एक समय मे मध्य प्रदेश का सब से छोटा जिला दतिया, पूर्वकाल मे इसके बारे मे कोई नहीं जानता था कि पीताम्बरा माई बगलामुखी देवी के कारण विश्व मे दतिया का नाम जाना-पहचाना जाएगा। पीताम्बरा पीठ एक शक्तिपीठ है जिसकी ख्याति विश्वविख्यात है जहां लाखों श्रद्धालु पीताम्बरा माई के दर्शनार्थ आते हैं। राजनीतिक क्षेत्र मे सŸाा की प्राप्ति हेतु राजनेता, व्यवसाई, फिल्मी हस्तियां आदि अपने-अपने कर्मक्षेत्र से जुड़े लोग अपने कर्म मे सफलता की कामना के साथ यहां आते रहते हैं। लेकिन ध्यान यह भी रहै कि पीताम्बरा माई न्यायपूर्ण भक्तों की रक्षा करती है। दतिया के इतिहास का वह स्वर्णिम दिनांक 09 जुलाई सन् 1929 हमेशा स्मरणीय रहेगा जब एक 31 वर्षीय युवा सन्यासी झांसी से ग्वालियर की ओर पैदल ही जा रहै थे और रात्रि मे विश्राम करने हेतु अचानक वह दतिया नगर की ओर मुड़ गए। मै तो यह कहूंगा कि दतिया की पावन धरती भगवान शिव दंतवक्त्रेश्वर की नगरी ने उन्हे इस प्रेरणा के साथ खीेंच लिया कि उनकी सााधना स्थली यहीं पर है। वह युवा सन्यासी दंतवक्त्रेश्वर भगवान शिव के मन्दिर पर पहुंच गए जिसे दतियावासी मढ़ि़या के महादेव मन्दिर के नाम से जानते हैं। यह मन्दिर दतिया के मुख्य बाजार किला चौक के पास है। यह युवा सन्यासी वही थे जो सम्पूर्ण विश्व मे पीताम्बरा पीठ दतिया के स्वामी जी महराज के नाम से विख्यात हैं। तत्समय इस मन्दिर के निकट आध्यात्मिक चिंतक, विद्वान व हिन्दू धर्म ज्ञाता स्व. श्री पर्वत सिंह फोजदार का मकान था और उन्हे जैसे ही सूचना मिली तो वह मन्दिर पर युवा सन्यासी से मिलने पहुंच गए व उन्हे अपने घर लिवा ले गए। तत्समय स्वामी जी के युवा सन्यासी स्वरूप को किसी भी नाम से नहीं जाना जाता था, यद्यपि वह पत्राचार मे अपना नाम भारती लिखते थे। कुछ माह पर्वत सिंह फोजदार के मकान मे निवास करने के बाद वह सीतासागर तालाब पर बांध के पास निवासरत महंत स्वर्गीय श्री मंगलदास जी के निवास पर रहै। स्वामी जी को अपनी साधना हेतु उपयुक्त स्थान की तलाश तो थी ही और विचरण करते हुए वह वनखण्डेश्वर मन्दिर, जो वनखण्डी महादेव नाम से आज भी विख्यात है, स्वामी जी वहां पहुंच गए। तत्समय वनखण्डी महादेव मन्दिर पूर्णतः एकांत मे था और वहां सामान्यतया आम जनता व दर्शनार्थी का आना-जाना व पूजा पाठ नहीं होता था। कहा जाता है कि यह वनखण्डी महादेव मन्दिर महाभारत काल का सिद्ध स्थान है और स्वामी जी महाराज को इसी स्थल पर एक रात एक दिव्य एवं भव्य छाया के दर्शन हुए थे, वार्तालाप भी हुआ था। जन श्रुति के अनुसार यदाकदा अभी भी रात्रि मे रूकने वाले सेवकों को उस दिव्य छाया के दर्शन हुए हैं। इसी स्थल के पास वर्तमान मे पीताम्बरा माई की मूर्ति बिराजमान है। इसी सन्दर्भ मे मैं यहां दिनांक 05 मार्च 2001 के पंजाब केसरी अखबार मे प्रकाशित सुल्तान सिंह हरसाना के एक लेख का उल्लेख करना चाहूंगा। उस लेख के अनुसार महाभारत, श्रीमद्भागवत, विष्णुपुराण, वायुपुराण और हरिवंशपुराण मे इतिहास सम्बन्धी प्रसंगों व भोगोलिक स्थिति के अनुसार यमुना नदी के निकट चम्बल नदी के ऊपर का भू-भाग सम्राट सरसेन का था और उनकी एक पुत्री का नाम पृथा था। उन्होने पुत्री पृथा को अपने निःसंतान मित्र राजा कुंतीभोज को गोद दे दिया था और राजा कुंतीभोज के द्वारा गोद ली गई, पाली-पोसी गई पुत्री का नाम कुंती हो गया। राजा कुंतीभोज का राज्य चम्बल नदी के दक्षिण मे था जो कुंतलपुरी के नाम से जाना जाता था तथा उनका राज्य दंत दुर्ग (दतिया) तक था। (दतिया को दंत वक्त्रेश्वर की नगरी कहा जाता है) इससे इतना तो अवश्य स्पष्ट होता है कि दतिया स्थित मढ़िया के महादेव मन्दिर और पीताम्बरा पीठ पर स्थित भगवान शिव का वनखण्डेश्वर मन्दिर, ये महाभारत काल से भी पूर्व के प्राचीनतम मन्दिर हैं। तत्समय पीताम्बरा माई देवी का इस स्थल पर नामोनिशान भी नहीं था। वर्तमान मे जहां अभी पीताम्बरा माई का गर्भगृह है, इसी स्थल के पास एक खण्डहर के रूप मे झोपड़ीनुमा कमरा था और प्रारम्भकाल मे स्वामी जी महाराज के लिए उनके भक्तों ने वह कमरा साफ सुथरा कराया था। वनखण्डी महादेव मन्दिर पर रहते हुए स्वामी जी को यह आभास हुआ कि यही स्थल उनकी साधना के लिए उपयुक्त है। इस स्थल पर रहते हुए स्वामी जी महाराज का धौलपुर भी आना-जाना बना रहता था क्योंकि उनके अनेकों भक्त धौलपुर मे भी थे, वहां के जेलर ठाकुर नारायण सिंह उनके अभिन्न भक्त थे। स्वामी जी महाराज के संरक्षण मे वहां पाठशालाएं भी संचालित थी।
अब मै पीताम्बरा माई मूर्ति की स्थापना के उन ऐतहासिक पन्नों को खोलने का प्रयास करता हूं जो अभी तक बन्द थे और आम जनमानस की जानकारी से अनछुए हैं तथा इसकी जानकारी मुझे स्वर्गीय श्री शिवचरण दीक्षित के नाती श्री शंकर प्रसाद दीक्षित ने प्रमाण सहित व स्वामी जी महाराज के पत्राचार को दिखाते हुए दी है। वनखण्डी महादेव मन्दिर पर स्वामी जी महाराज के निवास के प्रारम्भकाल मे दतिया के अनेकों प्रबुद्ध नागरिकों का आना-जाना होने लगा था और उन्ही मे एक नाम दतिया के मूलतः निवासी श्री शिवचरण दीक्षित जी का है। स्वामी जी महाराज ने अपने भक्तों के समक्ष यह इच्छा व्यक्त की थी कि इस स्थल पर बगुलामुखी पीताम्बरा देवी की मूर्ति की स्थापना होना चाहिए। अतः यह तय हुआ कि मूर्ति जयपुर मे निर्मित कराई जाए। स्वामी जी महाराज ने दिनांक 15 जनवरी 1935 को एक पत्र धौलपुर से श्री शिवचरण जी दीक्षित को पोस्टकार्ड पर दतिया लिख भेजा था जिसमे यह उल्लेख था कि मूर्ति मय सिंह के पचŸार रूपए मे आ जाएगी, चार-पांच दिन मे मूर्ति का चित्र बना कर कारीगर भेजेगा, शिवरात्रि तक मूर्ति तैयार हो जाएगी और दीक्षित जी को समस्त तैयारी करने का निर्देश भी दिया था। इस कार्य मे आगरा के भवानी शंकर शर्मा का सहयोग लिया गया था और इस सन्दर्भ मे स्वामी जी का पत्र दिनांक 08 फरबरी 1935, जो उन्होने धौलपुर से शिवचरण जी दीक्षित को पोस्टकार्ड पर भेजा था, संभवतः भवानी शंकर शर्मा मूर्तियां बनावाने मे मध्यस्थता का काम करते थे। तत्पश्चात भवानी शंकर शर्मा ने एक पत्र दिनांक 23 फरबरी 1935 को धौलपुर के पण्डित बस्वानन्द जी को भेजा था जिसमे उल्लेख किया गया था कि श्री देवी का चित्र बेरिंग मिला है जिसके लिए उन्हे दो पैसे देना पड़े हैं और उन्होने मूर्ति बनावने हेतु जयपुर पत्र व्यवहार प्रारम्भ कर दिया है तथा दतिया से अभी तक रूपए नहीं मिलने की सूचना के साथ यह भी लिखा कि रूपए मिलने पर वह जयपुर जाएंगे। उस जमाने मे एक-एक रूपए व पैसे की क्या कीमत थी, इसका अनुमान इससे ही लगाया जा सकता है कि पीताम्बरा माई की मूर्ति की निछावर पच्चŸार रूपए के लिए भी राशि एकत्र होने की समस्या रही होगी। तत्पश्चात श्री दीक्षित जी ने चालीस रूपए मनीऑर्डर से भवानी शंकर शर्मा को भेजे थे जो उन्हे दिनांक 04 मार्च 1935 को प्राप्त हो गए थे, प्राप्ति की रसीद शंकर दीक्षित जी ने मुझे दिखाई है। दिनांक 22 मार्च 1935 को स्वामी जी महाराज ने धौलपुर से पोस्टकार्ड पर दीक्षित जी को दतिया पत्र भेजते हुए लिखा था कि ठीक समय पर मूर्ति देने हेतु कारीगर को लिख दिया है व चैत्र की अमावस्या तक मूर्ति तैयार हो जाना चाहिए। इस पत्र मे आगे उन्होने यह भी लिखा था कि 4-5 रोज के लिए पाठशाला की व्यवस्था देखने के लिए वह बाड़ी जा रहै हैं। जयपुर मे पीताम्बरा माई की मूर्ति बनने का काम जारी रहा और दिनांक 29 मार्च 1935 को भवानी शंकर शर्मा ने एक पत्र दीक्षित जी को भेजा था कि कृपया बताएं कि श्री देवी जी की साड़ी व नेत्रों मे रंग लगा दिया जावे ? इस पत्र मे उन्होने शेष 35 रूपए भी भेजने की मांग की थी। तत्पश्चात स्वामी जी महाराज ने धौलपुर से पोस्टकार्ड पर दीक्षित को पत्र भेजते हुए सूचित किया था कि दतिया के समाचारों से अवगत हुए और अक्षय तृतीया का मुहूर्त अच्छा होगा व योग्य समय पर वह उपस्थित हो जाएंगे। पीताम्बरा माई की मूर्ति दिनांक 07 मई 1935 को दतिया मे प्राप्त हो चुकी थी।
पीताम्बरा माई की मूर्ति की स्थापना कब हुई, इस सन्दर्भ मे मुझे जो अभिलेख देखने को मिले, उनका प्रस्तुत करना भी आवश्यक है। श्री शंकर दीक्षित के पास एक चित्र है जिसके अनुसार विक्रम संवत 1992 (सन् 1935) के ज्येष्ठ माह कृष्णपक्ष की पंचमी को पीताम्बरा माई की मूर्ति की स्थापना हुई थी व उनके अनुसार स्वामी जी महाराज के निर्देशन मे पंण्डित ज्वाला प्रसाद दुबे, पंण्डित गोटेश्वर दीक्षित आदि पंण्डितों ने प्रांण प्रतिष्ठा मे भाग लिया था। इस तथ्य की पुष्टि पीताम्बरा पीठ से प्रकाशित पुस्तक ’’श्री स्वामीजीस्मृति ग्रंथ’’ मे पृष्ठ क्रमांक 05 पर स्वामी जी महाराज के परम भक्त व कृपापात्र प्रसिद्ध कवि दतिया के स्वर्गीय श्री वासुदेव जी गोस्वामी के लेख मे तथा पृष्ठ क्रमांक 217 पर दतिया के प्रसिद्ध साहित्यकार व शिक्षाविद स्व. श्री हरि मोहनलाल श्रीवास्तव केे लेख मे है। अब यहां प्रश्न यह उठता है कि पीताम्बरा माई की मूर्ति की स्थापना अर्थात उनका प्रकटीकरण और पीताम्बरा जयंती (माह बैसाख शुक्ल की अक्षय तृतीया) के दिन मे बिसंगति क्यों है ? इस सन्दर्भ मे मैने पीताम्बरा पीठ के आचार्य श्री श्रीराम जी पण्डा जी से चर्चा की तो उन्होने बताया कि निश्चित ही पीताम्बरा माई की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 1992 (सन् 1935) के ज्येष्ठ माह कृष्णपक्ष की पंचमी को ही हुई थी। तब प्रश्न उठता है कि माह बैसाख शुक्ल की अक्षय तृतीया को पीताम्बरा जयंती क्यों मनाई जाती है ? इस पर आचार्य श्री श्रीराम जी पण्डा जी बताया कि ब्रम्हलीन श्री स्वामी जी महाराज के समय से ही उन्होने यह परम्परा निर्धारित की थी कि श्री परशुराम जयंती, पीताम्बरा माई जयंती व श्री शंकराचार्य जयंती एक साथ, एक-एक दिन के अन्तर से पीताम्बरा पीठ स्थल पर समारोह पूर्वक मनाए जाने की परम्परा है।
ज्ञातव्य है कि दतिया की नगरी सन्त महात्माओं की खान रही है। एक समय था जब पीताम्बरा पीठ के श्री स्वामी जी महाराज, गहोई-वाटिका मे श्री भावानन्द जी महाराज, चेतनदास आश्रम के श्री चेतनदास जी महराज, कर्णसागर तालाब के पास महादेवानन्द जी महराज, कटेरा वाले स्वामी जी, चिरईटोर की माता मन्दिर के पास फक्कड़ बाबा, महन्त मंगलदास जी और अनामय आश्रम के स्वामी जी आदि सन्त महात्माओं से सम्पूर्ण दतिया अपनी भव्य आध्यात्मिक संस्कृति से अलौकिक थी एवं तत्समय दतियावासी नागरिक प्रत्येक सुवह-शाम अपनी-अपनी अस्था के अनुसार इन सन्त महात्माओं के साथ सत्संग करते थे। आज स्थिति यह है कि दतिया ऐसे ही सन्त महात्मा के लिए लालायित है। मै सन् 1963 से 1966 तक पीताम्बरा पीठ मन्दिर से लगा हुआ जूनियर हाई स्कूल मे कक्षा छः से आठ तक विद्यार्थी रहा और जैसे ही स्कूल का इन्टरवल होता था तो दौड़ लगा कर स्वामी जी महाराज के चरण-कमल की ओर आ जाता था, उनके चरण दबाता था। जैसे ही इन्टरवल समाप्त होता तो स्वामी जी कक्षाओं मे जाने का निर्देश देते थे। स्वामी जी महाराज की स्मरण शक्ति इतनी तेज थी कि वह मेरे बड़े भाई स्वर्गीय श्री राम रतन जी तिवारी, मेरे पिता स्वर्गीय श्री विश्वनाथ जी तिवारी के सन्दर्भ मे व सम्पूर्ण परिवार सहित उनकी विद्वŸाा के बारे मे बताने लगते थे। पीताम्बरा पीठ के स्वामी जी महाराज के समय से ही इस पवित्र स्थल पर गीता जयंती समारोह पूर्वक मनाए जाने की परम्परा रही है और अनेकों बार मेरे बड़े भ्राता स्वर्गीय श्री राम रतन जी तिवारी के उद्बोधन स्वामी जी महाराज के समक्ष होते रहै हैं। इस कार्यक्रम मे अनेकों बार हाई कोर्ट के न्यायाधीशगंण के भी उद्बोधन हुए हैं। स्वामी जी महाराज कहते थे कि वस्तुतः पीताम्बरा माई न्याय की देवी हैं और न्याय विभाग से सम्बन्धित लोगों की सहायता करती हैं। जो व्यक्ति अपने जीवन मे न्यायपूर्ण हैं और बिना किसी राग द्वेष के न्याय प्रक्रिया से सम्बन्धित हैं, उन पर पीताम्बरा माई की असीम क्रृपा होती है। मैने स्वयं अपने जीवन मे ऐसे अनेकों महानुभावों को पीताम्बरा पीठ मन्दिर मे जप व भजन करते देखा है जो बाद मे हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश नियुक्त हुए।
स्वामी जी महाराज सभी धर्मों के प्रति सकारात्मक व समान भाव रखते थे। इस सन्दर्भ मे दो प्रसंग का उल्लेख करना आवश्यक है। पीताम्बरा पीठ से प्रकाशित पुस्तक ’’श्री स्वामीजीस्मृति ग्रंथ’’ मे पृष्ठ क्रमांक 23 पर पीठ के पूर्व मन्त्री स्वर्गीय श्री सूर्यदेव जी शर्मा ने उल्लेख किया है कि वह हिन्दू महासभा का नेतृत्व कर रहै थे और इसी बेनर के तले वह दतिया मे एक जन सभा का आयोजन सन् 1948 की जनवरी मे करना चाहते थे। परन्तु सरकारी भयवश के कारण उन्हे जनसभा की अध्यक्षता करने हेतु कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिल पा रहा था। अंततः उन्होने अपनी समस्या स्वामी जी महाराज के समक्ष प्रस्तुत की। इस पर स्वामी जी महाराज ने जवाब दिया था कि ’’मैं तो सन्यासी हूं, सन्यासी का कोई धर्म नहीं होता लेकिन हिन्दुओं की रोटी जरूर खाता हूं।’’ अतः स्वामी जी महाराज ने श्री सूर्यदेव जी शर्मा द्वारा आयोजित हिन्दू महासभा की जनसभा मे अध्यक्षता की थी और अपार जन समूह एकत्र हुआ था। दूसरा प्रसंग है झांसी निवासी मुन्ना खां का। मुन्ना खां को स्वामी जी महाराज के दर्शनों की बड़ी लालसा थी लेकिन मुसलमान होने के कारण वह पीताम्बरा पीठ मन्दिर मे प्रवेश हेतु शंकित था। यह प्रसंग भी ’’श्री स्वामीजीस्मृति ग्रंथ’’ मे पृष्ठ क्रमांक 250 पर उल्लिखित है जो उसने स्वयं लिखा है। मुन्ना खां ने झांसी के पण्डित विश्वनाथ शर्मा से इस हेतु निवेदन किया तो शर्मा जी ने उससे कहा कि वह मन्दिर जाए और स्वामी जी महाराज की इच्छा होगी तो उसे जरूर स्वीकार करेंगे। मुन्ना खां पीताम्बरा पीठ मन्दिर के द्वार पर आता रहा लेकिन उसे यह कहते हुए लोग रोक देते थे कि वह पजामा पहन कर अन्दर नहीं जा सकता। जब स्वामी जी महाराज को उसकी खबर लगी तो उन्होने स्वयं निर्देश देते हुए मुन्ना खां को अपने पास बुलाया। तब मुन्ना खां ने स्वामी जी महाराज के चरण दबाए, उनकी सेवा की। स्वामी जी महाराज ने मुन्ना खां से कहा कि ’’तुम्हे भी हमने अपने सेवकों मे ले लिया है। तुम्हारे लिए यहां के दरवाजे हमेशा खुले रहेंगे।’’ इसके बाद मुन्ना खां प्रतिदिन पीताम्बरा पीठ मन्दिर स्वामी जी महाराज की सेवा मे आने लगे थे।
स्वामी जी महाराज का जन्म कब हुआ था, यह विषय भी भक्तों मे उत्सुकता का रहा है। इस सन्दर्भ मे भी ’’श्री स्वामीजीस्मृति ग्रंथ’’ के पृष्ठ क्रमांक 331 पर श्री वासुदेव जी गोस्वामी ने कहा है कि जब पीताम्बरा पीठ न्यास के पंजीकरण के समय दिनांक 17 जनवरी 1978 को एक शपथपत्र स्वामी जी ने निष्पादित किया था और उसमे अपनी आयु 79 वर्ष बताई थी। उनके आकलन के अनुसार स्वामी जी का जन्म चैत्र शुक्ल पंचमी संवत 1955 तदनुसार 27 मार्च सन् 1898 का दिन स्वामी जी महाराज का जन्म दिवस माना जा सकता है। इसकी पुष्टि इसी ग्रंथ के पृष्ठ क्रमांक 334 पर श्री रामकृष्ण शर्मा ने भी की है। स्वामी जी अपने अन्तिम समय मे बीमार हो गए थे और भक्तगंण ने उनके इलाज मे कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उनका इलाज दिल्ली व मुम्बई मे भी हुआ। जब चिकित्सा का कोई लाभ नहीं हो पा रहा था तो कहा जाता है कि स्वामी जी महाराज ने दिनांक 02 जून 1979 को अपने प्रांण ब्रम्हरन्ध्र मे रोक लिए थे और दिनांक 03 जून 1979 को भक्तगंण उनके भौतिक शरीर को हवाई जहाज से दतिया ले आए थे। इस प्रकार स्वामी जी महाराज का देहावसान दिनांक 03 जून 1979 को होने की मान्यता है। पूर्व नियोजित दिनांक 4 मई 2022 का अभूतपूर्व दिन एक इतिहास बन कर सम्पन्न होने जा रहा है। श्री पीताम्बरा माई जयंती के रूप मे बहुत विशाल शोभा यात्रा के आयोजन से पहली बार नगर के मुख्य मार्ग से होते हुए एक भव्य रथ पर श्री पीताम्बरा माई अपने नगर भ्रमण पर निकलेंगी। नगर की व्यवस्था देखेंगी, अपने भक्त पुत्रों की खुशी व उल्लास देखंेगीं। पीताम्बरा पीठ से जुड़े सभी नागरिक इस भव्य कार्यक्रम के लिए बहुत अधिक उत्साहित हैं और नवीन रूप मे प्रारम्भ होने वाले इस विशाल कार्यक्रम की शोभा-यात्रा का श्रेय मुख्यतः दतिया के लोकप्रिय विधायक व मध्य प्रदेश के गृह-मन्त्री श्री डॉ. नरोŸाम मिश्राा को है जिनके अथक प्रयास से यह कार्यक्रम सम्पन्न होने जा रहा है।
तिवारी लेन, छोटा बाजार
दतिया (म.प्र.)
फोन-07522-238333, 9425116738, 6267533320
email- rajendra.rt.tiwari@gmail.com
नोट:- लेखक एक पूर्व शासकीय एवं वरिष्ठ अभिभाषक व राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक आध्यात्मिक विषयों के चिन्तक व समालोचक हैं। तिवारी जी की दो पुस्तकें, ’’मृत्यु कैसे होते है ? फिर क्या होता है ?’’ तथा ’’आनंद की राह’’ प्रभात प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हो चुकीं हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें