कम उम्र में शादी होने के कारण लड़कियों की पढ़ाई पूरी तरह से छूट जाती है और जीवन में उन्हें बहुत-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. बाल विवाह को रोकने के लिए राजा राममोहन राय, केशव चंद्र सेन आदि समाजसेवी और प्रबुद्धजनों ने ब्रिटिश सरकार द्वारा एक बिल पास करवाया जिसे स्पेशल मैरिज एक्ट कहा जाता है. सरकार ने पहली बार बाल विवाह प्रथा अधिनियम शारदा एक्ट 1929 के तहत 1 अप्रैल 1930 को बाल विवाह प्रथा को समाप्त किया था. लेकिन कानून बनने के 93 साल बाद भी देश के दूर दराज़ गरीब, पिछड़े, दलित एवं अशिक्षित समाज में बाल विवाह जैसी कुप्रथा मौजूद है. ग्रामीण क्षेत्रों के साथ-साथ शहरों के स्लम बस्तियों में भी बाल विवाह बेरोक-टोक होते हैं. ऐसी भयंकर स्थिति देश के विभिन्न प्रांतों के गांव-कस्बों में अक्सर दृष्टिगोचर होता है.
ऐसी ही एक घटना बिहार के मुजफ्फरपुर जिले से 65 किलोमीटर दूर साहेबगंज प्रखंड के हुस्सेपुर गांव की रजनी (बदला हुआ नाम) के साथ हुई. जिसकी कहानी दिल को झकझोर देती है. ऐसे तो इस गांव में सभी समुदाय के लोग रहते हैं लेकिन मल्लाह (मछुआरों) समुदाय की संख्या अधिक है. यहां गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, रूढ़िवादिता और नशा जैसी बुराइयों ने गहराई से अपनी जड़ें जमा ली हैं. इसी मल्लाह समुदाय के हीरालाल सहनी (बदला हुआ नाम) ने अपनी बेटी रजनी (बदला हुआ नाम) की शादी 14 साल की उम्र में कर दी थी. रजनी खेलने-कूदने की उम्र में मां बनी और बाद में विधवा. रजनी ने बताया कि "मेरे घर वालों ने मेरी मर्जी के खिलाफ शादी कर दी थी. हालांकि मैं पढ़ना चाहती थी. स्कूल जाना चाहती थी. लेकिन मेरे घर वालों ने मेरी एक न सुनी और कम उम्र में ही मुझसे अधिक उम्र के लड़के से मंदिर में शादी करा दी गई." रजनी की 6 बहनें और दो भाई है.
भला मां से बच्चा कैसे अलग हो सकता है? रजनी अपनी संतान को अलग नहीं रखना चाहती थी. इसे लेकर उसका पति से विवाद होता रहा. नौबत यहां तक आ गई कि उसका पति उसके साथ रोज मारपीट करने लगा. एक दिन उसने बच्चे को जान से मारने की कोशिश भी की. जिसके बाद रजनी हमेशा के लिए अपने मायके आ गई. उधर पहले पति के घर वालों द्वारा उसे फिर से अपनाने की बात पर उसने ससुराल में रहने के लिए हामी भर दी. आज वह ससुराल में विधवा बनकर रहने को मजबूर है. जीविकोपार्जन के लिए दूसरे के खेतों में काम करना पड़ता है. रजनी ने बताया कि उसकी 4 और बहनों की शादी भी कम उम्र में ही कर दी गई. सभी बहनों की शादियां अपने से काफी उम्र के लड़कों से हुई है. रजनी के पिता गरीबी के कारण दहेज देने में अक्षम थे. एक बहन छोटी है जिसकी पढ़ाई छूट चुकी है और वह घर का काम करती है जबकि दो भाई हैं जो पढ़ने जाते हैं.
कम उम्र में शादी की घटना केवल रजनी के साथ नहीं है, बल्कि गांव में इस समुदाय की कुछ अन्य लड़कियों के साथ हो रही है. नाम नहीं बताने की शर्त पर गांव की कुछ लड़कियां बताती हैं कि हम अभी शादी नहीं करना चाहती हैं. हम आठवीं के बाद आगे की पढाई करना चाहती थी. लेकिन हमारे पिता ज़बरदस्ती हमारी शादी तय करके हमारे जीवन को बर्बाद करने पर तुले हुए हैं. पिता का कहना है कि ज्यादा पढ़कर क्या करोगी? ऐसी सोच केवल उन पिताओं में ही नहीं है, बल्कि लगभग सभी पुरुषों की यही मानसिकता है. गांव के 50 वर्षीय राजू सहनी कहते हैं कि "लड़की की शादी तो 12-13 साल की उम्र में ही कर देनी चाहिए. वह पढ़कर क्या करेगी? उनको तो घर का काम ही करना है. पढ़ने वाली लड़कियां बहुत बोलने लगती हैं इसलिए उसे घर की चारदीवारी तक ही रखना चाहिए". चिंता की बात यह है कि गांव के सचिव नवल राय की भूमिका भी इस सामाजिक कुरीतियों को रोकने में बहुत अधिक कारगर नहीं दिखी. हालांकि इसी गांव के अन्य समुदायों में यह संकीर्ण मानसिकता हावी नहीं है. अन्य समुदायों के बहुत से ऐसे परिवार हैं जिनकी बेटियां शहर या गांव से दूर पढ़ने जाया करती हैं और उनकी शादी बीए-एमए के बाद होती है.
आंकड़े की मानें तो पूरे भारत में 49 प्रतिशत लड़कियों का विवाह 18 वर्ष की आयु से पूर्व ही हो जाता है. यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 68 प्रतिशत बाल विवाह अकेले बिहार में होते हैं. हालांकि भारत की स्वतंत्रता के समय न्यूनतम विवाह योग आयु लड़कियों के लिए 15 वर्ष और लड़कों के लिए 21 वर्ष निर्धारित थी. वर्ष 1978 में सरकार ने इसे बढ़ाकर क्रमशः 18 और 21 वर्ष कर दिया था. वर्ष 2020 में जया जेटली समिति की स्थापना महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा की गई थी. जिसने प्रजनन स्वास्थ्य, शिक्षा आदि जैसी चीजों पर भी प्रकाश डाला है. वर्ष 2021 में केंद्र सरकार ने सभी धर्मों की लड़कियों के लिए विवाह की आयु 18 से 21 वर्ष तक बढ़ाने के लिए बाल विवाह रोकथाम विधेयक 2021 पेश करने की सिफारिश की थी. यह विधेयक अधिनियमित होने के बाद सभी धर्मों की महिलाओं के विवाह की आयु पर लागू होगा. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या केवल कानून बना देने से समस्या का हल संभव है? क्या पिछड़े व गरीब समुदाय का सामाजिक, मानसिक एवं शैक्षणिक विकास किए बिना बाल विवाह जैसी कुप्रथा पर अंकुश लगाना मुमकिन है? आखिर कब हमारा समाज यह समझेगा कि लड़कियां बोझ नहीं होती हैं? आखिर आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों की लड़कियां कब तक बाल विवाह का दंश झेलती रहेंगी? ज़रूरत कानून से कहीं अधिक जागरूकता फैलाने की है. जिस तरफ सरकार को विशेष ध्यान देने और कार्य योजना बनानी चाहिए.
सिमरन कुमारी
मुजफ्फरपुर, बिहार
(चरखा फीचर)
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