आलेख : 21वीं सदी में पर्वतीय महिलाओं की व्यथा - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

आलेख : 21वीं सदी में पर्वतीय महिलाओं की व्यथा

दुनिया भर में महिलाओं की स्थिति को मजबूत करने और उन्हें समाज के हर क्षेत्र में समान अधिकार व सम्मान दिलाने के लिए कई प्रकार से प्रयास किये जा रहे हैं. इसके लिए समाज को जागरूक करने के लिए से हर वर्ष 26 अगस्त को महिला समानता दिवस के रूप में भी मनाया जाता है जिससे नारी सशक्तिकरण को बढ़ावा मिल सके. मगर पर्वतीय क्षेत्रों की महिलाओं के लिए आज भी समान अधिकार और सशक्तिकरण केवल एक ख्वाब से अधिक कुछ नहीं है. यहां तो आज भी महिलाओं को परंपरा के आगे झुकना पड़ता है और केवल अपने हिस्से की क़ुर्बानी देनी पड़ती है. जिसका सीधा असर उनके जीवन यापन व उनके स्वास्थ्य पर भी देखने को मिलता है. आज भी पर्वतीय क्षेत्रों में निर्णय लेने के सभी अधिकार पुरूषों को हैं और महिलाओं को उसे सर आंखों पर रखना होता है चाहे वह निर्णय उसके हक़ में न भी हो.


वर्तमान समय में नारी सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए ग्राम प्रधान, सरपंच व कई महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं के लिए सीट को आरक्षित किया गया है, परंतु पर्वतीय क्षेत्रों में यह योजना केवल कागजों तक सीमित है. आज भी इन कार्यों को उनके पति या परिवार के अन्य पुरुष सदस्यों द्वारा ही संचालित किया जाता है. पद महिला होने के चलते महिला मात्र रबर स्टांप होती है जो पुरुषों द्वारा लिए गए फैसले पर आंख और कान बंद कर मुहर लगाती है. उसे तो उस कार्य की कोई जानकारी तक नहीं होती है. केवल प्रशासनिक फैसले ही नहीं, बल्कि उसे शादी ब्याह से जुड़े अपने जीवन के अहम फैसले लेने का भी अधिकार नहीं होता है. 21वी सदी में भी इस क्षेत्र में कम उम्र में विवाह का रिवाज देखने को मिल जाता है. ऐसा प्रतीत होता है माता-पिता अपनी बेटियों से पल्ला झाड़ रहे हों. मात्र 18-20 वर्ष में बेटियों को विवाह के बंधन में बाधकर पारिवारिक जिम्मेदारी के बोझ तले रौद दिया जाता है. कम आयु में विवाह का रिवाज आज से नहीं वरन पुराने समय से है. जिसका उदाहरण दीपा नौटियाल जैसी महान समाजसेविका हैं. जिनका जन्म 1917 में पौड़ी गढ़वाल के थलीसैण तहसील स्थित मंज्युर गांव में हुआ था. महज 19 वर्ष की आयु में दीपा नौटियाल ने इतने दर्द सहे जिसकी कल्पना कर पाना भी मुश्किल है. जिन्होंने दो वर्ष की आयु में माता, पांच वर्ष की आयु में पिता और महज 19 वर्ष की आयु में पति को खो दिया. जिसके बाद ससुराल वालों ने भी उन्हें ठुकरा दिया. लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने आप को समाज सेवा में लगा दिया. लेकिन ऐसी हिम्मत सभी लड़कियों या महिलाओं में नहीं होती है. कहने का तात्पर्य है कम उम्र में होने वाली शादी से महिलाओं को कई कष्टों को सहन करना पडता है. जिस समय उन्हें स्वयं के बारे में पता नहीं होता है उस समय परिवार की जिम्मेदारी के साथ वह माता, बहू, जैसी कितनी ज़िम्मेदारियों को संभालने लग जाती हैं.


कम उम्र में शादी होने से महिलाओं के स्वास्थय के साथ भी खिलवाड़ होता है. विभिन्न संस्थाओं के द्वारा होने वाले स्वास्थ्य शिविरों में पाया गया है कि अधिकतर गर्भवती महिलाओं की उम्र मात्र 21 वर्ष होती है, वहीं कई महिला 22-23 वर्ष की आयु में दो बच्चों की माता बन चुकी होती हैं. जो सामाजिक दृष्टिकोण से गलत नहीं है पर यदि उस महिला के स्वास्थ्य के नजरिये से देखा जाए तो कम उम्र में मां बनना आगे चलकर उस महिलाओं में कई रोगों के कारण बन सकते हैं. घर परिवार की ज़िम्मेदारी के कारण वह अपने स्वास्थ्य का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रख पाती है और कई घरों में तो जागरूकता की कमी के कारण महिलाओं से जुड़ी बिमारियों को बहुत अधिक गंभीरता से नहीं लिया जाता है. जो आगे चलकर उसकी मौत का कारण बन जाता है. भारत में महिलाओं में होने वाली कुल मौतों का 21 फीसदी ब्रेस्ट कैंसर के कारण होती है. बड़ी संख्या में पर्वतीय महिलाएं भी इससे ग्रसित पायी गई हैं, क्योकि पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं गंभीर स्थिति में तो है ही, साथ ही ग्रामीण समुदाय जागरूकता के अभाव में भी जीवन यापन कर रहा है. नैनीताल स्थित मोहनागांव की रधुली देवी कहती हैं कि उनका विवाह 18 वर्ष की आयु में हो गया था और एक वर्ष बाद ही वह मां बन गयी थी. जिसके लिए वह मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार भी नहीं थी. लेकिन परिवार व पति के आगे उन्हें झुकना पड़ा. वह बचपन से ही पढ़ने में तेज़ थीं, मगर ससुराल में कार्यो के दायित्व इतने अधिक हो गये कि उन्हें शिक्षा का त्याग करना पड़ा. आज भी पहाड़ों में कम उम्र में विवाह होते हैं ओैर ऐसा नहीं है कि अभिभावकों को इस बात की जानकारी नहीं है. परंतु बेटियों को एक जिम्मेदारी के रूप में देखा जाता है और यह संकुचित सोच है कि बेेटियों को जितनी जल्द हो सके उनके असली घर विदा कर दिया जाना चाहिए.


पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसा नहीं है कि महिलाओं द्वारा अन्य कार्यो में प्रतिभागिता नहीं की जाती है. आज स्वयं सहायता समूहों की संख्या देखी जाए तो महिला स्वयं सहायता समूह पुरूषों की तुलना में अधिक सक्रिय है. उनकी बैठकें व धनराशि नियमित रूप से जमा होती हैं. उनके द्वारा बैंकों से लिये गये लोन भी समय पर वापस किये जा रहे हैं. इसके बावजूद आज भी पर्वतीय समाज में महिलाएं अपने अस्तित्व की लड़ाई बिना किसी सहारे के लड़ रही हैं. दिन के सबसे अधिक घंटे वह अपने परिवार के लिए समर्पित रहती हैं. मगर वही परिवार उन्हें वह सम्मान देने में हिचकिचता है जिसकी वह हकदार हैं. अक्सर देखा गया कि पर्वतीय क्षेत्रों में पुरानी परम्पराओं को आज भी विधिवत किया जाता है. चाहे समाज कितनी भी प्रगति कर ले, पर आज भी पर्वतीय क्षेत्रों में पुरानी रूढ़ीवादी सभ्यता का सख्ती से पालन किया जा रहा है. बुजुर्ग के सामने आज भी बहुओं को सर झुका कर रहना पड़ता है जिसमें सबसे अधिक नुकसान क्षेत्र की महिलाओं को होता है. लेकिन इन सबके बावजूद भी महिलाएं अपने कार्य को पूर्ण लग्न के साथ करके सामाजिक रीढ़ को मजबूत करने में अपना अमूल्य योगदान दे रही हैं. सोशल मीडिया के द्वारा देश में बड़े-बड़े बदलाव आये हैं, अब इसकी सहायता से समाज की सोच में भी परिवर्तन लाने का समय है. महिलाएं जो पुरूषों के साथ कंधा मिला रही हैं उन्हें भी अपना जीवन जीने का हक दिया जाना चाहिए. इसके लिए पुरानी परम्पराओं और सोच में बदलाव लाने की जरूरत है. जिसके चलते महिलाएं अपने सम्मान से वंचित सी हो गयी हैं. यदि हम समाज की सोच में परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं तो महिलाओं के लिए यह हमारा सबसे बड़ा सम्मान होगा. 




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नरेन्द्र सिंह बिष्ट

हल्द्वानी, उत्तराखंड

(चरखा फीचर)

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