सावन विशेष : साक्षात शिव स्वरूप है कांवड़ यात्रा - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 28 जून 2023

सावन विशेष : साक्षात शिव स्वरूप है कांवड़ यात्रा

कांवड़ शिव की आराधना का ही एक रूप है। कांवड़ यात्रा के जरिए जो शिव की आराधना कर लेता है, वह धन्य हो जाता है। कांवड़ का अर्थ है परात्पर शिव के साथ विहार। अर्थात ब्रह्म यानी परात्पर शिव, जो उनमें रमन करें वह कांवरिया। कैलाश मानसरोवर, अमरनाथ यात्रा, शिवजी के द्वादश ज्योतिर्लिंग (जो विभिन्न राज्यों में स्थित हैं) कांवड़ यात्रा आदि बहुत महंगी होने के कारण तथा अति दुष्कर होने के कारण सबकी सामर्थ्य में नहीं होती। अमरनाथ यात्रा भी दूरस्थ होने के कारण इतनी सरल नहीं है, परन्तु कांवड़ यात्रा की बढ़ती लोकप्रियता ने सभी रिकार्ड्स तोड़ दिए हैं। इलाहबाद, वाराणसी, झारखंड, बिहार, नीलकंठ (हरिद्वार), पुरा महादेव (पश्चिमी उत्तरप्रदेश) हरियाणा, राजस्थान के देवालय आदि में सैकड़ों-हजारों से होता हुआ कांवडिया जलाभिषेक लाखों-करोड़ों तक जा पहुंचा है.  इस बार भगवान भोलेशंकर की उपासना का महीना सावन 4 जुलाई से शुरू हो रहा है. इस बार एक नहीं, बल्कि पूरे दो महीने का सावन होगा. ऐसा अधिकमास के कारण हो रहा है. सावन के शुरू होने के साथ ही कावड़ यात्रा भी शुरू हो जाएगी. भगवान शिव के भक्त हरिद्वार, गंगोत्री, गौमुख से कावड़़ में गंगाजल लाकर शिवलिंग का अभिषेक करते हैं. जो लोग सच्चे मन से कावड़ यात्रा करते हैं, उनकी मनोकामना जरूर पूरी होती है 

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वैसे तो भगवान शिव का अभिषेक भारतवर्ष के सारे शिव मंदिरों में होता है। लेकिन श्रावण मास में कांवड़ के माध्यम से जल-अर्पण करने से वैभव और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है। वेद-पुराणों सहित भगवान भोलेनाथ में भरोसा रखने वालों को विश्वास है कि कांवड़ यात्रा में जहां-जहां से जल भरा जाता है, वह गंगाजी की ही धारा होती है। कांवड़ के माध्यम से जल चढ़ाने से मन्नत के साथ-साथ चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है। तभी तो सावन शुरु होते ही इस आस्था और अटूट विश्वास की अनोखी कांवड यात्रा से पूरा का पूरा इलाका केशरिया रंग से सराबोर हो जाता है। पूरा माहौल शिवमय हो जाता है। अगर कुछ सुनाई देता है तो वो है हर-हर महादेव की गूंज, बोलबम का नारा। कुंवारी लड़किओं से लेकर बुजुर्ग तक सब सावन के महीने में भगवान शिव को प्रसन्न करने में लीन दिखाई देते हैं। कोई सम्पूर्ण माह व्रत रखता है तो कोई सोमवार को, परन्तु सबसे महत्पूर्ण आयोजन है ये कठिन यात्राएं जिनका गंतव्य शिव से सम्बन्धित देवालय होते हैं, जहां जाकर भगवान शिव का जलाभिषेक करतें हैं। भगवान भोलेनाथ का ध्यान जब हम करते हैं तो श्रावण का महीना, रूद्राभिषेक और कांवड़ का उत्सव आंखों के सामने होता है। शिव भूतनाथ, पशुपतिनाथ, अमरनाथ आदि सब रूपों में कहीं न कहीं जल, मिट्टी, रेत, शिला, फल, पेड़ के रूप में पूजनीय हैं। जल साक्षात् शिव है, तो जल के ही जमे रूप में अमरनाथ हैं। बेल शिववृक्ष है तो मिट्टी में पार्थिव लिंग है। गंगाजल, पारद, पाषाण, धतूराफल आदि सबमें शिव सत्ता मानी गई है। अतः सब प्राणियों, जड़-जंगम पदार्थों में स्वयं भूतनाथ पशुपतिनाथ की सुगमता और सुलभता ही तो आपको देवाधिदेव महादेव सिद्ध करती है। कांवड़ शिव के उन सभी रूपों को नमन है। कंधे पर गंगा को धारण किए श्रद्धालु इसी आस्था और विश्वास को जीते हैं। यानी कांवड़ यात्रा शिव के कल्याणकारी रूप और निष्ठा के नीर से उसके अभिषेक को तीव्र रूप में प्रतिध्वनित। कहा जाता है कि कांधे पर कांवड़ रखकर बोल बम का नारा लगाते हुए चलना भी काफी पुण्यदायक होता है। इसके हर कदम के साथ एक अश्वमेघ यज्ञ करने जितना फल प्राप्त होता है।


कुम्भ मेले का आकार लेता कांवड़ यात्रा

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यूपी, बिहार, झारखंड सहित दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान तक में कांवड़ लाने का प्रचलन है। घरों में भी प्रायः श्रद्धालु शिवालयों में जाकर सावन मास में भगवान शिव का जलाभिषेक, दुग्धाभिषेक, करते हैं। ऐसा नहीं है कि कांवड़ यात्रा कोई नयी बात है यह सिलसिला कई सालों से चला आ रहा है। फर्क बस इतना है कि पहले इक्का-दुक्का शिव भक्त ही कांवड़ में जल लाने की हिम्मत जुटा पाते थे, लेकिन पिछले दस सालों से शिव भक्तों कि संख्या में लगातार वृद्धि होती चली जा रही है। मतलब इक्का-दुक्का से सैंकड़ों फिर हजारों और अब लाखों-करोड़ों कांवरियां जलाभिषेक अपने आराध्य देव भगवान भोलेनाथ को कर रहे है। उत्तर भारत में विशेष रूप से पश्चिमी व पूर्वी यूपी 10 वर्षों से कांवड़ यात्रा एक पर्व कुम्भ मेले के समान एक महा आयोजन का रूप ले चुकी है। अपनी श्रद्धा के अनुरूप सर्वप्रथम अपनी सामर्थ्य, समय, अपने गंतव्य की दूरी के अनुसार गंगोत्री या हरिद्वार, ऋषिकेश से जल लेने के लिए बस, ट्रेन आदि से भक्त लोग पहुंचते है। हरिद्वार में सर्वाधिक अनवरत मानव प्रवाह रहता है। मानो प्रतिवर्ष सावन माह में एक कुम्भ का मेला हो। गंगा स्नान के पश्चात जल भर कर पैदल यात्रा सम्पन्न की जाती है। पूरे माह तक चलने वाली इस यात्रा में कांवड़िये सैकड़ों किमी का सफर कर गंगा से जल भरकर लाते हैं और भगवान शिव को चढ़ाते हैं।


काशी, प्रयागराज, हरिद्वार और झारखंड के देवघर में कांवड़ यात्रा का है खासा महत्व

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यूपी के काशी, प्रयागराज, उत्तराखंड के हरिद्वार और झारखंड के देवघर में कांवड़ यात्रा का खासा महत्व है। कहा जा सकता है सावन लगते ही सड़कों पर अगर कुछ विशेष होता दिखाई देता है तो वह है कांवड़ यात्रा। कांवड़ लाने के लिए शिव के भक्त पूरे साल इंतजार करतें हैं कि कब वो काशी, प्रयागराज, हरिद्वार या झारखंड के सुल्तानगंज के लिए प्रस्थान करेंगे। कठिन यात्रा को पैदल पार करके भगवान भोलेनाथ पर चढायेंगे गंगा जल। कुछ लोग तो गंगोत्री तक से भी जल लेकर केदारनाथ धाम में चढ़ाते हैं। हर साल श्रावण मास में लाखों की तादाद में कांवडिये सुदूर स्थानों से आकर गंगा जल से भरी कांवड़ लेकर पदयात्रा करके अपने गांव वापस लौटते हैं। श्रावण की चतुर्दशी के दिन उस गंगा जल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक किया जाता है। कहने को तो ये धार्मिक आयोजन भर है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। कांवड के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए है। पानी आम आदमी के साथ साथ पेड पौधों, पशु-पक्षियों, धरती में निवास करने वाले हजारो लाखों तरह के कीडे-मकोडों और समूचे पर्यावरण के लिए बेहद आवश्यक वस्तु है और किसी न किसी रुप में इन्हें भी जल मिल जाता है। सम्पूर्ण भारत में भगवान् शिव का जलाभिषेक करने के लिए भक्त अपने कन्धों पर कांवड़ लिए हुए (कांवड़ में कंधे पर बांस तथा उसके दोनों छोरों पर गंगाजली रहती है) गोमुख (गंगोत्री) सहित काशी, प्रयागराज, हरिद्वार, सुल्तानगंज तथा अन्य समस्त स्थानों पर जहां भी पतित पावनी मां गंगा विराजमान हैं, से जल लेकर अपनी यात्रा के लिए निकल पड़ते हैं।


कांवर मां गंगा की समवेत आराधना भी है 

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गंगा शिव की जटाओं से निकली। उसका मूल स्रोत विष्णु के पैर है। भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर विष्णु ने गंगा से जब पृथ्वी पर जाने के लिए कहा तो वह अपने इष्ट के पैर छूती हुई स्वर्ग से पृथ्वी की ओर चली। वहां उसके वेग को धारण करने के शिव ने अपनी जटाएं खोल दी और गंगा को अपने सिर पर धारण किया। वहां से गंगा सागरपुत्रों का उद्धार करने के लिए बहने लगी। कांवड़ यात्रा के दौरान साधक या यात्री वही गंगाजल लेकर अभीष्ट शिवालय तक जाते हैं और शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। शिवमहिम्न स्तोत्र के रचयिता आचार्य पुष्पदंत के अनुसार यह यात्रा गंगा का शिव के माध्यम से प्रत्यावर्तन है- अभीष्ट मनोरथ पूरा होने के बाद उस अनुग्रह को सादर श्रद्धा पूर्वक वापस करना। कांवर से गंगाजल ले जाने और अभिषेक द्वारा शिव को सौंपने का अनुष्ठान शिव और गंगा की समवेत आराधना भी है। कांवड़ के व्युत्पत्तिपरक जो अर्थ किए गए हैं, उनमें एक के अनुसार क अक्षर अग्नि को द्योतक है और आवर का अर्थ ठीक से वरण करना। प्रार्थना यह है कि अग्नि अर्थात स्रष्टा, पालक एवं संहारकर्ता परमात्मा हमारा मार्गदर्शक बने और वही हमारे जीवन का लक्ष्य हो तथा हम अपने राष्ट्र और समाज को अपनी शक्ति से सक्षम बनाएं। देवभूमि हिमालय को देवताओं का निवास भी कहा गया है। शिव भी इसी क्षेत्र कैलास में कहीं रहते हैं। कम से कम श्रद्धालु जन तो यही मानते हैं कि शिव परमात्मा के रूप में तो सर्वव्यापी हैं, कण कण में विराजमान हैं पर पार्थिव रूप में वे इसी क्षेत्र में यहीं रहते हैं। उनसे संबंधित पुराण प्रसिद्ध घटनाओं का रंगमंच यही क्षेत्र रहा है। महाकवि कालिदास ने हिमालय को शिव का प्रतिरूप बताते हुए इसके सांस्कृतिक, भौगोलिक और धार्मिक महत्त्व को रेखांकित किया है। उनके अनुसार हिमालय को देखें तो समाधि में बैठे महादेव, बर्फ के समान गौर उनका शरीर, चोटियों से बहते नद, नदी ग्लेशियर, झरने उनकी जटाएं, रात में चन्द्रोदय के समय सिर पर स्थित चन्द्रकला, गंगानदी का धरती पर आता अक्स खुद-ब-खुद दिमाग में उभरता जाता है।


पौराणिक मान्यताएं

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कांवड़ यात्रा एवं शिवपूजन का आदिकाल से ही अन्योन्याश्रित संबंध है। इस संदर्भ में सर्वप्रथम यह जानना अति आवश्यक है कि महेश्वर शिव जी का यह लिंग-रूप इतना महिमामय तथा पुण्यात्मक क्यों माना गया है तथा इसकी पौराणिकता का आधार क्या है? लिंग स्वरूप शिव तत्व का वर्णन लिंग पुराण में इस प्रकार किया गया है-‘‘निर्गुण निराकार ब्रह्म शिव ही लिंग के मूल कारण तथा स्वयं लिंग-रूप भी हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि से रहित अगुन, अलिंग (निर्गुण) तत्व को ही शिव कहा गया है तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधादि से संयुक्त प्रधान प्रकृति को ही उत्तम लिंग कहा गया है।’’ वह जगत् का उत्पत्ति स्थान है। पंच भूतात्मक अर्थात- पृथ्वी, जल, तेज, आकाश वायु से युक्त हैं, स्थूल है। सूक्ष्म है, जगत का विग्रह है तथा लिंग तत्व निर्गुण परमात्मा शिव से स्वयं उत्पन्न हुआ है। प्रधान प्रकृति ही सदाशिव के आश्रय को प्राप्त करके ब्रह्मांड में सर्वत्र चतुर्मुख ब्रह्मा, शिव और विष्णु का सृजन करती है। इस सृष्टि की रचना, पालन तथा संहार करने वाले वे ही एकमात्र महेश्वर हैं। वे ही महेश्वर क्रमपूर्वक तीन रूपों में होकर सृष्टि करते समय रजोगुण से युक्त रहते हैं। पालन की स्थिति में सत्वगुण में स्थित रहते हैं, तथा प्रलय काल में तमोगुण से आविष्ट रहते हैं। वे ही भगवान शिव प्राणियों के सृष्टिकर्ता, पालक तथा संहर्ता हैं। एक और मान्यता के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान शिव ने हलाहल विष पी लिया था. विष के गंभीर नकारात्मक प्रभावों ने शिवजी को असहज कर दिया. महादेव को इस पीड़ा से मुक्त कराने के लिए उनके परमभक्त रावण ने कावड़ में जल भरकर कई बरसों तक महादेव का जलाभिषेक किया, इसके चलते शिवजी जहर के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए और उनके गले में हो रही जलन खत्म हो गई. यहीं से कावड़ यात्रा का आरंभ माना गया.


श्रवन कुमार ने की कावंड़ यात्रा

कांवड की जानकारी उस प्रसंग से प्राप्त होती है, जब मात-पितृ भक्त श्रवन कुमार अपने नेत्रहीन माता-पिता को कांवड में बैठाकर तीर्थयात्रा के लिए निकले थे। ‘कस्य आवरः कावरः अर्थात परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ वरदान। एक अन्य मीमांसा के अनुसार क का अर्थ जीव और अ का अर्थ विष्णु है, वर अर्थात जीव और सगुण परमात्मा का उत्तम धाम। इसी तरह कां का अर्थ जल माना गया है और आवर का अर्थ उसकी व्यवस्था। जलपूर्ण घटों को व्यवस्थित करके विश्वात्मा शिव को अर्पित कर परमात्मा की व्यवस्था का स्मरण किया जाता है। क का अर्थ सिर भी है, जो सारे अंगों में प्रधान है, वैसे ही शिव के लिए कांवड़ का महत्व है जिससे ज्ञान की श्रेष्ठता का प्रतिपादन होता है। क का अर्थ समीप और आवर का अर्थ सम्यक रूप से धारण करना भी है। जैसे वायु सबको सुख, आनंद देती हुई परम पावन बना देती है वैसे ही साधक अपने वातावरण को पावन बनाए। इन तमाम अर्थों के साथ कांवड़ यात्रा का उल्लेख एक रूपक के तौर पर भी करते हैं।


हरिद्वार में भगवान परशुराम ने शुरु की कांवड़

हरिद्वार में कांवड़ यात्रा के बाबत कहा जाता है सर्वप्रथम भगवान परशुराम ने कांवड़ लाकर “पुरा महादेव”, जो यूपी के बागपत में है, भगवान भोलेनाथ की नियमित पूजा करते थे। श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को गढ़मुक्तेश्वर से कांवड़ में गंगा जल लाकर शिवलिंग पर जलाभिषेक किया करते थे। आज भी उसी परंपरा का अनुपालन करते हुए श्रावण मास में गढ़मुक्तेश्वर, जिसका वर्तमान नाम ब्रजघाट है, से जल लाकर लाखों लोग श्रावण मास में भगवान शिव पर चढ़ाकर अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं। कथा के मुताबिक एक बार चक्रवती राजा सहस्त्रबाहु परशुराम जी के पिता ऋषि जमदग्नि के आश्रम पहुंचे. ऋषि जमदग्नि ने राजा और उसकी सेना का आदर सत्कार किया. राजा ये जानने के लिए उत्सुक था कि एक निर्धन ब्राह्मण कैसे उसकी पूजा सेना को भोजन कराने में कामयाब हुआ. जब राजा को पता चला कि ऋषि जमदग्नि के पास कामधेनु गाय है, जो हर मनोकामना पूरी करती है. कामधेनु को पाने के लालच में राजा ने ऋषि जमदग्नि की हत्या कर दी. अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए भगवान परशुराम ने सहस्त्रबाहु की सभी भुजाओं को काट दिया, जिससे उसकी भी मृत्यु हो गई. परशुराम जी कि कठोर तपस्या के बाद पिता जमदग्नि को जीवनदान मिल गया. ऋषि ने परशुराम जी को सहस्त्रबाहु की हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गंगाजल से शिव का अभिषेक करने को कहा. परशुराम जी ने मीलों पैदल यात्रा की और कांवड़ में गंगाजल भरकर लाए. आश्रम के पास ही उन्होंने शिवलिंग की स्थापना कर महादेव का जलाभिषेक किया.


जलाभिषेक

कहते है भगवान शिव को श्रावण का सोमवार विशेष रूप से प्रिय है। श्रावण में भगवान भोलेनाथ का गंगाजल व पंचामृत से अभिषेक करने से शीतलता मिलती है। भगवान शिव की हरियाली से पूजा करने से विशेष पुण्य मिलता है। खासतौर से श्रावण मास के सोमवार को शिव का पूजन बेलपत्र, भांग, धतूरे, दूर्वाकुर आक्खे के पुष्प और लाल कनेर के पुष्पों से पूजन करने का प्रावधान है। इसके अलावा पांच तरह के जो अमृत बताए गए हैं उनमें दूध, दही, शहद, घी, शर्करा को मिलाकर बनाए गए पंचामृत से भगवान आशुतोष की पूजा कल्याणकारी होती है। भगवान शिव को बेलपत्र चढ़ाने के लिए एक दिन पूर्व सायंकाल से पहले तोड़कर रखना चाहिए। सोमवार को बेलपत्र तोड़कर भगवान पर चढ़ाया जाना उचित नहीं है। भगवान भोलेनाथ के साथ शिव परिवार, नंदी व भगवान परशुराम की पूजा भी श्रावण मास में लाभकारी है। शिव की पूजा से पहले नंदी व परशुराम की पूजा की जानी चाहिए। शिव का जलाभिषेक नियमित रूप से करने से वैभव और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है। उत्तर भारत में भी गंगाजी के किनारे के क्षेत्र के प्रदेशों में कांवड़ का बहुत महत्व है। राजस्थान के मारवाड़ी समाज के लोगों के यहां गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बदरीनाथ के तीर्थ पुरोहित जो जल लाते थे और प्रसाद के साथ जल देते थे, उन्हें कांवड़िये कहते थे। ये लोग गोमुख से जल भरकर रामेश्वरम में ले जाकर भगवान शिव का अभिषेक करते थे। यह एक प्रचलित परंपरा थी। लगभग 6 महीने की पैदल यात्रा करके वहां पहुंचा जाता था। इसका पौराणिक तथा सामाजिक दोनों महत्व है। इससे एक तो हिमालय से लेकर दक्षिण तक संपूर्ण देश की संस्कृति में भगवान का संदेश जाता था। इसके अलावा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की लौकिक और शास्त्रीय परंपराओं के आदान-प्रदान का बोध होता था। परंतु अब इस परंपरा में परिवर्तन आ गया है। अब लोग गंगाजी अथवा मुख्य तीर्थों के पास से बहने वाली जल धाराओं से जल भरकर श्रावण मास में भगवान का जलाभिषेक करते हैं।


बाबा बैजनाथ धाम में श्रीराम ने की जलाभिषेक

झारखंड स्थित बैजनाथधाम कांवड़ यात्रा के संबंद्ध में कहा जाता है कहते हैं, पहले कांवड़िया रावण थे। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी सदाशिव को कांवड़ चढ़ाई थी। आनंद रामायण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि भगवान श्री राम ने कांवड़िया बनकर सुल्तानगंज से जल लिया और देवघर स्थित बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया।


कांवड़ यात्रा

कंधे पर गंगाजल लेकर भगवान शिव के ज्योतिर्लिंगों पर चढ़ाने की परंपरा, कांवड़ यात्रा कहलाती है। कहते हैं यह भक्तों को भगवान से जोड़ती है। महादेव को प्रसन्न कर मनोवांछित फल पाने के लिए कई उपायों में एक उपाय कांवड़ यात्रा भी है, जिसे शिव को प्रसन्न करने का सहज मार्ग माना गया है। वैसे तो कांवड़ शब्द के कई मायने हैं। एक अर्थ यह भी है- क यानी ब्रह्म (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) और जो उनमें रमन करे वह कांवड़िया जो नियमों का सम्यक पान करके अपने आपको इन देवों की शक्तियों से संपूरित कर देकांवड़ तब बनती है, जब फूल-माला, घंटी और घुंघरू से सजे दोनों किनारों पर वैदिक अनुष्ठान के साथ गंगाजल का भार पिटारियों में रखा जाता है। धूप-दीप की खुशबू, मुख में श्बोल बमश् का नारा, मन में बाबा एक सहारा। भोले नाथ कांवर से गंगाजल चढ़ाने से सबसे ज्यादा प्रसन्न होते हैं। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि जब समुद्रमंथन के बाद 14 रत्नों में विष भी निकला था और भोलेनाथ ने उस विष का पान करके दुनिया की रक्षा की थी। विषपान करने से उनका कंठ नीला पड़ गया और कहते हैं इसी विष के प्रकोप को कम करने के लिए, उसे ठंडा करने के लिए शिवलिंग पर जलाभिषेक किया जाता है और इस जलाभिषेक से शिव प्रसन्न होकर आपकी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। यहां रावणेश्वर लिंग के रूप में स्थापित है। श्रावण मास तथा भाद्रपद मास में लाखों श्रद्धालु कांवड़ यात्रा करके इनका जलाभिषेक करते हैं।


कई प्रकार के कावड़

इस धार्मिक उत्सव की विशेषता यह है कि सभी कांवड़ यात्री केसरिया रंग के वस्त्र धारण करते हैं और बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री, पुरुष सबको एक ही भाषा में बोल-बम के नारे से संबोधित करते हैं। दरभंगा आदि क्षेत्रों के यात्री कांवड़ के माध्यम से भगवान का अभिषेक बसंत पंचमी पर करते हैं। सर्वप्रथम उत्तर भारत से गए हुए मारवाड़ी परंपरा के लोगों ने इस क्षेत्र में यह परंपरा प्रारंभ की थी। कांवड़ ले जाने के पीछे अपना संकल्प है कुछ लोग “खडी कांवड़” का संकल्प लेकर चलते हैं, तो कुछ डाक यानी दौड़ लगाकर अपनी यात्रा पूरी करते है। कावंड कई प्रकार के होते है।


डाक कांवड़

डाक कांवड़िया कांवड़ यात्रा की शुरुआत से शिव के जलाभिषेक तक लगातार चलते रहते हैं, बगैर रुके। शिवधाम तक की यात्रा एक निश्चित समय में तय करते हैं। यह समय अमूमन 24 घंटे के आसपास होता है। इस दौरान शरीर से उत्सर्जन की क्रियाएं तक वर्जित होती हैं।


खड़ी कांवड़

कुछ भक्त खड़ी कांवड़ लेकर चलते हैं। इस दौरान उनकी मदद के लिए कोई-न-कोई सहयोगी उनके साथ चलता है। जब वे आराम करते हैं, तो सहयोगी अपने कंधे पर उनकी कांवड़ लेकर कांवड़ को चलने के अंदाज में हिलाते-डुलाते रहते हैं। वो जमीन पर कांवड़ नहीं रखते पूरी यात्रा में। पूर्ण रूपेण शाकाहारी भोजन, मदिरा आदि का सेवन न करना भी इनके विधान में रहता है।


दांडी कांवड़

ये भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करते हैं। मतलब कांवड़ पथ की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेट कर नापते हुए यात्रा पूरी करते हैं। यह बेहद मुश्किल होता है और इसमें एक महीने तक का वक्त लग जाता है। इस यात्रा में बिना नहाए कांवड़ यात्री कांवड़ को नहीं छूते। तेल, साबुन, कंघी की भी मनाही होती है। यात्रा में शामिल सभी एक-दूसरे को बोल बम या बम प्रौढ़ परस्पर एक दूसरे को भोला या भोली कहकर ही बुलाते हैं।


पूरे सावनभर रास्तों में लगता है शिविर

पैरों में पड़े छाले, सूजे हुए पैर, केसरिया बाने में सजे कांवड़ियों का अनवरत प्रवाह पूरे सावनभर चलता ही रहता है। स्थान-स्थान पर स्वयमसेवी संगठनों द्वारा कांवड़ सेवा शिविर आयोजित किये जाते हैं, जिनमें निशुल्क भोजन, जल, चिकित्सा सेवा, स्नान विश्राम आदि की व्यवस्था रहती है। मार्ग स्थित स्कूलों, धर्मशालाओं, मंदिरों में विश्राम करते हुए ये कांवड़ धारी, रास्ते में स्थित शिवमंदिरों में पूजार्चना करते हुए नाचते गाते, “बम बम बोले बम” भोले की गुंजार के साथ शिवरात्रि (श्रावण कृष्णपक्ष त्रयोदशी ़चतुर्दशी) को जलाभिषेक करते हैं। देश के अन्य स्थानों में किसी न किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण श्रावण मास में ऐसे ही विशिष्ठ आयोजन रहते हैं। श्रावण मास की शिवरात्रि के पर्व से लगभग 10-12 दिन पूर्व से चलने वाला यह जन सैलाब आस्था, श्रद्धा विश्वास के सहारे ही अपनी कठिन थकान भरी यात्रा पूरी करता है। अपने परिवार से दूर, कभी उमस भारी भीषण गर्मी तो कभी निरंतर वर्षा के कारण जल भरे सड़कें, गड्ढे ,भीग कर वायरल, आई फ्लू, पेचिश, अतिसार आदि रोगों की मार भी डिगा नहीं पाती इनको। अंतिम दो दिन ये यात्रा अखंड चलती है जिसको डाक कांवड़ कहा जाता है। निरंतर जीप, वैन, मिनी ट्रक, गाड़ियां, स्कूटर्स, बाईक्स आदि पर सवार भक्त अपनी यात्रा अपने घर से गंतव्य स्थान की दूरी के लिए निर्धारित घंटे लेकर चलते हैं। और अपने इष्ट के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। बहुत सी कांवड़ तो बहुत ही विशाल होती हैं जिनको कई लोग उठाकर चलते हैं।


बम बम भोले में बसी है आस्था

बम बम भोले बस यही तीन शब्द हैं जिनके सहारे कांवडिए आगे बढ़े जा रहे हैं, लेकिन यह केवल तीन शब्द नहीं हैं, इन शब्दों में छिपी है अपार आस्था, दिल की गहराइयों में बसी भोले की भक्ति, लाखों मनोकामनाएं और उनके पूरा होने की उम्मीद।


प्रसाद हैं पैरों के छाले

कांवड़ लाने वाले लोगों की संख्या हाइवे पर बढ़ने के साथ ही उनकी सेवा करने वालों की संख्या बढ़ गई है। कांवड़ लेकर आने वाले लोगांं के पैरों में पैदल चलते-चलते छाले पड़ने लगते है। भक्तों को पैरों में छाले एवं बदन दर्द परेशान करता रहता है, लेकिन वह इसे भोले बाबा का प्रसाद मानकर अपनी यात्रा पूरी करने में जुटे रहते हैं। 




Suresh-gandhi


सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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