ज़े जमाँ से पहले, हिन्दी में उनकी उर्दू का आरम्भिक युग, अकबर इलाहाबादी..., सवार और अन्य कहानियाँ और कई चाँद से सरे आस्माँ जैसी कई कृतियाँ अनूदित होकर पर्याप्त चर्चा पा चुकी हैं।
उपन्यास के बारे में -
यह छोटा-सा उपन्यास उर्दू की क़िस्सागोई की बेहतरीन मिसाल है। इक्कीसवीं, सोलहवीं और अठारहवीं सदियों के अलग-अलग सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मिज़ाज तथा उनके अपने वक़्तों की बोली-बानी में रचा गया है। जो फ़ारूक़ी साहब इस फ़न के उस्ताद लेखकों में एक हैं। कहानी बयान करने पर उन्हें कमाल हासिल है। इस उपन्यास की मुख्य विषय-वस्तु यह क़िस्सा है कि दिल्ली का एक सिपाही जिसका घर जयपुर के किसी गाँव में था, अपनी लड़की की शादी के लिए रुपए-पैसे का बन्दोबस्त करके अपने घर को चला लेकिन रास्ते में उसे डाकुओं ने लूट लिया। ख़ाली हाथ जयपुर पहुँच उसने लोगों से सुना कि वहाँ एक दानी तवायफ़ रहती है जो मदद कर सकती है। सिपाही ने उससे तीन सौ रुपए का क़र्ज़ लिया और जाकर अपनी बेटी की शादी की। वापसी में वह क़र्ज़ लौटाने जब उसके पास गया तो पता चला कि तवायफ़ गुज़र चुकी है और पैसे वापस लेने को कोई वारिस भी नहीं है। यह सोचकर कि मृत आत्मा की क़ब्र पर फ़ातिहा पढ़ता चलूँ, जब पहुँचा तो देखा कि क़ब्र फटी हुई है और उसमें एक दरवाज़ा-सा कहीं जाता दिखाई दे रहा है। वह उसमें अन्दर गया तो वहाँ एक महल में उस तवायफ़ से मिला। उसने पैसे वापस करना चाहा तो यह कहकर कि यह जगह तुम्हारे लिए नहीं है, तवायफ़ ने उसे महल से निकलवा दिया। महल के बाहर एक मैदान था, बाग़ थे। वह वहाँ पर कोई तीन घंटे घूमा और जब बाहर निकला तो देखा कि दुनिया में तीन सौ साल का अरसा बीत चुका है। यह उपन्यास उसके इन दोनों वक्तों की दुनियाओं की उनके अपने मिज़ाज में दिलचस्प अक्काशी करता है और क्योंकि यह सारा क़िस्सा बयान किया है इक्कीसवीं सदी के एक शख़्स ने तो हमारा यह वक़्त भी इसमें आ गया है। इस तरह इस छोटे से उपन्यास की काया में तीन बड़े ज़मानों को समेट दिया गया है... “मालूम होता है कि अल्लाह ताला अपने किसी शख़्स के लिए लम्बे ज़माने को भी मुख़्तसर कर देता है जबकि वह दूसरों के लिए तवील ही रहता है।’’
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