नयी दिल्ली,16 जुलाई, सहकारिता एवं गृह मंत्री अमित शाह ने शनिवार को कहा कि प्रकृति और भाग्य पर आधारित भारतीय कृषि को कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों ने परिश्रम के आधार पर बदल दिया है । श्री शाह ने यहां कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों के राष्ट्रीय सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा कि नौ दशक पहले जब कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों की शुरुआत हुई तब देश की कृषि प्रकृति और भाग्य पर आधारित थी, उसे भाग्य से परिश्रम के आधार पर परिवर्तित करने का काम कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों ने किया। उन्होंने कहा कि अनेक बैंकों ने नए-नए सुधार किये मगर वे सुधार बैंकों तक ही सीमित रह गए, उनका लाभ पूरे सेक्टर को नहीं मिला। उन्होंने कहा कि कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) सिर्फ बैंकिंग करने की दृष्टि से काम न करें बल्कि बैंक जिस उद्देश्यों से उनकी प्रतिपूर्ति की दिशा में काम करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए। बैंक सिर्फ बैंकिंग तक सीमित न रहें...खेती के विस्तार, उपज बढ़ाने, कृषि को सुगम एवं किसान को समृद्ध बनाने के लिए गाँव-गाँव में किसानों से संवाद कर उन्हें जागरुक बनाना भी उनकी जिम्मेदारी है। नाबार्ड के उदेश्यों की पूर्ति तभी हो सकती है, जब एक-एक पाई जो उपलब्ध है, वह ग्रामीण विकास और कृषि के क्षेत्र में ही फाइनेंस और रीफाइनेंस हो और यह तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक कृषि क्षेत्र के अंदर इन्फ्रास्ट्रक्चर और माइक्रो-इरिगेशन को हम बढ़ावा नहीं देते। उन्होंने कहा कि आजादी के बाद 70 साल में 64 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य बनी, लेकिन प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत पिछले आठ साल में 64 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में वृद्धि हुई, कृषि निर्यात पहली बार 50 अरब डॉलर को पार कर गया है। सहकारिता मंत्री ने कहा कि सहकारिता का आयाम कृषि विकास के लिए बहुत अहम है। कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों का इतिहास भारत में लगभग नौ दशक पुराना है। कृषि ऋण के दो स्तंभ हैं, लघुकालीन और दीर्घकालीन। 1920 से पहले इस देश का कृषि क्षेत्र पूर्णतया प्रकृति पर खेती पर आधारित था, जब बारिश आती थी तो अच्छी फसल होती थी। 1920 के दशक से किसान को दीर्घकालीन ऋण देने की शुरुआत हुई जिससे अपने खेत में कृषि के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने के किसान के स्वप्न सिद्ध होना शुरू हुए। देश की कृषि को भाग्य के आधार से परिश्रम के आधार पर परिवर्तित करने का काम केवल और केवल कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों ने किया। उस वक़्त कोऑपरेटिव सेक्टर के इस आयाम ने किसान को आत्मनिर्भर करने की दिशा में बहुत बड़ी शुरुआत की। उन्होंने कहा कि अगर पिछले 90 साल की यात्रा को देखें तो पता चलेगा कि कृषि और कृषि व्यवस्था के अनुरूप हम इसे नीचे तक नहीं पहुंचा पाए हैं। उन्होंने कहा कि बहुत सारी बाधाएं हैं लेकिन इन्हें पार करके दीर्घकालीन वित्त को जब तक नहीं बढ़ाते तब तक कृषि विकास असंभव है। कई बड़े राज्य ऐसे हैं, जहां बैंक चरमरा गए हैं और इस पर भी विचार करने की ज़रूरत है।
श्री शाह ने कहा, “ कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों का काम सिर्फ़ धन उपलब्ध कराना नहीं है, बल्कि गतिविधियों का विस्तार करना है। हमें काम के विस्तार में जो कुछ भी बाधाएं हैं, उनके रास्ते निकालने पड़ेंगे और तब जाकर हम कृषि विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे। ” उन्होंने कहा कि हम सिर्फ़ बैंक न चलाएं बल्कि बैंक बनाने के उद्देश्यों की पूर्ति की दिशा में काम करने का भी प्रयास करें। दीर्घावधि वित्तीय सहायता के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सहकारिता के इस क्षेत्र की स्थापना की गई। नई-नई कोऑपरेटिव सोसायटीज़ बनाकर हमें किसान को मध्यम और लंबी अवधि के ऋण देने होंगे। केन्द्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री ने कहा कि ऋण वसूली की दिशा में भी हमें तेज़ी लानी होगी। सेवाओं का भी विस्तार करना होगा, अपने अपने कार्य क्षेत्रों में कार्यशालाएं, संवाद करके किसानों में सिंचाई वाले क्षेत्र का प्रतिशत, उपज, उत्पादन बढ़ाने, किसान को समृद्ध बनाने और जागरुकता लाने के लिए परिसंवाद करने होंगे। उन्होंने कहा कि सहकारिता के क्षेत्र में किसी संस्थान का पद संभालना पर्याप्त नहीं है बल्कि जिस उद्देश्य के लिए 1924 से ये सेवाएं शुरू हुई हैं, उनकी प्राप्ति के लिए अपने कार्यकाल में क्या किया जा सकता है, इसकी चिंता करना ज़रूरी है। उन्होंने कहा कि तीन लाख से ज्यादा ट्रैक्टरों को इन बैंकों ने फाइनेंस किया है, लेकिन देश में आठ करोड़ से ज्यादा ट्रैक्टर हैं। तेरह करोड़ किसानों में से लगभग 5.2 लाख किसानों को मध्यम और दीर्घकालीन वित्तीय सहायता दी है। कई नए सुधार बैंकों ने किए है जो स्वागत योग्य हैं। श्री शाह ने कहा कि विशेषकर एग्रीकल्चर फाइनेंस में, चाहे अल्प अवधि हो या दीर्घ अवधि, एक दृष्टि से देश लकवा ग्रस्त हो गया है। कई जगह अच्छे काम हो रहे हैं और कई राज्यों में बहुत बिखर गई है। हमें इसे पुनर्जीवित करना होगा और जो किसान लाचारी से अपर्याप्तता का भुक्तभोगी बना है, उसे सहकारिता क्षेत्र को अपनी उंगली पकड़ा कर आर्थिक विकास के रास्ते पर चलाने का काम करना है। पूंजी की कमी नहीं है, फाइनेंस करने की हमारी व्यवस्था और हमारे इंफ्रास्ट्रक्चर चरमरा गए हैं, उन्हें पुनर्जीवित करना पड़ेगा और हर राज्य के बैंक को अपने राज्य के ऐसे क्षेत्र को चिह्नित करना पड़ेगा। उन्होंने कहा,“ 25 साल पहले हमारे यहां लॉन्ग टर्म फाइनेंस एग्रीकल्चर फाइनेंस का 50 प्रतिशत था और 25 साल बाद यह हिस्सा घटकर 25 प्रतिशत हो गया है, हमें इसकी चिंता करनी चाहिए। असम, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओडिशा में पूरा हमारा ढांचा चरमरा गया है। वर्तमान में सिर्फ 13 राज्यों में कृषि और ग्रामीण विकास बैंक अपेक्षाकृत दृष्टि से चल रहे हैं और यह सरकार की अपेक्षा के हिसाब से चल रहे हैं।
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