बिहार : आजकल सरकार रंगकर्मियों को चारण -भांट बनाने पर तुली है : हरिवंश - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 7 दिसंबर 2022

बिहार : आजकल सरकार रंगकर्मियों को चारण -भांट बनाने पर तुली है : हरिवंश

  • आजकल प्रोफेशलिज्म के अंदर खोल  के अंदर कॉमरसियलिज्म  को बढ़ाया  जा रहा है : अनिल अंशुमन
  • रंगकर्मियों को पढ़ाई -लिखाई  पर ध्यान देना चाहिए : आलोकधन्वा
  • 'हिंसा  के विरुद्ध संस्कृतिकर्मी' की ओर से ''नाटक आज कल'  विषय  पर  'पटना पुस्तक मेला'  में विमर्श किया गया

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पटना, 7  दिसंबर.  रंगकर्मियों-कलाक़ारों  के साझा  मंच  ' हिंसा  के विरुद्ध  संस्कृतिकर्मी'  की ओर से पटना पुस्तक मेला के 'नालंदा  सभागार' में नाटक  को लेकर विमर्श का आयोजन  किया गया. विमर्श का विषय  था ' आज कल नाटक '. विमर्श में पटना रंगमंच  के कलाकर , रंगकर्मी, सुधी दर्शक व सामाजिक  कार्यकर्ता मौजूद  थे . विषय  प्रवेश कराते  हुए वरिष्ठ  रंगकर्मी अनिल अंशुमन ने कहा  " रंगमंच  में रंग -बिरंगे कर्म सबसे अधिक  पल्लवित -पुष्पित हो रहा है. नाटक को भारत में भारतेन्दु  हरिशचंद्र  तो वैश्विक  स्तर पर ब्रेख्त ने सामाजिक  सरोकार  से जोड़ा. अस्सी से नब्बे दशक  के अंदर काफी  नुक्कड़ नाटक  हुआ. इस विधा पर हो हल्ला करने का आरोप  लगा. नुककड़ नाटक  पर प्रचार  का आरोप लगाते थे वहीँ लोग आज सबसे बढ़कर  प्रोजेक्ट के नाम  ओर नाटक  कर रहे हैं  बाजार  और कौरपोरेट ने इसका इस्तेमाल किया है. अनुदान  के मामले  में यह सोचना  होगा कि जो जिसका ख़ाता  है उसका गाता है.   प्रोफेशलिज्म के अंदर खोल  के अंदर कॉमरसियालिज्म  को बढ़ाया  जा रहा है .   दर्शक टिकट कटा कर नाटक  क्यों देखते  हैं.  एन. एस. डी  जाने वाले फ़िल्म की ओर भागता  है. फिर अनुदान  का सवाल है. नाटक  यदि  सामजिक  जरूरत है तो उसे हमें फिर से समझना  होगा. " विषय  को आगे बढ़ाते  हुए  ऐनाक्षी  डे  विश्वास  ने कहा  " आजकल  डायरेक्टर  एक्टर को पपेट समझते  हैं. नाटक  नाटक  कम चित्रहार  की तरह नजर आता  है. थिएटर  डिजिटल बन गया है. जल्दबाजी  में नाटक  होता है समय दिया नहीं  जाता. नाटक  की समीक्षा  नहीं  होती. आप -अच्छा  और खराब काम हो सकता है. लेकिन समीक्षा  नहीं  होती. ग्रान्ट के चलते  आज अच्छा  नाटक  नहीं  हो रहा है . ग्रान्ट के नाटक  का पैसा  अभिनेताओं  को नहीं  दिया जाता. हमलोगों को प्रोसेनियम  थिएटर  से अलग हटकर पेड़, पौधे, पर्यावरण इन सबका  रंगमंच  के लिए इस्तेमाल करना होगा. संसाधन  को कम करके सहज तरीके  से रखना  होगा  जिससे रिक्शावाला के साथ -साथ  हाई  सोसायटी  के लोग भी देख  सकें.नाटक  को सिर्फ मनोरंजन ही नहीं  शिक्षा  से जोड़ना होगा.  उसे स्कूल कौलेज  से जोड़ा जाये.मैंने पटनावीमेंस  कौलेज  में इसे करने की  थोड़ी कोशिश  करनी  होगी."


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राष्ट्रीय नाटय विद्यालय से प्रशिक्षित रंगकर्मी रणधीर    कुमार  ने कहा " समय के साथ चीजें  बदलती  हैं उसे समझना  होगा. परम्परा  में भास, भवभूति  के बाद सीधे  भारतेन्दु  की बात करते हैं. कोई यह सवाल  नहीं  पूछता  कि बीच  का पीरियड  कहाँ गया. पूरी  की पूरी  मानसिकता में बड़ा परिवर्तन हुआ है. गांधी  जी ने कहा था कि विदेशी  कपड़ो का बहिष्कार  हो गया क्या उसे आज  हम लागू  कर सकते हैं?. एक जमाने में संगीत  नाटक अकादमी  थिएटर  ऑफ  रुट्स लेकर आई और उसने बहुत  अच्छा  काम किया. कोई एक कहानी  बता दें जिसमें जनसरोकार  की बात न होती है. चाहें  रेणु करें या नागार्जुन को करें. आप एक रिक्शाआवाला वाले को रित्विक घटक, सत्यजीत  राय  की फिल्मो में बिठा  दें तो वह क्या करेगा.  नाटक  अंततः  विजुअल माध्यम  है. हम एकपक्षीय  होकर  चीजों  को देखते  हैं.  परफ़ार्मिंग  आर्ट में थिएटर  में काफी दिक्क़त है. " वीरेंद्र कुमार  ने अपने संबोधन  में कहा " मैं 30-35 सालों  से नुककड़ नाटक  आंदोलन  से जुड़ा हुआ हूं.  मैंने हजारों लोगों के समय से नुककड़ नाटक  सिखाया  है.  जिनको मेरा ज्यादा लगाव  मंच  नाटक  से नहीं  रहा है मैं प्रशिक्षित रंगकर्मी नहीं  हूं. आज के दौर  में नाटक  को अपने नजरिये से देखता  हूं तो अजीबोगरीब  स्थिति में पाता  हूं. नाटक  किनके लिए किया जाये? यदि नाटक  चारदीवारी  में कैद  कर दिया जाए तो दौर की चुनौतियों  को नहीं  समझ  पाएगा. हकीकत  से रूबरू कराएगा  कौन . आज से 10- 15 साल पहले देखें  तो काफी खाई  नजर आती है. यहीँ सबसे बड़ी चुनौती  नजर आती  है 'कामधेनु' नाटक  की आज याद आती है दर्शक वर्ग ही कलाकर  की भूमिका  में नजर आ जाता है. जनता की भूख  को हमें समझना  होगा.  सफदर हाशमी  रंगभूमि  ओर कभी दर्शकों की कमी  नहीं  होती."


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चर्चित  शायर  संजय  कुमार  कुंदन ने बहस में भाग  लेते हुए कहा " मैं  नाटक  देखता  रहा हूं. नाटक  में मुख्य सवाल  नीयत  का है. नाटक  अपने परफेक्शन में क्या होता है . एक स्वाअंतः सुखाय  होता है जैसे अमृता  प्रीतम है दूसरी  ओर साहिर  लुधियानवी  ने जनता के लिए लिखा . असल बात  नजरिया में फर्क है. " भिखारी  ठाकुर  स्कूल ऑफ  ड्रामा  से जुड़े चर्चित  नाटककार  व निर्देशक हरिवंश  ने  कहा " दुनिया की कोइ भी कला उस देश  की आर्थिक -सामजिक  संरचना  से अलग नहीं  होती, सभी कला एक दूसरे से जुड़ी  होती  है. उसका संबंध  हमारे  जीवन  संघर्षो  से होता है.  जिन देशों  में जन संघर्ष  हो रहे हैं वहां  के गीत  व नारों  को देखें   नाटक  कब संघर्ष  में तब्दील हो जाएगा वहां  का संघर्ष  कब नाटक  में, गीत कब नाटक  में बदल जाता है और नाटक  गीत  में. रंगकर्मी कितने भी प्रयोग करें, तकनीक  लाएं  मनुष्य यदि गायब  हो तो उसकी  प्रासंगिकता जनता के लिए नहीं  है. पहले आपको  स्थितियों को ठीक  से समझना  होगा. आज सबसे बड़ी समस्या है कि रंगकर्मियों में अभिजात्यपन की बीमारी  है वह हमें वैचारिक  रूप से निगलता जा रहा है.  इस कारण  दर्शकों की संख्या घटती  जा रही है. हजारों -हजार नाटक  मण्डलियाँ उभरती  नजर आ रही है और  जन संघर्षो  में शामिल  रहे हैं. इतना बदलाव  कैसे हो गया. तकनीक  पर पकड़ किनकी है. उनलोगों ने  बहुआयामी सोच  से अलग कर दिया.  नाटक  की निरपेक्ष व्याख्या  नहीं  हो सकती. जब तक इस मुल्क में राजनीतिक  आंदोलन  की जनपक्षधर धारा  नहीं  बनेगी  तब तक दर्शकों की हिस्सेदारी  नहीं  बढ़ेगी. कलाकर  बनना है तो संस्कृतिकर्मी बनिये. यदि  पैसे  की चिंता  करनी  है तो दूसरा क्षेत्र चुनें  वे . सरकार  आपको  चारण  भांट बनाएगी. यदि आदर्श  बोध  नहीं  दर्शाएंगे  तो दर्शक नहीं  मिलेंगे. " वरिष्ठ  रंगकर्मी अतिरंजन ने कहा  " रंगमकर्मियों को सत्ता के खिलाफ  लड़ना होगा. ज्ञान रुपया शेरनी  का दूध  पीना  होगा."


युवा  रंगकर्मी मनोज ने भी सभा  को संबोधित  करते हुए  कहा " अभी  के रंगकर्मियों में हड़बड़ाहट थोड़ा  ज्यादा है. एन. एस डी  की  परीक्षा  में सभी झूठ  बोलते हैं  कि लौटकर  नाटक  करेंगे जबकि करते नहीं  हैं. आजकल पटना में आजकल  बहुत  सारे  ग्रुप हो गए  हैं लेकिन उनके अंदर विचारधारा  नहीं  है. " वरिष्ठ  रंगकर्मी सहजानंद   जी ने अपनी  टिप्पणी में कहा " लोगों को जोड़ने के लिए  आम जनता के पास जाना  होगा. जब तक वहाँ जायेंगे नहीं आप जोड़ नहीं  सकते. समय के साथ  सब कुछ  बदलता रहता है 1980 से 1995 तक खूब  नाटक  होगा.  1990 में बिहार में सत्ता परिवर्तन के बाद  नाटक आंदोलन  बंद हो गया.  जो भी रंगसंगठन  हैं उनको आपस  में सहयोग करना होगा. हमें इसके लिए  मंच  ओर नहीं  बल्कि मोहल्ला - मोहल्ला जाना  होगा. " सभा  को सामाजिक  कार्यकर्ता सुनील सिंह ने संबोधित  किया. संगीत  नाटक अकादमी  के पूर्व अध्यक्ष  आलोकधन्वा  ने  कहा  "  रंगकर्मियों को पढ़ाई -लिखाई  पर ध्यान  देना चाहिए . कविता की आवृत्ति  करना चाहिए. नुक्ता कहाँ  लगेगा यह सीखना  चाहिए.  रुपवाद  की तरफ नहीं  जाइये. असली बात  कथ्य है. कथ्य आपको  रात  भर बेचैन  रखेगा. जैसे ग़ालिब  को रात  भर नींद  नहीं  आती  थीं.  नाटक  और सिनेमा में कोई झगड़ा  नहीं  है. हमने इमरजेंसी  में उत्पल  दत्त को पटना में हजारों  लोगों के साथ देखा. उनके 'कल्लोल' नाटक  देखा. जनता के पास जाइये दूसरा कोउ उपाय  नहीं  जितने बड़े नेता हुए सबों को जनता के पास जाना  होगा.  लोकतंत्र में यदि  पांच  आदमी भी हो तो उसको बोलने का मौका  मिलना चाहिए.जैसी  बाढ़  आ रही  है अमेरिका, ब्रिटेन, चीन  में वैसी  बाढ़  पिछले  पांच  सौ  साल  में नहीं  आई  थीं ." आगत  अतिथियों का स्वागत जयप्रकाश  ने किया जबकि संचालन  वरिष्ठ  रंगकर्मी राकेश  रंजन तथा धन्यवाद  ज्ञापन  गौतम  गुलाल  ने किया. कार्यक्रम में खासी  संख्या में रंगकर्मी,  साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता  उपस्थित  थे. प्रमुख  लोगों में थे  जौहर, उदयन, अर्चना सिंह,   वरिष्ठ  रंगकर्मी आर  नरेंद्र, अभिषेक,  वरिष्ठ  रंगकर्मी चंचल, सामाजिक  कार्यकर्ता बाल गोविन्द सिंह, गोपाल  शर्मा, निशांत, मनोज, गौतम  गुलाल, बी. एन विश्वकर्मा, यशवंत पराशर, प्रदीप दूबे आदि.

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