विशेष : कुपोषण से बचाने वालों के बच्चे खुद कुपोषण का शिकार ना हो जाएं - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

विशेष : कुपोषण से बचाने वालों के बच्चे खुद कुपोषण का शिकार ना हो जाएं

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मिड डे मील योजना वर्तमान में भारत सरकार द्वारा संचालित एक बहुत ही जानी पहचानी योजना है. इसकी शुरुआत 15 अगस्त 1995 को की गई थी. शुरुआत में इस योजना को देश के 3408 विकसित खंड में लागू किया गया था और बाद में सन 1997-98 में यह कार्यक्रम देश के हर ब्लॉक में लागू कर दिया गया. मिड डे मील का सबसे बड़ा उद्देश्य लाखों गरीब परिवारों के उन बच्चों को भुखमरी से बचाना है जो घर में राशन की कमी के कारण बिना कुछ खाए पिए स्कूल आने को मजबूर हैं. जिससे धीरे-धीरे बहुत से बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं. इसी कुपोषण से उन्हें बचाने के लिए सरकार द्वारा मिड-डे-मील की योजना चलाई गई, जिसमें एक अच्छी खासी मात्रा में उन्हें रोज अलग अलग डाइट दिए जाने का प्रावधान है. यह योजना गरीब बच्चों के लिए बहुत बड़ा वरदान साबित हुआ है. इससे स्कूल में बच्चों की भागीदारी बढ़ी है. केवल उनकी नामांकन की संख्या ही नहीं बढ़ी, बल्कि बच्चों की उपस्थिति में भी सकारात्मक बदलाव आया है. स्कूली बच्चों को सेहतमंद बनाना भी मिड डे मील योजना का एक हिस्सा है. यह योजना बच्चों को नियंत्रित पोषण आहार प्रदान करने की भूमिका अदा करती है. जिससे बच्चों में तंदुरुस्ती बढ़ेगी और उनका संपूर्ण शारीरिक विकास संभव हो सकेगा. मिड डे मील योजना तो अच्छे खासे पैमाने पर सरकार द्वारा चलाई जा रही है. जो इस योजना के तहत बच्चों तक भोजन तैयार कर उन्हें थाली में परोसती हैं. जो सुबह सुबह बच्चों और शिक्षकों के साथ समय पर स्कूल पहुंचती है, बच्चों को खिलाने के बाद उनके बर्तन भी साफ करती है, उन्हें भोजन माता के रूप में संबोधित किया जाता है. अमूमन यह देखा गया है कि जो स्कूलों में मिड डे मील तैयार करने वाली जिन महिलाओं को नियुक्त किया जाता है, वह अधिकतर गरीब परिवारों से ताल्लुक रखने वाली होती हैं. यह जानना बहुत जरूरी हो जाता है कि इन महिलाओं को कितना वेतन मिलता है और इस वेतन से उनका गुजारा कैसे चलता है? स्वयं उनके बच्चों को कितना पौष्टिक आहार प्राप्त हो पाता है?


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इस संबंध में केंद्रशासित प्रदेश जम्मू कश्मीर के कठुआ की रहने वाली एक मिड डे मील कुक संतोष देवी बताती हैं कि सुबह दस बजे शिक्षकों और अन्य कर्मचारियों की तरह स्कूल पहुंचना होता है. वहां पहुंचते ही सबसे पहले पूरे किचन की सफाई करनी होती है. रसोई घर के काम के साथ साथ हम बच्चों के बैठने के लिए टाट बिछाते हैं. खाना बनाने वाले सभी बर्तनों को भी साफ करती हूं. इसके अतिरिक्त स्कूल के और भी छोटे छोटे काम करने के बावजूद भी हमें समय पर वेतन प्राप्त नहीं होता है. उन्होंने कहा कि उन्हें दो सालों में मात्र 3500 रूपए ही मिले हैं. बाकी पैसों का कुछ पता नहीं है कि कब मिलेगा, कब नहीं? हालांकि उनकी तनख्वाह प्रतिमाह एक हजार रुपए निर्धारित है. जो कभी भी समय पर नहीं मिलता है. संतोष देवी कहती सवाल करती हैं कि क्या मात्र एक हज़ार रुपए से किसी का गुज़ारा संभव है? मैं सरकार से अपील करती हूं कि एक तो हमारी जो भी सैलरी है कम से कम उसे ही समय पर अदा कर दिया जाए और इसे बढ़ाने पर गंभीरता से विचार किया जाए ताकि हम भी अपने घर गृहस्थी का गुजारा कर सकें. कठुआ के एक मिडिल स्कूल में खाना बनाने वाली आशा देवी का कहना है कि मुझे प्रति वर्ष मात्र 10000 रुपए वेतन दिए जाते हैं. वह भी समय पर अदा नहीं किये जाते हैं. कभी दूसरे तीसरे महीने में एक दो हजार हमारे खाते में आ जाता है. सुबह से शाम तक काम करने के बावजूद भी तनख्वाह बढ़ना तो दूर की बात है, हमें एक हज़ार भी नहीं मिल पाता है. भला एक हजार रुपए से किसी परिवार का क्या होगा? सरकार को मिनिमम वेजेस एक्ट के तहत हमें कम से कम दिहाड़ी तो देनी चाहिए. इस संबंध में हाल ही में कठुआ के सरकारी स्कूलों में खाना बनाने वाली महिलाओं द्वारा सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के लिए विरोध मार्च भी निकाला गया था. इस विरोध मार्च में शामिल कई भोजन माताओं की शिकायत थी कि सरकार द्वारा जो एक हज़ार रुपए दिए भी जाते हैं तो स्कूल द्वारा पूरा भुगतान नहीं किया जाता है. कभी मात्र 400 तो कभी 600 रुपए ही दिए जाते हैं. 


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आज के समय में इतनी महंगाई में क्या मात्र इतने रुपयों में घर चलाना संभव है? हम सुबह स्कूल जाती हैं और स्कूल में छुट्टी होने पर ही घर आती हैं. इसके उपरांत भी हमें समय पर वेतन नहीं मिलता है. उनकी शिकायत थी कि दूसरे बच्चों को खाना खिलाने वाली हम भोजन माता के बच्चे ही भूखे रहने को मजबूर हैं. हमें प्रतिदिन 33 रुपए के हिसाब से भुगतान किया जाता है. क्या यह हमारी मेहनत के साथ एक भद्दा मज़ाक नहीं है? कुछ माह पूर्व इसी सिलसिले में मिड डे मील यूनियन की ओर से उधमपुर में भी एक बड़ा विरोध मार्च निकाला गया था. जिसमें ज़िले के सभी सरकारी स्कूलों की भोजन माता शामिल हुई थी. उन्होंने जनप्रतिनिधियों से भी मिलकर अपनी समस्याओं से उन्हें अवगत कराया और मिनिमम वेजेस एक्ट के तहत 300 से 350 सौ रुपए प्रतिदिन भुगतान की मांग की. हालांकि उनकी समस्याओं का कोई हल होता कहीं नजर नहीं आ रहा है क्योंकि बीते कुछ दिनों सरकार द्वारा जो बजट पेश किया गया है उस में मिड डे मील के बजट में 9.37% की कटौती की गई है. साल 2023 -24 में इस योजना के लिए 11600 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं जबकि साल 2022- 23 में मिड डे मील के लिए पहले 10000 करोड रुपए आवंटित हुए थे. लेकिन बाद में इसे संशोधित कर 12800 करोड रुपये किए गए थे. बहरहाल, बहुत सारी राज्य सरकारों ने अपने-अपने राज्यों में मिड डे मील के तहत खाना बनाने वाली भोजन माता का वेतन बढ़ाने के लिए या तो आश्वासन दिया है या थोड़ी बहुत बढ़ोतरी भी की है. ऐसे ही जम्मू-कश्मीर प्रशासन को भी यहां के स्कूलों में काम कर रही महिलाओं के वेतन को बढ़ाने के लिए गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, ताकि दूसरों के बच्चों को पोषण देते हुए उनके ख़ुद के बच्चे कहीं कुपोषण के शिकार ना हो जाएं. 






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मीनाक्षी मेहरा

कठुआ, जम्मू

(चरखा फीचर)

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