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प्रति सप्ताह देश की करोड़ों महिलाएं और किशोरियां माहवारी की प्रक्रिया से गुज़रती हैं. हालांकि यह एक प्राकृतिक चक्र है, लेकिन इस दौरान इनमें से कइयों के लिए यह बहुत मुश्किल समय होता है. शहरों में तो इसे लेकर काफी जागरूकता आ चुकी है लेकिन तमाम अभियानों के बावजूद आज भी गांवों में माहवारी को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं. ग्रामीण महिलाएं तक इस विषय पर खुलकर बात करने से झिझकती हैं. इस विषय को लेकर गांव में बातचीत करना सख्त मना होता है. आलम यह है कि आज भी गांव की किशोरियों और महिलाएं माहवारी के दौरान एक ही कपड़े का बार-बार इस्तेमाल करती हैं. इस दौरान वे साफ-सफाई का ध्यान भी नहीं रख पाती हैं. यही कारण है कि उनमें अक्सर कई तरह की गंभीर बीमारियों का खतरा बना रहता है. मध्यप्रदेश के लगभग सभी गांव में किशोरियों को माहवारी की बात छुपानी पड़ती है. सिस्टम की उदासीनता के चलते महिलाओं में माहवारी को लेकर जागरूकता की कमी है, वहीं पैड का इस्तेमाल न करने से उससे होने वाली गंभीर बीमारियों से भी वह अनजान हैं. योजना के बावजूद हरदा जिले के आंगनबाड़ी केंद्रों पर सेनेटरी पैड नहीं मिलता है. फिर भी गांवों की आदिवासी और अनुसूचित जाति की किशोरियां जब शहर के आवासीय विद्यालय में पढ़ने जाती हैं, तो वहां उन्हें आपस में इस विषय पर बात करने का मौका मिलता है. वहां वह माहवारी के दौरान वे सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं, तब उन्हें एहसास होता है कि माहवारी के दौरान यह कितना सुरक्षित है. जब यही किशोरियां छुट्टियों के दिन गांव वापस आकर इस विषय पर बात करने की कोशिश करती हैं तो घर की बड़ी उम्र की महिलाएं उन्हें डांट कर चुप करा देती हैं.
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हालांकि अब किशोरियां इस मुद्दे पर बात करना चाहती हैं. इन्हीं में से एक किशोरी 17 वर्षीय सोनम खातरकर है, जो हरदा जिले से करीब 25 किलोमीटर दूर अनुसूचित जाति बहुल सिंधखेड़ा गांव में रहती है. सोनम बचपन से ही जिज्ञासु रही है. मजदूर पिता कमल खातरकर की दूसरी शादी की वजह से बचपन से ही उसने घर पर अभाव और कलह देखा है. जिसने उसे मजबूत और तर्कशील बना दिया है. सोनम बताती है कि उसने बचपन में अपनी मौसी को माहवारी के दौरान साफ़ सफाई का ध्यान न रखने का खामियाजा भुगतते देखा था. जिन्हें इसकी वजह से बच्चेदानी में संक्रमण और फिर जटिल ऑपरेशन की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा था. सोनम कहती है कि मासिक धर्म एक सामान्य प्रक्रिया है, इसमें बेवजह छुआछूत और भ्रांतियां फैलाई जाती हैं. इस विषय पर किशोरियों को चुप्पी तोड़कर खुलकर बात करनी चाहिए. उसने कम उम्र में अपनी एक सहेली को उसके भाई से सिर्फ इस वजह से पिटते देखा है कि उसके कपड़े का दाग बाहर वालों ने देख लिया था. सोनम कहती है कि 'गांव में आज भी इस्तेमाल किए कपड़ों को अंधेरे में छिपाकर सुखाया जाता है और फिर उसका दोबारा उपयोग किया जाता है'. सोनम अपने गांव में इसे लेकर बेझिझक बात करने लगी है. हालांकि उसकी मां नरगदी बाई और ग्रामीण उसे इसी बात को लेकर डांट लगाते रहते हैं. ऊंची जाति की लड़कियां तो उससे बात भी नहीं करती हैं. सोनम कहती है कि माहवारी के दौरान तकलीफ में भी किशोरियों को आठ किमी पैदल चलकर स्कूल जाना पड़ता है. लेकिन किसी को इसकी परवाह नहीं है. वहीं आंगनबाड़ी केंद्रों पर 5 रुपए में सेनेटरी पैड मिलने का सुना तो है, लेकिन कभी मिलते नहीं देखा है.
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दरअसल अशिक्षा, जागरूकता की कमी और आर्थिक कारणों से इन क्षेत्रों की महिलाएं पैड्स का इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं. सोनम अपने और आसपास के गांवों की किशोरियों को इकट्ठा कर उनके साथ माहवारी पर चर्चा करने का प्रयास करती रहती है. बावजूद इसके सोनम के गांव की ही 17 साल की ज्योति लोचकर इस विषय पर आज भी बात करने से झिझकती है. ज्योति, सोनम के ही समुदाय से आती है, परंतु वह इसे बिल्कुल निजी मसला मानती है. ज्योति कहती है कि ''मां इस विषय पर बात करने से मना करती हैं'. वहीं उसकी मां ममता लोचकर कहती हैं कि 'सदियों से हम लोगों ने यही देखा है, कभी अपने परिवार के बड़े बुजुर्गों से इस बात को लेकर बहस नहीं की है.' वह कहती हैं कि 'यह एक बीमारी है, इसमें गंदा खून निकलता है और लड़कियां 5 दिन के लिए अपवित्र हो जाती हैं'. वहीं दुर्गाडा गांव की मुस्कान धनोरे बताती है कि 'पिछले साल तक हमारे परिवार में माहवारी पर बात करने की मनाही थी और हम बहनें कपड़ों का ही इस्तेमाल करते थे. हॉस्टल में जाने के बाद हमने पैड्स के बारे में जाना.' मुस्कान बीए तृतीय वर्ष की छात्रा हैं. अनुसूचित जाति और मजदूर परिवार की होने के बावजूद मुस्कान के परिवार में सभी भाई बहन पढ़े-लिखे हैं. वह कहती है कि 'बचपन में मां कहती थी कि माहवारी के दौरान अगर बहनें अपने हाथ से कोई चीज भाई या परिवार के किसी पुरुष सदस्य को खिला दे, तो उस व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ जाएगा'. इस बात को लेकर हम बहनें इतने भयभीत रहते थे कि इस दौरान हम एकदम अलग-थलग रहते थे, क्योंकि हमें अपनी रक्षा के लिए पुरुष सदस्य पर ही निर्भर रहना है'. मुस्कान बताती है कि इतने सालों में इतना ही परिवर्तन आया कि अब हमलोग अपनी मां से माहवारी के मुद्दे पर बात कर सकते हैं. हाइजीन का ध्यान रख सकते हैं. समझ लीजिए कि अभी इस मुद्दे पर गांव में केवल 20 फीसदी ही जागरूकता आई है.
रहटगांव की 55 वर्षीय पुष्पाबाई बताती है कि 'हमारे परिवार में आज भी लड़कियों को मासिक धर्म के दौरान टमाटर और प्याज काटने तक की मनाही है. यहां तक कि इस दौरान वह रसोई के बर्तन भी धो नहीं सकतीं है. जब उनसे यह पूछा गया कि यह इसलिए भी हो सकता है ताकि लड़कियों को सर्दी न हो जाए और खांसी आने पर ज्यादा खून निकलने का खतरा रहता है, तो उन्होंने कहा कि वे इस तर्क से अंजान हैं. वहीं एक और बुजुर्ग महिला यशोदा बाई ने बताया कि इस दौरान अचार छूने तक की मनाही है क्योंकि इससे अचार खराब हो जाता है. और उसे फेंकना पड़ता है'. वहीं किशोरियां इस अवैज्ञानिक तर्क को नकारते हुए कहती हैं कि अगली बार माहवारी के दौरान वह अचार छूकर देखेंगी कि वह खराब होता भी है या नहीं? माहवारी जैसे मुद्दे पर न केवल लड़कियां बल्कि अब लड़के भी बात करने लगे हैं. हरदा शहर का रहने वाला 22 वर्षीय गोंड जनजाति के युवा अनिल सरयाम बताते हैं कि 'हमारी दो बहने हैं. परिवार में उन 5 दिनों में बहनों को अलग कमरे में रखा जाता है. बचपन में इस बात को जानने की बहुत उत्सुकता थी, परंतु झिझक भी थी. अब बहनों से पूछ लेते हैं. वह कहते हैं कि बड़े भाई, मां या पिता से कभी इस संबंध में कोई बात नहीं की'. मां कृपा बाई आज भी मासिक धर्म की बात पूछने पर कहती हैं कि 'यह सब गंदी बातें हैं. लड़कों को इस पर ध्यान नहीं देना चाहिए'.
अनिल कहते हैं कि अब तो मेरी भांजी हमारे परिवार के साथ रहती है और मैं मां से छुपाकर उसके लिए सेनेटरी पैड खरीदकर लाता हूं'. वहीं झुंड गांव के एक युवा आशीष सरवरे कहते हैं कि 'आज भी हमारे घर पर महिलाओं और किशोरियों को मासिक धर्म के दौरान रसोई और पूजा घर में जाने की मनाही है. हालांकि मां सरिता सरवरे आंगनबाड़ी सहायिका हैं, इसलिए हमारे घर पर इस विषय को लेकर खुलकर चर्चा होती रहती है'. वहीं सरिता सरवरे कहती हैं कि 'मप्र सरकार की उदिता योजना के तहत किशोरियों को 5 रुपए में सेनेटरी पैड बांटने का नियम है. परंतु जब हमारे पास ही स्टाक नहीं है, तो हम कहां से देंगे? पिछले एक साल से हमारे केंद्र में सेनेटरी पैड नहीं बंटा है. इस संबंध में मध्यप्रदेश महिला बाल विकास विभाग के संयुक्त संचालक सुरेश तोमर बताते हैं कि 'आंगनबाड़ी में पैसों का कलेक्शन करने में दिक्कत आ रही थी. दूसरी बात गांव में मज़दूरी करने वाले परिवारों की महिलाओं और किशोरियों के पास इतने पैसे नहीं होते हैं कि वे 5 रुपए में एक सेनेटरी पैड खरीद पाएं, इसलिए खरीदार नहीं मिलते हैं. यही कारण है कि अब आंगनबाड़ी केंद्रों में सेनेटरी पैड उपलब्ध नहीं है'. उन्होंने कहा कि 'शहरों के स्कूल-कॉलेजों में भी डिस्पेंसिंग मशीन लगाई गई थी. लेकिन वह भी सफल नहीं हो सका है.
सेनेटरी पैड के इस्तेमाल नहीं करने से होने वाले नुकसान के बारे में वरिष्ठ स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ शीला भंबल कहती हैं कि 'मासिक धर्म के दौरान महिलाओं में 70 फीसदी संक्रमण साफ-सफाई के उचित तरीके नहीं अपनाने से होता है क्योंकि माहवारी के दौरान जननांग मार्ग में हार्मोनल बदलाव आने से कुछ परिवर्तन होते हैं और पुराने कपड़ों का इस्तेमाल इस संक्रमण में कई गुना बढ़ा देती है. जननांगों की साफ-सफाई नहीं होने से महिलाओं में गर्भाशय ग्रीवा सर्विक्स कैंसर के मामले भी देखे जा रहे हैं और यह ह्यूमन पेपिलोमा वायरस से होता है. इन सब बीमारियों के इलाज में इतना खर्च आता है कि तब पैड की अहमियत समझ में आती है. डॉ भंबल सलाह देती हैं कि अगर महिलाएं सूती कपड़ा इस्तेमाल कर भी रही हैं तो उसे अच्छे से साफ कर कड़क धूप में सुखाना चाहिए या फिर उस पर गर्म आयरन चला देनी चाहिए, अन्यथा उन्हें चाहिए कि वह एक बार उपयोग में लाए गए कपड़े को डिस्पोज कर दें. बहरहाल, महावारी और उससे जुड़े विषय ऐसे मुद्दे हैं जिसपर अब भी गांव में फैली भ्रांतियों को दूर करने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है. यह केवल चर्चा का विषय नहीं है बल्कि महिलाओं और किशोरियों के स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा है. हालांकि सोनम खातरकर और मुस्कान धनोरे जैसी किशोरियों का इस दिशा में पहल सराहनीय है. इनके हौसले को बढ़ाने की ज़रूरत है. लेकिन माहवारी से जुड़ी भ्रांतियों को ख़त्म करने में सरकार और स्थानीय प्रशासन के साथ साथ जनप्रतिनिधियों और समाज की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि इसे नज़रअंदाज़ करने का अर्थ है देश की आधी आबादी के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना.
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रूबी सरकार
भोपाल, मप्र
यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2022 के अंतर्गत लिखी गई है.
(चरखा फीचर)
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