आलेख : काशी में होता है पाताल लोक के नागकूप का दर्शन - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 20 अगस्त 2023

आलेख : काशी में होता है पाताल लोक के नागकूप का दर्शन

नाग पंचमी की अनोखी मान्यताएं काशी में आज भी जीवंत हैं। मान्यताओं और परंपराओं के इस मेले में आज भी बड़ी संख्या में आस्थावानों का जमघट होता है। मान्यतय है कि यह कुंआ पाताल लोक से जुड़ा है। इस कुए को नागों का घर भी कहा जाता है। श्रद्धालुओं की मानें तो े तक्षक नाग इसी कुएं में निवास करते है। दावा है कि यहां के दर्शन मात्र से ही काल सर्प दोष ठीक हो जाता है। अकाल मृत्यु का कारण खत्म हो जाता है 

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वाराणसी के जैतपुर में स्थित नाग कुएं में विराजमान है नागेश्वर महादेव। श्रद्धालु यहां आकर नागेश्वर महादेव को दूध, लावा और तुलसी की माला से पूजा करते हैं, क्योंकि शेषनाग को तुलसी बहुत प्रिय है। खासकर नाग पंचमी के दिन पास पड़ोस ही नहीं देशभर से श्रद्धालु आते हैं। कूप में विराजमान नागेश्वर महादेव के दर्शन करते है। कहते है जिस किसी भी व्यक्ति को स्वप्न में बार-बार सर्प या नाग देवता के दर्शन होते हैं, इस कुंड का जल घर में छिड़काव करने से इन दोषों से मुक्ति मिल जाती है. मान्यता है कि नागपंचमी के दिन दर्शन करने व नाग नागिन का जोड़ा चढ़ाने से काल सर्पदोष दूर हो जाता है। यहां के कुंए का पानी 43 दिन लगातार मंसा मां को चढ़ाने से उसके सारे दुख-दर्द कट जाते है। नागकुंड में दर्शन करने वालों की सुबह से ही कतार लग जाती है। मंदिर और कुंआ हज़ारो साल पुराना है। इस कुएं का वर्णन शास्त्रों में भी किया गया है। इसे ‘करकोटक नाग तीर्थ’ के नाम से जाना जाता है। इस नाग कुंड को नाग लोक का दरवाजा बताया जाता है। इसी स्थान पर महर्षि पतंजलि ने पतंजलि सूत्र तथा व्याकरणाचार्य पाणिनी ने महाभाष्य की रचना की थी। मंदिर के पुजारी का कहना है कि एक बार नागराज तक्षक वाराणसी संस्कृत की शिक्षा लेने आएं। लेकिन उन्हे गरुण देव से भय था जिसकी वजह से वह बालक रूप में बनारस आएं। गरूण देव को इस बात का पता चल गया कि तक्षक बनारस में है और उन्होंने उस पर हमला कर दिया। हालांकि अपने गुरू का प्रभाव होने के नाते गरुण देव को तक्षक नाग को अभय दान देना पड़ा। कहते है इस नागकूप पर महर्षि पतंजलि ने तपस्या की थी। महर्षि पतंजलि के इस तपोस्थली का उल्लेख स्कंद पुराण में है। महर्षि पतंजलि शेषावतार भी माने जाते हैं। नाग पंचमी पर हर साल उनकी जयंती इस स्थान पर मनाई जाती है। जयंती पर नागकुआं पर शास्त्रार्थ का आयोजन होता है। मान्यता है कि नाग पंचमी के दिन स्वयं महर्षि पतंजलि सर्प रूप में आते हैं और बगल में नागकूपेश्वर भगवान की परिक्रमा करते हैं। इसके बाद शास्त्रार्थ में बैठते हैं और शास्त्रार्थ में शामिल विद्वानों और बटुकों पर कृपा भी बरसाते हैं। इस अनादि परंपरा को जीवंत पर्व के दिन बनाया जाता है।


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नागकूप के बारे में कहा जाता है कि पाताल लोक जाने का रास्ता है। इस कूप के अंदर सात कूप है। इस कुंए की गहराई 100 फीट है। सिर्फ नागपंचमी के मौके पर ही दर्शन होता हैं। शास्त्रार्थ परंपरा युगों पुरानी वैदिक कालीन परंपरा से जुड़ी है। महर्षि पतंजलि की जैतपुरा में नागकूप में स्थापना मानी जाती है। पतंजलि की परंपरा शास्त्रार्थ की रही है, इस लिहाज से नागकूप में परंपरा का मान रखते हुए प्रतिवर्ष परंपराओं का अनुपालन किया जाता है। प्रतिवर्ष इसका निर्वहन नागकूप क्षेत्र में आज भी किया जाता है। माना जाता है कि पूरी दुनिया में केवल तीन ही जगह कालसर्प दोष की पूजा होती है, उनमें यह नाग कुआं पहले स्थान पर है। कुआं के अंदर शिवलिंग हमेशा पानी में डूबा रहता है। नागपंचमी के दिन होने वाले मेले से पहले पंप द्वारा कुएं का सारा पानी बाहर निकाला जाता है। उसके बाद उसमें जो शिवलिंग स्थापित है उसका श्रृंगार व पूजा-पाठ करके वापस रख दिया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद अपने आप एक घंटे में कुआं वापस भर जाता है। पानी आने का रहस्य आज भी बना है। कूप निर्माण को लेकर बताया जाता है, इसका जीर्णोद्धार संवत एक में किसी राजा ने करवाया था। इस हिसाब से इसका समयकाल लगभग 2074 साल पुराना है। महर्षि पतंजलि ने यहीं पर अपने गुरु पाणिनि के साथ कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की, जिसमें महाभाष्य, चरक संहिता, पतंजलि योग दर्शन प्रमुख हैं। महर्षि पतंजलि शेषावतार थे, इसलिए वे पर्दे की आड़ से अपने सभी शिष्यों को एक साथ सभी विषय पढ़ाते थे। किसी को भी पर्दा हटाने की परमिशन नहीं थी। इस कूप में पानी कहां से आता है यह रहस्य आज भी बरकरार है। अंदर कूप की दीवारों से पानी आता रहता है। सफाई के लिए दो-दो पम्पों का सहारा लेना पड़ता है। इसके चारों तरफ सीढ़िया हैं। नीचे कूप के चबूतरे तक पहुंचने के लिए दक्षिण से 40 सीढ़ियां, पश्चिम से 37, उत्तर और पूरब की ओर दीवार से लगी 60-60 सीढ़ियां हैं। इसके आलावा कूप में शिवलिंग तक उतरने लिए 15 सीढ़ियां हैं। कूप में दक्षिण दिशा ऊंची है, जिसमें 40 सीढ़ियां हैं, जो प्रमाणित करती है यह कूप पूरी तरह वास्तुविधि से बना है।


पौराणिक मान्यताएं

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भगवान शिव के गले का हार नाग वासुकी हैं। वहीं जगत के पालनहार भगवान विष्णु भी नाग की शय्या पर शयन करते हैं। इसके अलावा विष्णु की शय्या बनें शेषनाग पृथ्वी का भार भी संभालते हैं। मान्यता है कि नाग भले ही विष से भरे हों लेकिन वह लोक कल्याण का कार्य अनंत काल से करते आ रहे है। इन्हीं नाग देव को मनाने के लिए नाग पंचमी के दिन नागों की पूजा की जाती है, जिससे नाग का भय न हो और साथ ही हमारी कुंडली में अगर कालसर्प दोष हो तो वह उसे समाप्त करें। राहु और केतु से पीड़ित व्यक्ति को यहां पूजा से काफी लाभ और फायदा मिलता है। यहां के जल को घरों में छिड़कने से सर्पभय नहीं रहता और पूजा से सर्पभय से मुक्ति मिलती है। 


छोटे गुरू और बड़े गुरू के पीछे की कहानी...

वैसे तो नागपंचमी के दिन छोटे गुरु और बड़े गुरु के लिए जो शब्द प्रयोग किया जाता है उससे तात्पर्य यह है कि हम बड़े व छोटे दोनों ही नागों का सम्मान करते हैं और दोनों की ही विधिविधानपूर्वक पूजन अर्चन करते हैं। क्योकि, महादेव के श्रृंगार के रूप में उनके गले में सजे बड़े नागदेव हैं तो वहीं उनके पैरों के समीप छोटे-छोटे नाग भी हैं और वो भी लोगों की आस्था से जुड़े हुए होते हैं।


सात पीढियों की रक्षा करेंगे नाग देवता

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नागपंचमी मानव मित्र सर्पों का विनाश रुकवाने, शत्रुता खत्म करने और सद्भाव बढ़ाने का पर्व है। मान्यता है इस बार ऐसा संयोग है जिस किसी ने भी अगर विधि-विधान से पूजा कर ली तो उसके सात पीड़ियों की रक्षा करेंगे नाग देवता। कहते हैं सर्प वायु पीता है अर्थात वायुमंडल की संपूर्ण विषाक्तता को स्वयं ग्रहण कर वह मानव व अन्य जीव-जंतुओं के लिए स्वच्छ पर्यावरण प्रदान करता है। शायद इसीलिए नाग कल्याणकारी शिव को सर्वाधिक प्रिय है। उन्होंने बासुकी नाग को अपने गले का हार बना लिया। इसलिए नाग भी देवता के रूप में पूजे जाने लगे। शिव ने स्वयं भी तो समुद्र मंथन से निकले विष को जगत के कल्याण के लिए अपने कंठ में धारण कर लिया। बौद्ध साहित्य में भी उल्लेख है कि बासुकी नाग भगवान बुद्ध का उपदेश सुनने के लिए अपनी प्रजाति के साथ आता था। रामायण और महाभारत में भी बासुकी की कथाओं का उल्लेख है। शास्त्रों में पाताललोक को नागलोक के रूप में मान्यता दी गयी है। कहते हैं नागदेवता की पूजा से कालसर्प दोष से मुक्ति मिलता है। इस दिन महिलाएं नाग देवता की आराधना के साथ परिवार की सुख-समृद्धि और दीर्घायु की कामना करती हैं। इस व्रत के प्रताप से कालभय, विषजन्य मृत्यु और सर्पभय नहीं रहता। नागपंचमी के व्रत का सीधा सम्बन्ध उस नाग पूजा से भी है जो शेषनाग भगवान शंकर और भगवान विष्णु की सेवा में तत्पर है। इनकी पूजा से शिव और विष्णु पूजा के तुल्य फल मिलता है। नागपंचमी के दिन भगवान शिव के विधिवत पूजन से हर प्रकार का लाभ प्राप्त होता है। नागपंचमी के दिन नागदेवता का दूध से अभिषेक कर पूजा करने से परिवार पर उनकी कृपा बनी रहती है। मान्यता है कि जो भी श्रद्धालु नागदेवता की पूजा करते हैं, नागदेव उनके परिवार के सदस्य की रक्षा करते हैं। परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु नाग के डंसने से नहीं होती। मान्यता है कि इस शुभ तिथि के दिन सृष्टि के अनुष्ठाता ब्रह्मा ने शेषनाग को पृथ्वी का भार धारण करने का आदेश दिया था।


शेषनाग के फन पर टिकी है पृथ्वी

कहते हैं इस दिन नागों की पूजा करने का विधान है। हिन्दू धर्म में नागों को भी देवता माना गया है। महाभारत आदि ग्रंथों में नागों की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है। महाभारत के अनुसार महर्षि कश्यप की तेरह पत्नियां थीं। इनमें से कद्रू भी एक थी। कद्रू ने अपने पति महर्षि कश्यप की बहुत सेवा की, जिससे प्रसन्न होकर महर्षि ने कद्रू को वरदान मांगने के लिये कहा। कद्रू ने कहा कि 1 हजार तेजस्वी नाग मेरे पुत्र हों। महर्षि कश्यप ने वरदान दे दिया जिसके फलस्वरूप सर्पों की उत्पत्ति हुई। इनमें शेषनाग, वासुकि, तक्षक आदि प्रमुख थे। कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी शेषनाग थे। इनका एक नाम अनन्त भी है। शेषनाग ने जब देखा कि उनकी माता व भाइयों ने मिलकर ऋषि कश्यप की एक और पत्नी के साथ छल किया है तो उन्होंने अपनी मां और भाइयों का साथ छोड़कर गंधमादन पर्वत पर तपस्या करनी आरम्भ की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उन्हें वरदान दिया कि तुम्हारी बुद्धि कभी धर्म से विचलित नहीं होगी। ब्रह्मा ने शेषनाग को यह भी कहा कि यह पृथ्वी निरंतर हिलती-डुलती रहती है। अतः तुम इसे अपने फन पर इस प्रकार धारण करो कि यह स्थिर हो जाय। इस प्रकार शेषनाग ने सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने फन पर धारण कर लिया। क्षीर सागर में भगवान विष्णु शेषनाग के आसन पर ही विराजित होते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण व श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम शेषनाग के ही अवतार थे।


नागों की मां थी सुरसा

रामायण में सुरसा को नागों की माता और समुद्र को उनका अधिष्ठान बताया गया है। महेन्द्र और मैनाक पर्वतों की गुफाओं में भी नाग निवास करते थे। हनुमान जी द्वारा समुद्र लांघने की घटना को नागों ने प्रत्यक्ष देखा था। नागों की स्त्रियां अपनी सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध थी। रावण ने कई नाग कन्याओं का अपहरण किया था। प्राचीन काल में विषकन्याओं का चलन भी कुछ ज्यादा ही था। इनसे शारीरिक सम्पर्क करने पर व्यक्ति की मौत हो जाती थी। ऐसी विषकन्याओं को राजा अपने राजमहल में शत्रुओं पर विजय पाने तथा षड्यंत्र का पता लगाने हेतु भी रखा करते थे। रावण ने नागों की राजधानी भोगवती नगरी पर आक्रमण करके वासुकि, तक्षक, शंक और जटी नामक प्रमुख नागों को परास्त किया था। कालान्तर में नाग जाति चेर जाति में विलीन हो गयी जो ईस्वी सन के प्रारम्भ में अधिक समपन्न हुई थी।


खेतों की रक्षक है नाग

भारत में नागों को खेत की रक्षा करने वाला बताया गया है। यहां नागों को क्षेत्रपाल भी कहा जाता है। जीव-जंतु जो फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं, सांप उन्हें खाकर खेतों को हरा-भरा रखने में मदद करते हैं। नागपंचमी के दिन लोग नाग देवता का सत्कार करते हैं और इनकी पूजा करते हैं।


घरों में नहीं चढ़ता तवा

परम्परा के अनुसार नागपंचमी के दिन घर-घर में नागदेवता का पूजन किया जाता है। महिलाएं नागदेवता की पूजा करने के साथ ही वर्षों पुरानी परम्परा को आज भी बरकरार रखी है। जिसके चलते घर में तवा भी नहीं चढ़ाया जाता और न ही चावल बनाये जाते हैं। केवल दाल-बाटी जैसे व्यंजन का उपयोग होता है। इसलिये घर-घर में दाल-बाटी ही बनती है। साथ ही चाकू या कैंची का उपयोग भी नहीं किया जाता। इस दिन केवल गुड़ की मिठाई का भोग लगाने का विशेष महत्व है।


नहीं होती खुदाई ं

इस दिन पृथ्वी की खुदाई करना वर्जित है। भोले भण्डारी नागपंचमी के दिन अपनी झोली से विषैले जीव को भूमि पर विचरण के लिये छोड़ देते हैं और जन्माष्टमी के दिन पुनः अपनी झोली में समेट लेते हैं। इस मास में भूमि पर हल नहीं चलाना चाहिये। मकान बनाने के लिये नींव भी नहीं खोदनी चाहिये। इस दिन किसी सपेरे से नाग खरीदकर उसे खुले जंगल में छोड़ने से शांति मिलती है। पूजा में चंदन की लकड़ी का प्रयोग अवश्य करें।


जब सांप ने बनाया बहन

कहावत है कि एक सेठ के सात बेटे थे। सातों की शादी हो चुकी थी। सबसे छोटे बेटे की पत्नी काफी सुंदर, सुशील और ज्ञानी थी। लेकिन उसका कोई भाई नहीं था। एक दिन बड़ी बहु के साथ सभी बहुएं घर लीपने के लिए मिट्टी लाने गईं। मिट्टी निकालते समय वहां एक सांप नजर आया। जिसे देखते ही बड़ी बहु हाथ में मौजूद खुरपी से उसपर वार करने लगी। यह देख छोटी बहु चिल्ला पड़ी और बड़ी बहु से विनती कर बोली कि इसका अपराध क्या है, इसे न मारो। अगले दिन छोटी बहू को अचानक याद आया कि उसने सर्प से वहीं रुकने को कहा था। वह दौड़ती हुई वहां पहुंची तो देखी कि सांप वहीं बैठा है। वह बोली, भैया मुझे माफ करना। मैं भूल गई थी कि आपको मैंने यहां रुकने के लिए कहा था। सांप ने कहा, अब आज से तुम मेरी बहन हुई तो जो हुआ उसके लिए मैं तुम्हें माफ करता हूं। अब तुम्हें जो चाहिए वह मुझसे मांग लो। छोटी बहू ने कहा कि मुझे कुछ नहीं चाहिए। आप मेरे भाई बन गए, मुझे सबकुछ मिल गया। कुछ दिन बीत जाने के बाद वही सांप मनुष्य का रूप लेकर बहू के घर आया और परिवार वालों से कहा कि मेरी बहन को मेरे साथ कुछ समय के लिए भेज दें। घरवालों ने कहा कि इसका तो कोई भाई था ही नहीं तो तू कौन हैं। उसने कहा कि मैं दूर का भाई लगता हूं और जब छोटा था तभी मैं गांव से बाहर चला गया था। घरवालों को यकीन हो जाने के बाद अपनी बहन को लेकर वह अपनी घर की ओर चल पड़ा। रास्ते में बहन को याद दिलाते हुए उस मनुष्य ने कहा कि बहन तुम डरना मत। मैं वही सर्प हूं और चलने में कोई भी दिक्कत हो तो बस मेरी पूंछ पकड़ लेना। सर्प के घर पहुंचकर उसने देखा कि उसके घर खूब धन-सम्पत्ति है। एक दिन सांप की मां कहीं जा रही थी तो उसने सांप को ठंडा दूध पिलाने को उससे कहा। वह भूल गई और गर्म दूध उसे पिला दिया। जिससे सांप का मुंह जल गया। जब मां लौटकर आई तो काफी नाराज हुई। लेकिन बेटे के कहने पर उसने उसे माफ कर दिया। फिर, उसे बहुत सारा धन-सम्पत्ति, सोना-चांदी, हीरे-जवाहरात आदि देकर अपने घर विदा कर दिया। इतना सारा धन देख छोटी बहू के ससुराल वाले हैरान थे। सांप ने अपनी बहन को हीरा और मणि से जड़ा एक हार लाकर दिया। उस हार के बारे में सुन नगर की रानी राजा से इसे मंगाने का जिद कर बैठी। यह हार मंत्री को कहकर मंगा तो लिया गया, लेकिन जैसे ही रानी ने इसे पहना वह हार सांप बन गया। राजा ने इसे छोटी बहू का जादू समझकर उसे हवेली बुलवाया। जैसे ही यह हार छोटी बहू ने अपने गले में डाला यह फिर हीरे और मणियों का बन गया। राज ने सच्चाई जानकर उसे बहुत सारा धन-संपत्ति देकर विदा कर दिया। घर में छोटू बहू को सोने-चांदी से लदा देख बड़ी बहुओं को ईर्ष्या होने लगी तो वे उसपर तरह-तरह के लांछन लगाने लगीं और उसके पति से पूछने को कहा कि वह इतना धन-संपत्ति कहां से लाई है। पत्नी ने पति से सब सच-सच बता दिया। यह बता ही रही थी कि सांप उसी समय प्रकट हुआ और उसने कहा कि जो भी मेरी बहन के चरित्र पर शक करेगा उसे में डस लूंगा। छोटी बहू के पति ने माफी मांगी और सर्प देवता का खूब आदर-सत्कार किया। उसी दिन से यह नागपंचमी का त्योहार मनाया जाने लगा। कहते हैं महिलाएं सांप को भाई मानकर नागदेवता की पूजा किया करती हैं।




Suresh-gandhi


सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी 

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