आलेख : दीपावली: मुर्द्ध ज्योति सिद्ध दर्शनम् - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 2 नवंबर 2021

आलेख : दीपावली: मुर्द्ध ज्योति सिद्ध दर्शनम्

जब आप अपने भीतर के प्रकाश के प्रति जागृत हो जाएंगे, तभी पूर्णता प्राप्त होगी। अर्थात जब स्व का ज्ञान प्रकाशित होता है तब सब चमकने लगता है और सारी दुनिया उज्वलित हो जाती है। जब बुद्धिमता का प्रकाश हमारे जीवन को चमकता है तब हम सारे तनावों से ऊपर उठते हैं और ईर्ष्या, घृणा आदि नकारात्मक भावनाओं और प्रवृत्तियों से मुक्ति मिलती है। इसलिए इस दीवाली में ज्ञान के दीप जलाओ। क्योंकि मूर्धा की ज्योति में संयम करने से सिद्धों का दर्शन होता है। मूर्धा ज्योति कहीं और नहीं अपने हीं सिर में है। मूर्धा ज्योति (प्रकाश) हमारे सिर में ब्रह्मरंध्र के अंदर स्थित है। ब्रह्मरंध्र हीं दसवां द्वार है जिसका उपयोग योगी सिद्धगण अपने प्राण को त्यागने के लिए करते हैं। अर्थात ब्रह्मज्ञानी सिद्ध संतों का प्राण ब्रह्मरंध्र से हीं निकलता है। ब्रह्मरंध्र मतलब ब्रह्म (परमात्मा) रंध्र (छेद या द्वार) परमात्मा के तरफ जाने का रास्ता। वैसे भी दीपावली स्वयं को आलोकित करने के साथ ही धन-धान्य का भी पर्व है। दीयों का जगमग प्रकाश यह संकेत करता है कि उत्साह एव ऊर्जा से आलोकित होकर हमें प्राणिमात्र के साथ प्रकृति की भी चिंता करना है। चूंकि वर्तमान में इसकी आवश्यकता कहीं अधिक बढ़ गई है इसलिए उसकी पूर्ति भी होनी चाहिए। यह तभी संभव है, जब हम सब मिलकर अंधकार से प्रकाश की ओर चलें 


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फिरहाल, अंधकार भले ही बलवान हो, पर बिना बाधाओं से डरे उससे जूझा जा सकता है और उजाला फैलाया जा सकता है। एक शांत निर्मल वातावरण में दीपावली ऐसे आती है जैसे हमारे भीतर बैठे राम अयोध्या में माता कौशल्या की गोद में उतर रहे हों। उसी करुणामय भाव और निर्मलता में सारी सृष्टि तुलसी वन-सी महक उठती है। यही अमरता है दीपावली की, जो हर साल इसकी रोशनी को बढ़ा रही है। रोशनी शब्द का मूल संस्कृत के ‘रोचना’ शब्द में है जो ईरान में जाकर ‘रोशनी’ में बदल गया। माता लक्ष्मी का एक नाम ‘रोचनावती’ है। आज जो दीये हमारे घर-आंगन में जलने हैं उनकी उम्र कोई आज-कल की नहीं, कई युगों की है। दीपावली हिंदुओं के लिए सांस्कृतिक धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व का त्योहार है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार ऐसा माना जाता है कि ऐसा कुछ है जो शुद्ध, कभी ना खत्म होने वाला अपरिवर्तनीय और भौतिक शरीर के साथ-साथ अनंत से भी परे है, जिसे आत्मा कहा जाता है।  लोग असत्य पर सत्य की विजय का आनंद लेने के लिए दिवाली मनाते हैं। वैसे भी दीपावली केवल लक्ष्मी पूजा का ही पर्व नहीं, बल्कि जीवन को जगमग कर लेने का भी पर्व है। देखा जाएं तो अंधेरा और उजाला तब से है जब से सृष्टि है। लेकिन स्वीकार्यता उजाले की है। इसलिए कि उजास आंखों की धरोहर है और अंधेरा आंखों का अभिशाप। अंधेरे के लिए सब एक से हैं, जबकि उजाला संसार को पहचानने की सामर्थ्य देता है। रास्ते दिखाता है। अंधकार में खोए खोए हुए को प्रकाशित करता है और आश्वस्त करता है कि उसके रहते हमारे आगे बढ़ते रहने की यात्रा कभी खंडित नहीं होगी। इसलिए दीपावली आनंद के साथ ही यात्रा की निरंतरता का उत्सव है। मतलब साफ है दीवाली अंधेरे पर उजाले की जीत का त्योहार तो है पर यह उजाले के आपसी संबंधों के अवलोकन और अन्वेषण का पर्व भी है। पांच दिनों तक लगातार चलने वाले त्योहार में भगवती महालक्ष्मी की पूजा का विधान है। लक्ष्मी वह है जो अमृत-सहोदरा है। वह चंद्रमा की समुद्र से पैदा हुई बहन है। लक्ष्मी भगवान विष्णु की पत्नी हैं। घनघोर काली रात में प्रकट होकर भी वह स्वर्ण वर्षा करती हैं। वेदों ने ‘श्रीसूक्त’ में लक्ष्मी को धरती माता के रूप में देखा। 


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दीवाली का अर्थ प्रत्येक हृदय में समझ उत्पंन करना, प्रत्येक घर में जीवन ज्योति प्रज्जवलित करना और प्रत्येक चेहरे पर मुस्कान लाना है। दीवाली का शाब्दिक अर्थ दीयों की कतार है। ठीक इसी तरह हमारे जीवन में भी अनेक पक्ष और स्तर होते हैं। इन सभी को प्रकाशित करना महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि अगर हमारे जीवन का एक पक्ष भी अंधकार में है, तो हम संपूर्णता में जीवन की अभिव्यक्ति नहीं कर सकते हैं। दीवाली पर जलने वाले दीयों की कतार हमें इस बात का स्मरण कराती है कि जीवन के हरेक पक्ष को हमारे ध्यान की आवश्यकता होती हैं। या यू कहे दीवाली आलोक का विस्तार है। पराजित अमावस्या का उच्छवास, घोर अंधकार का पलायन, आलोक सुरसरि का धरती पर अवतरण है दीपावली। आकाश के अनंत नक्षत्र मंडल से धरा की मूर्तिमान स्पर्धा है दीपावली। मनुष्य की चिर आलोक पिपासा के लिए चहुं दिसि आलोक वर्षा है दीपोत्सव का पर्व। अंधकार पर प्रकाश की विजय का आनंद है दीपावली। यह आत्म साक्षात्कार का दिवस है। दीपावली पर तेल से भरा जलता हुआ छोटा-सा दीपक यह संदेश देता है कि तिल-तिल कर जलना और प्रकाश बिखेरना जिस प्रकार दीपक का धर्म है, उसी प्रकार उत्सर्ग मानव धर्म हैं। उत्सव का उद्देश्य होता है आपस में खुशियां बांटना। अगर कोई अकेला है और दुखी भी तो उसे साथ लेकर उल्लासित हो। अपनी अतृप्त लालसा पूर्ति की जगह जरूरतमंद की जरूरत को पूरा करने का संदेश देते हैं। दीवाली वास्तव में आनंदोत्सव ही तो है। दरिद्रता केवल धन की ही नहीं, सुख के साधनों की नहीं बल्कि मन में घिरी संकीर्णता, स्वार्थ, कलुष रुपी दरिद्रता भी दूर होगी, तो जीवन आनंद से सराबोर हो उठता है। दीवाली पर घर-घर में जगमगाते दीये इसी आनंद की अभिव्यक्ति हैं। महाकवि निराला ने भी ‘वीणावादिनी पर दे‘ में यही प्रार्थना की है - कलुषय भेद तक हर प्रकाश भर जगमगजण कर दें‘। अच्छा हो कि इस दीवाली में दीपों के सच की इस अनुभूति के साथ एक दीया और जलाएं, ताकि इस मिट्टी की देह दीप में आत्मा की ज्योति मुस्करा सके। छत की मुंडेर पर रखे दीयों की बाती अगले वर्ष फिर जगमग को तैयार रहे, नई उम्मींदों के साथ...। दिवाली विशुद्ध रूप से प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी का एहसास कराने वाला उत्सव है। इसे उत्सव के रूप में ही मनाना चाहिए। बिजली के झालरों की बजाय शुद्ध देशी घी का दीया जलाने में उन्हें आत्मिक खुशी होती है। मतलब साफ है दीप जला देने भर से समाज और प्रकृति में फैला अंधेरा दूर नहीं हो सकता, इसलिए हर किसी को मन में सद्गुणों का दीया जलाना होगा। 


कई पर्वो का समावेश है दीवाली 

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यह भले किंवदंती हो कि दीपावली की रात माता सीता, लक्ष्मण और हनुमान के साथ श्रीराम के अयोध्या लौटने पर मनाई गई थी, पर यह जनश्रुति हमारी अंतश्चेतना में इतना समा गई है कि दीपावली हमारे लिए राम के पुनः अयोध्या लौट आने का महापर्व है। यही दीवाली तब अयोध्या में ‘पादुका-प्रशासन’ से मुक्ति का पर्व बनी थी। सर्वश्रेष्ठ राज्य की स्थापना की रोशनी फैलाने के लिए असंख्य दीये एक साथ जगमगाए थे, जहां राजा नहीं प्रजा प्रमुख थी। जनता उत्साहित और उल्लासित थी कि ‘पादुका-पूजन’ के दिन अब लद गए। असली महाराजा राम और महारानी सीता अयोध्या में पधार चुके हैं। इसीलिए अब 14 साल से पसरे अंधेरे को हटाकर अमावसी रात को पूर्णिमा में बदलना है। तभी से आज तक दीपावली पादुका-प्रशासन की समाप्ति का पर्व बनकर जगमगा रही है। यह सतत संदेश दे रही है कि मानव मात्र को निरंतर प्रकाश की ओर बढ़ना है और हर कहीं हर किसी को अंतस के आनंद से प्रकाशित करना है। इसमें सबसे अहम् पहलू यह है कि दीपावली पर हम जिस लक्ष्मी की पूजा करते वह केवल धन की देवी नहीं है। वह श्री हैं, प्रत्येक प्रकार की संपंनता देने वाली हैं, भू देवी हैं, मूल आद्यशक्ति हैं। ऋग्वेद के श्री सूक्त में लक्ष्मी के 70 नाम है, जिनमें उनके विविध रूपों की व्यंजना है। दीपावली पर हम जिस लक्ष्मी की पूजन करते हैं वह उलूक वाहिनी नहीं, गरुड़ वाहिनी है जो गति, शक्ति और सेवा का प्रतीक है। दीपावली के अर्थ केवल लक्ष्मी के अर्थ स्वरूप तक सीमित करना दीपावली की मनाई जाने की सार्थकता सिद्ध नहीं करता। इस दीपावली से केवल लक्ष्मी और राम के अयोध्या लौटने की स्मृति भर नहीं जुड़ी है, बल्कि इससे हमारे समाज के विभिन्न वर्गों के आस्था, पुरुषों, घटनाओं और पवित्र स्मारकों की स्मृतियां भी जुड़ी है। दीपावली के दिन ही भगवान श्री कृष्ण नरकासुर का वध किया था। इसी दिन 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने निर्वाण पाया था। इसी दिन अप्प दीपो भवः के उद्घोषक बुद्ध का दीप जला कर स्वागत किया गया था। इसी दिन अमृतसर के स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास हुआ था। छठे गुरु हरगोबिंद सिंह की कारावास से रिहाई हुई थी, जिसके कारण किसे बंदी छोड़ दिवस कहा जाता है। इसी दिन नचिकेता यमलोक से धरती पर ज्ञान की ज्योति के लिए मृत्यु को पराजित कर अवतरित हुए थे। दीपावली के साथ राजा बलि के दान दिवस, महाराजा विक्रमादित्य के राज्याभिषेक, महर्षि दयानंद के निर्वाण तथा स्वामी रामतीर्थ के जन्म व निर्माण स्मृतियां भी जुड़ी हुई है। इसी दिन अमृत मंथन के फलस्वरुप आयुर्वेद के प्रणेता धनवंतरी अमृत घट लेकर लक्ष्मी और कुबेर के साथ प्रकट हुए थे तथा दीपावली की रात्रि को यक्षराज कुबेर आमोद-प्रमोद कर उत्सव मनाया करते थे। इसी परिप्रेक्ष्य में आदिकाल में दीपावली को यक्षरात्रि भी कहा गया। सावित्री ने अपने पति को इसी दिन मृत्युपाश से मुक्त कराया था और कार्तिक अमावस्या की संध्या को ही हिरण्यकश्यपु का वध नृसिंह अवतार के रूप में भगवान विष्णु ने किया था। इसी दिन देवी ने महाकाली का रूप धारण किया था तथा युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ भी इसी दिन संपन्न हुआ था। इस दीपावली के जाने कितने संदर्भ हमारे जेहन में हैं। पुरातात्विक अवशेषों, कथाओं, जनश्रुतियों और किंवदंतियों में है। हमारे पुरखे इस पर्व को कौमुदी उत्सव के रूप में भी मनाते थे। उसकी अन्न की देवी के रूप में अभ्यर्थना करते थे। इसीलिए लक्ष्मी को अन्नपूर्णा भी कहा गया है। मथुरा के उत्खनन में निकले एक शिल्प में उन्हें अन्न की बाली लिए उत्कीर्ण किया गया है। ईशा से 500 वर्ष पूर्व मोहनजोदड़ो की खुदाई में पक्की मिट्टी के दीए मिले हैं तथा सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेषों में भी दीप लिए एक युवती का शिल्प मिला है। स्कंद पुराण में दीए को सूर्य के हिस्सों का प्रतिनिधि माना गया है। ईशा से चार सदी पहले कोटिल्य के द्वारा रचे गए अर्थशास्त्र में यह उल्लेख है कि कार्तिक अमावस्या की रात्रि को नदी के घाटों और घरों पर बड़े पैमाने पर दीप जलाकर उत्सव मनाया जाता था। सातवीं सदी के राजा हर्ष के नाटक नागानंद में इस दीपोत्सव को दीपप्रतिपादुत्सव कहा गया है। राजशेखर ने अपनी काव्यमीमांसा में इसे दीप मालिका कहा है। यह संदर्भ भी मिलता है कि सम्राट अशोक ने अपना दिग्विजय अभियान इसी दिन आरंभ किया था और ईसा से 269 वर्ष पूर्व महान चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन तीन लाख शको और हुडो को खदेड़ कर विजय प्राप्त की थी तथा इन दोनों अवसरों पर राज्य की प्रजा ने दीप प्रज्वलित कर विजय पर्व मनाया था। कहने का अभिप्राय यह है कि 11वीं सदी से लेकर आज तक दीपावली को प्रकाशोत्सव के रुप में मनाने का उल्लेख है। कहा जा सकता है मानव मात्र के कल्याण एवं मंगल के लिए सामंजस्यपूर्ण जीवन प्रणाली और प्रगतिशील सामाजिक संस्कृति को स्वीकारना होगा। हम सभी की जिम्मेदारी है कि सभी वर्गो को एक साथ करके पूरे जनमानस के चारों ओर छाए अन्धकार को दूर करें और आलोक पर्व मनाएं तो तमसो मां ज्योतिर्गमय, सच सिद्ध होगा। श्रमपूर्ण संस्कृति की पुनः प्रतिष्ठा ही भारत को अजेय प्रकाशवानों की राष्ट्र बना पायेगी। जीवन में मानवीय मूल्यों की स्थापना करना, मानव जीवन में वास्तविक मूल्यों का प्रकाश भरना ही वक्त की आवाज है। सदाचार बनाम भ्रष्टचार, सच्चरित्रता बनाम चरित्रहीनता, साक्षरता बनाम निरक्षरता, मूल्य बनाम अवमूल्यन आदि की परिस्थिति से गुजरते हुए हमारा जीवन व्यतीत होता है। सभी शबनामों का मर्म एक ही है उजाला बनाम अंधेरा। आज की पीढ़ी में यह संस्कार पश्चिमीकरण की आंधी में शिथिल अवश्य होने लगे हैं, पर समाप्त नहीं हुए हैं। हां, मात्रा का भेद जरूर आ गया है। समय की धारा को मोड़ने का साहस रखने वाला मनुष्य स्वयं ही खो गया है। पर जो नया सृजन कर रहा है उसे अन्धकार कब तक दबा सकता है। वह तो अन्धकार को चीरकर बाहर निकल जाएगा और पूरे वातावरण में आलोक भर देगा। समझने की बात है कि घर के मुंडेर पर दीपक इसलिए नहीं रखते कि पड़ोसी से प्रतियोगिता करनी है। मेरा घर जगमग हो तो पड़ोसी का भी हो। 


उजाला बिखेरने वाले दीये जलाएं 

देखा जाय तो स्वाधीन भारत में लक्ष्मी का प्रकाश कुछ गिनी-चुनी मुंडेरों पर केंद्रित हो गया है। लक्ष्मी सीमित तिजोरियों में कैद हो गई है। लक्ष्मी के शुभ प्रकाश को सचमुच उलूक पर बिठा दिया गया है। उजाला बिखेरने वाले दीये खुद सिसक रहें हैं और बाती अपनी बेबसी पर रो रही है। गोदामों में खाद्यान सड़ रही है। भूख से मौतों का अंतःहीन सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। व्यसनों की आग में देश के भविष्य को उजाला दिखाया जा रहा है। इन अंधेरों के सौदागरों को पता ही नहीं है कि उनकी मुनाफाखोरी, कालाबाजारी, मिलावटखोरी ने कितने ही घरों के चिरागों को बुझा दिया है। 


रिश्ते होते है मजबूत 

दीपावली का त्योहार सही मायने में हमारी संस्कृति का आइना है। धनतेरस से लेकर भैयादूज तक चलने वाले पांच दिनों का यह महापर्व आरोग्य, समृद्धि, सौन्दर्य, पर्यावरण संरक्षण, स्वच्छता, सामाजिक मेल-मिलाप और भाई-बहन के स्नेहपूर्ण रिश्ते की मिठास से सराबोर है। या यू कहे इन पांच दिनों में हमारी तमाम खुशियां समाई हुई हैं, जिन्हें हर कोई भरपूर जीना चाहता है। संपूर्ण सृष्टि जब दीयों की असंख्य पंक्तियों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है तो लगता है मानों मैं, हम और सब में बंधे रिश्ते ‘दीवाली‘ के बहाने एक साथ घर लौटे हैं। सबकों साथ देख आंखों में आयी खुशी की नमी हर कमी को पूरा कर देती है। बेशक, बचपन में दीवाली का मतलब था सिर्फ और सिर्फ खुश रहना। संयुक्त परिवार में मां और चाची सब एक ही थे। तुलसी के चौरे के पास बुआ चौक पूरी करती तो मां और चाची मिलकर रसोई संभालती, चाचा हम बच्चों को पटाखे दिलाते तो पिताजी पूजन सामाग्री जुटाते और हो जाती थी वो दिवाली, जो आज भी मन के कोने में मंद महकती है। वाकई दीये तो मात्र जलते थे, पर प्रकाश तो रिश्ते ही बिखेरते थे। लेकिन आज कैरियर की चुनौतियों ने हमें व्यस्तता के चरम पर पहुंचा दिया है और हम सबने त्योहारों के नए मायने गढ़ लिए हैं, जिसमें हैंग आउट, आउटडोर इटिंग और क्लब में सेलीब्रेशन शामिल हो गया है पर अपनों की गर्माहट लुप्त हो रही है। जबकि सच तो यह है, घर के मानिंद रिश्तों पर भी जमीं धूल साफ करने का माध्यम होते है दीवाली जैसे त्योहार। विशेषकर ‘दीवाली‘ सामूहिकता का ही पारंपरिक स्वरुप है। बस एक पहल करने का साहस चाहिए। हमें यह समझना होगा कि हमारी जमीन, वहीं रिश्ते हैं जिनके बलबूते हम हरे-भरे हैं और समय-समय पर इन्हें स्नेह से सींचना जरुरी है। वर्षो से पंरपरा अनुरुप मनाएं जा रहे इस उल्लास पर्व की विशेषता ही यही है कि इसे उन्हीं परंपराओं के साथ मनाया जाय, जिन्हें पुरानी पीढ़ियां मनाती आ रही है। वाकई में इन्हीं परंपराओं में ही तो बसी है प्रेम की वह गर्माहट जिससे यह पर्व हर किसी को आनंदित करने के साथ ही उत्साह से लबरेज कर देता हैं। गोवर्धन पूजा में गोधन की पूजा व रक्षा का प्रण तो वहीं भइया दूज में भाई के मस्तक पर रक्षा का तिलक, इस बात का संकेत है कि दीवाली जैसे त्योहार ही तो हम सभी को एक-दुसरे से जोड़े रखते है। ये ना हो तो इतना आनंद कहां मिल पाये। अर्थात दीवाली ही एक ऐसा त्योहार है, जो अपनों संग खुशियां मनाने, प्यार व स्नेह बांटने का, मन से क्रोध, ईर्ष्या और द्वेष के अंधेरो को दूर कर उजाले की ओर कदम बढ़ाने का अवसर देता है। सैंकड़ों दीप टिमटिमाकर यही संदेश देते हैं कि मन में इच्छाशक्ति हो तो अंधेरे को मात दी जा सकता हैं। 


अंतस के अंधेरे से लड़ने का संदेश है दीवाली 

श्रीराम की अयोध्या वापसी पर जो दीपमालाएं अयोध्या में जगमगाईं होंगी, उनकी किरणों हमारे घर में उजास फैला रहे दीपों में मंडरा रही हैं। निश्चित ही इन दीपों ने सहस्नों साल पहले के त्रेतायुग में अयोध्या वालों के उल्लास को देखा था। सरयू की बहती जलधारा में अपने प्रतिबिंब निहारे थे। राम और भरत के भातृभाव के बेजोड़ दृश्य को देखा था। साथ ही देखा था माता कैकेयी के मन में मिटते अंधेरे को और मंथरा की दम तोड़ती जालसाजी को। राम आए तो सबसे पहले माता कैकेयी से भेंट हुई और सारा अंधेरा मिटता रहा। अयोध्या की उस रात्रि में जले दीयों के प्रकाश की किरणों प्रत्येक वर्ष हमें चेताने आती हैं कि मन में रावण की लंका को मारकर वहां राम की अयोध्या बनाओ। हमें हर क्षण चेतना होगा और अंधेरे को दूर करने के लिए नित नए प्रयत्न करने होंगे। जब तक कहीं भी असत्य, अन्याय या असमानता रूपी अंधेरा है तब तक प्रकाश के सहारे हमें आगे बढ़ना होगा। एक ऐसा समाज रचना ही दीपावली का संदेश है जिसमें दुःख और अभाव के लिए कोई स्थान न हो। इसके लिए हमें बाहर के अंधेरे के साथ ही अंतस के अंधेरे से भी लड़ना होगा। यह एक निरतंर प्रक्रिया है। दीपावली यह स्मरण कराती है कि इस प्रक्रिया को बल देते रहना है। दिवाली एक तरह से राम के रूपांतरण का दिन भी है। वनवासी और योद्धा राम, दुष्टों का दलन करने वाला राम, शापितों का उद्धार करने वाला राम, गिरिजनों-पर्वतवासियों का मित्र राम इसी दिन से राजा राम बनता है, जिसे सार्वजनिक अपवाद की इतनी चिंता है कि वह अपनी मर्यादा की वेदी पर उस पत्नी को भी चढ़ाने से नहीं हिचकता, जिसके लिए उसने कई योजन का समुद्र पार कर एक पूरा युद्ध लड़ा। दिवाली पर राम के इस रूपांतरण को अक्सर अलक्षित किया जाता है, क्योंकि दिवाली हम राम के लिए नहीं, दरअसल रोशनी के लिए मनाते हैं। मगर दिवाली पर रोशनी का यह छल समझना होगा। इन दिनों फिर से राम की चर्चा है। हमें राजा राम नहीं, वनवासी राम चाहिए, मंदिरों में पूजा जाने वाला राम नहीं, तपस्वियों का रक्षक व स्त्रियों का उद्धारकर्ता वाला राम चाहिए। जिस अंधेरे से लड़ने के लिए मनुष्य ने अपने लिए रोशनी का पर्व गढ़ा, वह अब नई शक्ल में सामने है। दिवाली भरोसा दिलाती है कि हम इस नए अंधेरे से भी लड़ लेंगे। लेकिन ध्यान रहे, यह लड़ाई उधार ली हुई, रेडिमेड रोशनियों से नहीं, अपने अनुभव और अपनी जरूरत के हिसाब से रची गई रोशनी के हथियारों से लड़ी जाएगी। 





-सुरेश गांधी-

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