वर्तमान में राजनीति का मार्ग लगभग परिवर्तित हो चुका है। आज भले ही केंद्र में सत्ता का सिंहासन संभालने वाली भाजपा नीत सरकार ने अपने स्तर पर भ्रष्टाचार को समाप्त करने की दिशा में अभिनव प्रयास किया है, लेकिन प्रादेशिक स्तर पर इसका ज्यादा असर नहीं है। आम जनता इस भ्रष्टाचार के कारण अब इससे मुक्ति चाहती है। आज की राजनीति के बारे में यकीनन यही कहा जा सकता है कि वह जन सेवा के रास्ते से भटक चुकी है और एक प्रकार के व्यापार में परिवर्तित होती जा रही है। इसका मुख्य कारण खर्चीली चुनाव प्रणाली है, जिसमें कहने को लाखों रुपए का व्यय होता है, परंतु कहीं कहीं यह व्यय अप्रत्यक्ष रूप से करोड़ों में भी चला जाता है। हालांकि इसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता, लेकिन यह आज की सच्चाई है। पश्चिम बंगाल में भी राजनीतिक कदाचरण की घटनाएं हुई हैं। आरोप तो यह भी है ममता बनर्जी ने अपने पारिवारिक सदस्यों को नीति निर्धारक की भूमिका में स्थापित कर दिया है। इसे भी राजनीतिक और लोकतंत्र की मर्यादा का चीरहरण कहा जा सकता है यानी सीधे शब्दों में यही राजनीतिक भ्रष्टाचार की कहानी को ही उजागर करने वाला है।
पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र की मर्यादाएं कितनी टूट रहीं हैं और कितनी संवर रही हैं, यह चिंतन का विषय हो सकता है। लेकिन जो राजनीतिक गहमागहमी का वातावरण बना है, वह निसंदेह सभी राजनीतिक दलों को आत्म मंथन करने के लिए बाध्य कर रहा है। बंगाल में भाजपा की लोकप्रियता और विरोधी दलों में संकुचन का भाव भी परिलक्षित हो रहा है। कांग्रेस और वामदलों की जुगलबंदी इसका प्रमाण है। ये दोनों दल भले ही सत्ता की पहुंच से दूर हों, लेकिन इनका इतना प्रयास जरूर रहेगा कि सत्ता के नियंत्रण की चाबी अपने पास ही रखना चाहेंगे। यानी इनका पूरा प्रयास यही होगा कि बहुमत किसी को न मिले, ऐसे में अगर त्रिशंकु जैसी स्थिति निर्मित होती है तो स्वाभाविक रूप से यह दोनों दल भाजपा को रोकने के लिए ममता को समर्थन दे सकते हैं। लेकिन यह भी तय सा लग रहा है कि इन दोनों दलों को जो भी मत प्राप्त होंगे, उससे तृणमूल कांग्रेस को ही नुकसान होगा।
पिछले दो वर्ष से सत्ता का संचालन कर रहीं ममता बनर्जी की किले बंदी पांच वर्ष पहले जैसी नहीं है। उसके किले की दीवारों हिल चुकी हैं। उसकी महत्वपूर्ण ईंटें भाजपा की दीवाल में मजबूती से फिट हो चुकी हैं। इससे यही संदेश जा रहा है कि भाजपा ने लोकसभा चुनावों के बाद तृणमूल कांग्रेस में जो सेंध लगाई है, उससे वह बहुत शक्तिशाली बनकर ममता के सामने एक बड़ी चुनौती बन गई है। बंगाल में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह भी उठ रहा है कि घुसपैठ करके आए मुसलमान किधर जाएंगे। इन मतों को ममता बनर्जी अपनी पार्टी के लिए पक्का मानकर चल रहीं हैं, लेकिन इस मसले पर कांग्रेस और वामदल भी पीछे रहने वाले नहीं है। इन दोनों दल भी किसी न किसी रूप में मुसलमानों के हितैषी होने का दावा करते दिखाई देते हैं। तीसरे ओवैसी भी अपने पूरे तामझाम के साथ चुनाव मैदान में ताल ठोकने को आतुर दिखाई दे रहे हैं। इन्होंने भी बांग्लादेशी घुसपैठियों के पक्ष में अनेक बार बयान दिए हैं। ऐसी स्थिति में बंगाल के चुनाव राजनीतिक चक्रव्यूह में उलझता जा रहा है। ममता बनर्जी की परेशानी भाजपा का बढ़ता प्रभाव तो है ही, साथ ही कांग्रेस, वाम और ओवैसी भी हैं। क्योंकि यह दल ममता को ही कमजोर करेंगे, जिसके चलते भाजपा को जबरदस्त फायदा मिल सकता है। इसके बाद सत्ता के विरोध में भी वातावरण रहता ही है, जो ममता के माथे पर पसीना ला रही हैं। चुनाव में कौन बाजी मारेगा, यह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन बंगाल में चुनाव बड़ा दिलचस्प होगा।
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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