बेचारा कम्पाउण्डर किंकर्तव्यविमूढ़-सा सिर झुकाए खड़ा था जैसे उसे चोरी करते पकड़ा गया हो । वह अब वहां से खिसक जाना चाहता था । मेरी बहन ने रोते-रोते उससे फिर कहा, “जो भी मांगोगे, दे दूंगी, पर मेरे भाई को एक बार ज़िन्दा कर दीजिए।" । मुझे बहन की इस बात पर हंसी आ गई । अभी कल शाम की ही तो बात थी। मेरी बहन और पत्नी में तकरार हो गई थी। बात केवल सवा रुपये की थी। बहन ने अपने पैसे निकालकर अपने बच्चों के लिए बाजार से दूध मंगवाया था और हर एक से कहती फिर रही थी कि मुझे पीहर में भी अपना खर्चा स्वयं करना पड़ता है । यह बात मेरी पत्नी को नागवार गुजरी थी और नौबत तू-तू मैं-मैं तक आ गई थी। मगर इस समय लगता था कि मेरी बहन, वास्तव में, कोई बड़ा त्याग करने को तत्पर है। इतने में मां ने ऊंचे कण्ठ से 'हाय बेटा' पुकारकर स्वयं को मेरे बिस्तर पर गिरा दिया और इस कार्रवाई में मुझे भी अपने फिरन(चोले) में उलझा दिया । दो-तीन औरतों ने जब खींच-खांचकर उसे ऊपर उठा लिया तब जाकर कहीं मेरा उद्धार हुआ।
अब तक कमरा खचाखच भर गया था। मैं जान बचाता हुआ ताक में जाकर बैठ गया। यहां पर भी मुझे ज्यादा देर तक टिकने न दिया गया। मुहल्ले की औरतें जब एक-साथ कमरे में आई तो उन्होंने सबसे पहले अपनी चप्पलें ताक में संभालकर रख दीं। बचता-बचाता मैं पास में रखे एक कांच के गिलास में जा बैठा । कुछ ही समय बाद घरवालों में से कोई बेहोश हो गया। उसके मुंह पर पानी के छींटे देने के लिए गिलास को ताक में से उठाया गया । मैं एक ही छलांग में सभी मर्द-औरतों के ऊपर से होता हुआ दरवाजे के पास रखे हुए तम्बाकू के डिब्बे पर जाकर बैठ गया और वहीं से सब कुछ देखने लगा। औरतें समवेत स्वरों में रो रही थीं। कुछ विह्वल होकर मेरे निर्जीव गालों के ऊपर अपने गाल रखकर मेरा माथा चूमने का प्रयास कर रही थीं। कुछ रह-रहकर मेरे सिर के बालों में हाथ फेर रही थीं। इस सबमें इतना आनन्द था कि मैं खुद अपनी मौत पर आशिक हो गया। आजकल के ज़माने में लोगों का इस प्रकार से इकट्ठा मिलना कहां होता है ? कहां एक-दूसरे के लिए इतनी सहानुभूति देखने को मिलती है ? आंसू बहाना तो दूर की बात है। इस मृत चेहरे को आज पहली बार दूसरों के चेहरे का स्पर्श तथा चुम्बन कितना प्रिय लगा होगा, मैं कह नहीं सकता। अपनी माताओं को रोते देख बच्चों की भी हिचकियां बंध गई थीं। मेरे खुद के दो बच्चे कल तक यहीं थे-सहमे-सहमे बिल्ली के बच्चों जैसे । पर आज सुबह से ही वे कहीं दिख न रहे थे। शायद उनको बानबूझकर ननिहाल भेज दिया गया था। पिताजी को सबेरे से ही सन्देह हो गया था कि साहबज़ादे को दगा देना है । एक घंटा पहले मेरी बेहोशी में उन्होंने मेरे कान के पास आकर भर्राई आवाज में कहा था, "बेटा ! मुझे दगा देकर न जाना । अपने बच्चों को यों अनाथ करके न चले जाना। सुन रहे हो? बुढ़ापे में यह बोझ अब मुझसे सहा नहीं जाएगा ।" मैं सब सुन रहा था पर उस समय मुझमें बोलने की शक्ति न थी। इस समय में बिलकुल ठीक था। शरीर की पीड़ा, दिल का दर्द ब अन्य बन्धन नीचे पड़े उस निर्जीव शरीर के साथ जुड़े थे और मैं इन सबसे मुक्ति पा चुका था।
मैं एक-एक को हाथ जोड़कर समझाने-मनाने की कोशिश कर रहा था मगर मेरी बातों की ओर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा था, जैसे मैं वहां पर था ही नहीं । अपनी पत्नी का ज़ोर-ज़ोर से छाती पीटना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। वह भी समय था जब बीमारी के दिनों में मैं उसे पास में बैठने को कहता। मगर वह इशारों में समझाती :’यह सास-ससुर जो यहां बैठे हैं, यह बहन और जीजाजी जो आपके पास हैं, इनके सामने मैं कैसे आऊँ? ये लोग भला क्या सोचेंगे।‘ इच्छा हो रही थी कि अब पूछूँ कि इन सबके सामने इस तरह चिल्लाने और छाती पीटने में अब तुम्हें शर्म क्यों नहीं आ रही है? क्या मेरी मौत से लाज के सब पर्दे उठ गए ? वे रस्मोरिवाज और शर्मो-हया सब कहां गए? तूने ब्लाउज फाड़कर छाती पर जो ये घाव किए हैं, उन्हें सबको दिखाने की आखिर क्या जरूरत है? क्या यह जताने के लिए कि तुमको मुझ से कितना प्रेम था ? तू भला अब इस मिट्टी के शरीर के लिए इतना शोक क्यों प्रकट कर रही है ? जब पिताजी नंगे सिर अंगुलियों के नाखून चबाते हुए अन्दर कमरे में आए तो मेरी मां उनको देख और भी ज़ोर से चीख उठी, "हाय बेटा! अब यह तुम्हारा बूढ़ा बाप पहली तारीख को किसके सामने अधिकारपूर्वक हाथ बढ़ाएगा? अब किसकी जेबों में निःसंकोच हाथ डाला करेगा ? तू हमारे लिए कोई प्रबन्ध करता जा। हाय ! इस बूढ़े बाप को तूने किस मुसीबत में डाल दिया?
पिताजी ने मेरे मृत शरीर पर से चादर सरकाई और रुंधे कंठ से कहने लगे, "तुझे ज़रा भी फुर्सत नहीं थी क्या ? कौनसे ‘दरबार’ में तुझे हाज़िर होना था ? अरे, तू तो आफिस तक मुझसे पूछकर जाया करता था। निकले ना आखिर नालायक ही।" मैं दूर बैठा सब सुन रहा था और मन-ही-मन इस बात पर हंस रहा था कि आज बहुत दिनों बाद पिताजी मुझसे सीधे मुंह बात कर रहे थे। मेरा ध्यान दूसरी ओर गया। मेरी पत्नी बेहोश हो गई थी। उसकी जीभ दांतों तले जकड़ गई थी। आंखें स्थिर हो गई थीं तथा हाथ-पांव सो गए थे । दो-एक मुहल्लेवालियों ने आव देखा न ताव और झट से बिस्तर से एक रजाई खींच ली और उसपर मेरी पत्नी को लिटा दिया। इस भगदड़ में मैं दो-तीन औरतों के बीच में दब-सा गया। मेरी बहन और पिताजी मेरी पत्नी की सुश्रूषा में जुट गए । मैं उड़कर हुक्के की चिलम के ऊपर बैठ गया। थोड़ी देर बाद पिताजी दूसरे कमरे में चले गए और हुक्का भी वहीं मंगवाया गया। इस कमरे में मुहल्ले के मर्द लोग बैठे हुए थे। प्रायः सभी को मैं जानता था। मेरी ही बातें हो रही थीं। मेरे गुणों कर खुलकर बखान किया जा रहा था। अधिकांश बातें मनगढ़त थीं। जो मैंने किया भी न था, उसे भी मेरे साथ जोड़ा जा रहा था। एक महाशय का मैंने प्रतिवाद भी किया, "भाई साहब, क्यों झूठ बोल रहे हैं आप ? हो जाती थी दुआ-सलाम कभी-कभी। मगर इतनी घनिष्ठता तो नहीं थी जितनी आप जता रहे हैं।" पिताजी को इस झूठ-सच से कोई मतलब न था। वे औरों की सुन कम तथा अपनी बोल ज्यादा रहे थे। वे पाई-पाई का हिसाब बता रहे थे कि मेरी बीमारी पर कितना खर्च हुआ, क्या-क्या दवाइयां आईं, कौन-कौन से इलाज किए गए आदि । जाने वाले को तो दगा देकर जाना था, दोष किसे दें?
हर नये आनेवाले का मैं उत्साह से अभिवादन करने के लिए खड़ा हो जाता, कुशल क्षेम पूछता, मगर मेरी और कोई आंख उठाकर भी नहीं देखता था। इतनी उपेक्षा देकर मैंने सोचा, अब यहां से चल देना ही उचित है । मैं एक बार फिर पास वाले कमरे में गया ताकि अपने शरीर के आखिरी बार दर्शन कर सकूँ । किवाड़ भीतर से बंद थे। मैं एक ही छलांग में किवाड़ के एक छेद से अन्दर घुस गया। मेरी मौसी और एक मुहल्ले की औरत को छोड़ शेष सभी औरतें नीचे चली गई थीं। मेरी मौसी उस मुहल्ले वाली की सहायता से मेरी लाश की जेबों की तलाशी ले रही थी। जब कोट की अन्दर वाली जेब से मौसी को सौ रुपये मिले तो वह कहने लगी "बहना, इसके ऊपर किसी का कोई अहसान नहीं है । यह देख, बेचारे ने कफन तक के पैसे पहले से ही बचाकर रख छोड़े हैं । तू इसके बाप की बातों पर न जाना कि उसने इसके इलाज पर पांच सौ रुपये खर्च किए। भरी जवानी तो इस बेचारे की गई, किसी का क्या गया?" अन्य जेबों की तलाशी लेने पर उसे घड़ी, रूमाल, कुछ पर्चियाँ आदि मिलीं। नीचे आकर मौसी ने ये सारी चीजे मेरी मां के हवाले कर दीं। मां ने सिसकियां भरते हुए पूछा, "और कुछ तो नहीं था जेबों में ?" इस प्रश्न के उत्तर में ज्यादा रूचि न लेकर मैं बाहर आंगन में आ गया। आंगन में थोड़ी-सी जगह को लीपा गया था। पण्डित जी मिट्टी के बर्तन, तिल, कपूर, मधु, घी, सूखी मछलियां, दीप आदि सामान करीने से रख रहे थे। कफन भी मंगवाया जा चुका था। कुछ औरतें चूल्हे पर पानी गर्म कर रही थीं। थोड़ी देर बाद मेरे साथी लोग मेरी मृत देह को चादर में लपटे कर नीचे गलियारे में ले आए । उन सबका दम फूल गया था, ऐसा मुझे स्पष्ट दिख रहा था। शव को देखकर औरतों का रोना-धोना वापिस शुरू हो गया। अब शव के करीब आने की कोई भी हिम्मत न कर रहा था। दरवाजे के एक कपाट पर मेरी देह को रखा गया और उसे गर्म पानी से नहलाया गया।
शव-यात्रा प्रारम्भ हुई । मेरा बड़ा लड़का, जिसे ननिहाल से बुलाया जा चुका था, अर्थी के आगे-आगे था। वह एक मिट्टी के बर्तन में से कुश द्वारा पानी निकालकर मार्ग पर छींटे देता हुआ आगे बढ़ रहा था। आसपड़ोस के बच्चे और औरतें खिड़कियों से छिप-छिपकर मेरी अर्थी का यह जुलूस देख रहे थे । सभी लोग अर्थी के पीछे-पीछे हो लिए। मैं आंगन में एक बड़े पत्थर पर बैठा अकेला सोचने लगा:शादी और मातम में कोई खास फर्क तो नहीं है। वही भीड़-भड़क्का, वही जोश-खरोश, वही रस्मोरिवाज।।"। तभी मेरी नज़र पिताजी पर पड़ी ।वे शव-यात्रा में शायद इसलिए सम्मिलित नहीं हुए थे, क्योंकि पीछे घर की व्यवस्था देखने वाला कोई न था । बहुत बेचैन लग रहे थे। कभी कमरे के अन्दर और कभी बाहर आ-जा रहे थे। महीने का अन्त होने को आया था और घर में खाने-पीने की चीजें समाप्ति पर थीं। दूर-पास के लगभग सभी रिश्तेदार इकट्ठे हो चुके थे। ज्यादा नहीं तो कम से कम दो-एक दिन उनके लिए भोजन आदि की व्यवस्था तो करनी थी। पिताजी इसी उधेड़बुन में थे। साम पड़े तक श्मशान से सभी लोग-बाग लौट आए। सभी के चेहरों से असीम थकान टपक रही थी। वे अब आराम करना चाहते थे, ऐसा साफ लग रहा था। मैंने अपनी ओर से अपनी उपस्थिति का भान कराने के लिए खूब प्रयत्न किए, पर मेरी ओर किसी ने भी ध्यान न दिया। इसी बीच मुख्य-द्वार बंद कर दिया गया और मैं बाहर आंगन में रह गया। आधी रात गए तक मैं इस निष्कर्ष पर पहंचा कि अब इस घर में मेरी ज़रूरत किसी को भी नहीं रही। बार-बार यही ख्याल आने लगा कि मुझे अपने शरीर के साथ जाकर यह देख लेना चाहिए था कि आखिर मेरी मंजिल क्या है ? धिक्कार है मुझपर जो मरकर भी इस संसार की झूठी ममता से मुक्त न हुआ। मैं अपने शरीर की स्थिति को देखने के लिए श्मशान घाट की ओर चल दिया। श्मशान घाट पर एक चिता जल रही थी और उसके पास ही मुझ जैसी एक रूह दहकते अंगारे की तरह तैर रही थी। मरने के बाद मुझे पहली बार अपने जैसा कोई साथी मिला जो मेरी बातें समझ सका और मैं उसकी। मैंने पूछा:
"भाई, तुम कौन हो?"
"जो तुम हो । मेरी चिता यह रही। मगर तुम्हारी कहां है?
"मालूम नहीं, यहीं कहीं जली होगी," मैंने कहा।
"क्या कहा, तुम्हें मालूम नहीं?"
"मैं घर में ही रह गया था," मैंने झेंपते हुए उत्तर दिया।
“बड़े नासमझ हो। क्या तुम्हारा इरादा जिन्न/भूत बनने का है? क्या तुम्हें नहीं मालूम कि जिन इंसानों की ममता में तुम बंधे हो उनके ऊपर अब तुम्हारा साया तक नहीं पड़ना चाहिए। उधर देखो,सिर से पैर तक काली चादर से ढका,वह जो इधर आ रहा है ,उसे जानते हो?”
"नहीं, मैंने पहले उसे कभी नहीं देखा है" मैंने उत्तर दिया।
"वह एक तान्त्रिक है । उसे तुम्हारी जैसी किसी आवारा रूह की तलाश है। वह उसे वश में करके गुलाम बनाएगा। फिर इस रूह को उसकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना होगा। वह कहेगा, पीतल का सोना बनाओ। उसे बनाकर देना होगा। वह देश-देश में फिरने को कहेगा, उसे वैसा ही करना होगा।" "नहीं, नहीं, मैं उसके हाथ में नहीं पड़ूँगा। मैं भाग जाऊंगा।" मेरी नज़र उस तान्त्रिक पर थी जो इस समय पास की जलती चिता पर अपने चाकू की धार को गर्म-लाल कर रहा था।
"भागकर कहां जाओगे?"
"इन्सानों के पास। इतनी बड़ी दुनिया में क्या मुझे कहीं पर भी जगह नहीं मिलेगी?" मैं एक ही श्वास में कह गया।
वह जोर-जोर से हंसने लगा।
"वे तुम्हें अपने पास फटकने भी न देगें। बिना शरीर के रूह भूत कहलाती है और बिना रूह के शरीर का कोई मूल्य नहीं है। क्या तुम चाहते हो कि तुम्हें भी कोई तान्त्रिक वश में करके गर्म-गर्म चाकू लगाकर तुमसे काम कराए।" तान्त्रिक गर्म-लाल चाकू से ज़मीन पर कुछ रेखाएं खींच रहा था । मुझे लगा जैसे कोई अदृश्य शक्ति मुझे उसकी ओर खींच रही है। मैं वहां से भागा :
"नहीं, नहीं, मुझे भूत नहीं बनना है।"
मगर दूसरे ही क्षण मुझे ध्यान आया, 'मैं तो अधूरा रह गया हूं,नामुकम्मल । मुझे अब पूरा कौन करेगा ? कौन करेगा?' तान्त्रिक अभी भी रेखाएं खींच रहा था।
रूपान्तर : डा० शिबन कृष्ण रैणा
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