देश एक, संविधान एक, लेकिन कानून अनेक? ये ऐसे सवाल है जो अरसे से उठाएं तो जा रहे है, पर उत्तर नहीं मिल पा रहा। हालांकि भाजपा का यह पहला एजेंडा है जो जब सत्ता में नहीं थी तो बराबर उठाती रही, लेकिन सत्ता मिलते ही इसे भूलने में अपनी भलाई समझी। हालांकि ट्रिपल तलाक की खात्मा से उम्मींदे जगी थी कि जल्द दहेज प्रथा पर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सर्जिकल स्ट्राइक होगी, लेकिन सब ढाक के तीन पात ही रहा। लेकिन अहमदाबाद में आयशा नाम की एक महिला की आत्महत्या के बाद दहेज प्रथा या यूं कहे उत्पीड़न को लेकर फिर से बहस छिड़ गयी है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है संविधान सबको समान मानता है तो धार्मिक आधार पर रियायत क्यों? खासकर हिन्दू समाज में कैंसर की तरह गहरी जड़े जमा चुकी दानवरुपी ‘दहेज‘ जैसी कुप्रथा के खिलाफ कब छिडेंगी जंग?
दरअसल, पहली बार सरकार ने खुलकर बदलाव का नजरिया रखा है। एक के बाद एक देश व समाजहित में फैसले लिए जा रहे है। ऐसे में दहेज जैसी कुपथा को खत्म करने के लिए लोगों को एकजुट होने की जरुरत है। यह धर्म से जुड़ा मुद्दा नहीं है। देश ने सदियों तक बाल विवाह और शती प्रथा को देखा भी है और भुगता भी। आवाज उठी तो इन कुरीतियों के उन्मूलन की दिशा में प्रयास भी किए गए। देश आज 188 बरस पूर्व 1829 में राजाराम मोहन राय के अगुवाई में चले आंदोलन के बाद का शतीप्रथा जैसे कुप्रथा से मुक्त हो चुका है। चोरी-छिपे बाल विवाह की घटनाएं आज भी होती है। इसमें सजा का प्राविधान भी है। लेकिन इस कानून का प्रभाव न के बराबर है। जहां तक आयशा का सवाल है तो उसके संवेदनशील वीडियों देशभर में वायरल होने के बाद ही फिर से दानवरुपी दहेज के खिलाफ आवाज उठी है। आयशा ने आत्महत्या करने से पहले वीडियों रिकॉर्ड किया था। वीडियो में दहेज उत्पीड़न से परेशान आयशा अपनी बात कह रही हैं और इसके बाद वह आत्महत्या कर लेती हैं। हालांकि आत्महत्या समाधान नहीं समस्या है। लेकिन आयशा ये नहीं समझ सकीं और अब वो हमारे बीच नहीं हैं। आयशा के पति आरिफ खान को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया है लेकिन उसे अपनी पत्नी की मौत का कोई गम नहीं है। कोई पछतावा नहीं है। हालांकि आयशा के पिता अपनी बेटी के लिए परेशान हैं। इस मामले ने देश में एक बार फिर दहेज प्रथा के प्रति लोगों को जगा दिया है।
देश में 1 मई 1961 को दहेज उत्पीड़न रोकने का कानून बना था और इसका उद्देश्य था, दहेज की वजह से महिलाओं के उत्पीड़न और मौत को रोका जा सके। कानून तो बन गया, लेकिन उसका सही इस्तेमाल नहीं हो सका। लोग इसका गलत इस्तेमाल करने लगे और बड़ी संख्या में निर्दोष लोगों को फंसाया जाने लगा। इसी का नतीजा था कि देश की संसद को वर्ष 1983, 1984, 2005 और 2014 में इस कानून में संशोधन करने पड़े। वर्ष 2018 के आंकड़ों के मुताबिक, दहेज उत्पीड़न के 47 हजार केस दर्ज हुए, लेकिन सजा केवल 13 प्रतिशत केस में मिली। वर्ष 2006 से 2017 के बीच दहेज उत्पीड़न के पेंडिंग केस की संख्या पिछले सालों की तुलना में करीब ढाई गुना बढ़ गई। वर्ष 2016 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने संसद में एक आंकड़ा पेश किया था। जिसके मुताबिक वर्ष 2012 से वर्ष 2014 के बीच भारत में दहेज की वजह से करीब 25 हज़ार महिलाओं की या तो हत्या कर दी गई या उन्होंने आत्महत्या कर ली। यानी भारत में हर रोज़ करीब 20 महिलाओं की मौत की वजह दहेज प्रथा होती है। कहा जा सकता है दहेज एक ऐसा अभिशाप बन चुका है कि इसने हर उस मनुष्य का चैन छीन लिया है, जो एक विवाह योग्य कन्या का पिता है। इस कुप्रथा के कारण विवाह जैसा महत्त्वपूर्ण एवं पवित्र संस्कार “वर को खरीदने एवं बेचने कि मंडी बन गया है।” यह एक ऐसी विषबेल है, जिसने पारिवारिक जीवन को उजाड़ कर रख दिया है। आज कल कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता जिस दिन समाचार पत्रों में दहेज़ के कारण किसी नवयुवती की मृत्यु या उसके ऊपर अत्त्याचार के समाचार पढने को न मिलते हों।
अब ज्वलंत प्रशन यह है कि इस सामाजिक कोढ़ को कैसे समाप्त किया जाये? इसके लिए व्यापक रूप से प्रयास करने की आवश्यकता है, क्योंकि ऊपरी तौर पर इस कुप्रथा का कोई भी पक्षधर नहीं है, परन्तु अवसर मिलने पर लोग दहेज लेने से नहीं चूकते। इसको दूर करने के लिए सरकार ने दहेज विरोधी क़ानून बना दिया है। दहेज के सन्दर्भ में नवविवाहिताओं की मृत्यु सम्बन्धी मामलों में न्यायधीशों ने नववधुओं के पिता, सास-ससुर आदि को मृत्यु दंड देकर इस कुप्रथा को समाप्त करने की दिशा में प्रशंसनीय प्रयास किया है, परन्तु यह कुप्रथा सुरसा के मुख की भांति बढ़ती जा रही है। इसके विरोध में व्यापक जनचेतना जागृत करने की आवश्यकता है। सरकार के साथ-साथ समाज सेवी संस्थाएं तथा समाजसेवा में रूचि रखने वाले लोग इस प्रथा के विरुद्ध जाग्रति उत्पन्न करने तथा रोकने के कड़े उपाय भी करें, तो इससे छुटकारा पाया जा सकता है। माना कि सरकार ने दहेज को अवैध घोषित कर दिया है, परन्तु क़ानून बन जाने से कुछ नहीं हो पा रहा है। इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए आज के शिक्षित युवक-युवतियों को आगे आना होगा। उन्हें दृ़ढ़ संकल्प लेना होगा की वे दहेज लेकर या देकर विवाह नहीं करेंगे और ना ही ऐसे किसी विवाह में शामिल होंगे जहां दहेज लिया गया हो, बल्कि वहाँ जाकर विरोध प्रदर्शन करेंगे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि जो भी व्यक्ति दहेज को शादी की ज़रूरी शर्त बना देता है वो अपनी शिक्षा, और अपने देश को बदनाम करता है और साथ ही पूरी महिला जाति का अपमान भी करता है। महात्मा गांधी ने ये बात भारत की आज़ादी से भी पहले कही थी लेकिन विडंबना देखिए कि हमारे देश के लोग आज भी दहेज मांगते हैं...और दहेज के रूप में जो नोट उन्हें मिलते हैं..उन पर भी महात्मा गांधी की ही तस्वीर होती है। यानी दहेज लेने और देने के मामले में हमारा समाज बेशर्मी की सारी हदें पार कर जाता है।
दहेज प्रथा के खिलाफ महापुरुषों के कई कथन स्कूल की किताबों में पढ़ाए जाते हैं। इन महापुरुषों की जयंती पर कई बार अवकाश भी होता है। लेकिन छुट्टी वाले दिन भी हम बैठकर दहेज जैसी बुराई के बारे में बात नहीं करते। लड़का जितना पढ़ा लिखा और जितने बड़े पद पर होता है, सके घर वाले इसी आधार पर लाखों या करोड़ों रुपये के दहेज की मांग करते हैं। इसका दूसरा पहलू ये है कि लड़की के घर वाले भी ऐसे वर की तलाश करते हैं, जो पढ़ा लिखा हो, जिसके पास अच्छी नौकरी हो, कार हो और अपना बंगला हो। इसके अलावा दूल्हे और दुल्हन के रंग रूप को शादी में अड़चन की तरह देखा जाता है। छोटी छोटी शारीरिक कमियों की वजह से भी रिश्ते तोड़ दिए जाते हैं या फिर मोटा दहेज मांगा जाता है। साफ रंग वाली बहू पाना आज भी भारत के ज्यादातर परिवारों की प्राथमिकता होती है। ज़ाहिर है ऐसी स्याह सोच के साथ एक साफ सुथरे समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता है। सरकार दहेज प्रथा के खिलाफ बड़े बड़े विज्ञापन प्रसारित करती है। जिसमें दहेज लेने वालों को नसीहत दी जाती है कि वो ऐसा ना करें। क्योंकि दहेज लेना, और दहेज देना दोनों ही दंडनीय अपराध हैं। लेकिन बाकी बातों की तरह इन विज्ञापनों का भी कोई असर नहीं होता है। आजकल लोग ऐसी बहू की तलाश करते हैं जिसने उच्च शिक्षा हासिल की हो और वो नौकरी भी करती हो। लेकिन ऐसी बहू मिल जाने पर भी लोग दहेज मांगते हैं। कई शादियों में दहेज के सामान की नुमाइश की जाती है। लोगों को दिखाया जाता है कि दूल्हे को कितना दहेज मिला है। दहेज में मिली कार, मोटरसाइकिल और दूसरे सामान को भी सजा कर शादी के मंडप में खड़ा कर दिया जाता है। लेकिन शादी में आया कोई भी मेहमान इस सामान की तस्वीर खींच कर पुलिस में शिकायत नहीं करता। कोई भी मेहमान ये नहीं कहता कि ये गलत है। ज़्यादातर लोगों की दिलचस्पी या तो खाने में होती है या फिर शादी के इंतज़ामों की बुराइयां निकालने में। दूल्हा दुल्हन के कपड़ों पर चर्चा होती है।
-सुरेश गांधी-
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