तीलू रौतेली का ऐतिहासिक गांव पौड़ी जिले के चौंदकोट परगना के अंतर्गत आता है। गांव में आज भी उनका पैतृक मकान मौजूद है। यह मकान 17वीं शताब्दी में बना बताया जाता है। भवन का सामने का हिस्सा ठीक हाल में है, जबकि पिछला हिस्सा खंडहर बन गया है। प्रदेश सरकार ने गांव में वीरांगना तीलू रौतेली की प्रतिमा तो स्थापित की है, लेकिन उनके पैतृक भवन की आज तक किसी ने सुध नहीं ली है। गुराड़ के प्रधान किरण सिंह रावत ने बताया कि तीलू रौतेली के वंशज कुछ वर्षों पूर्व तक यहां रहा करते थे, लेकिन अब यह भवन वीरान होने से खंडहर बन रहा है। मकान के पीछे का हिस्सा जर्जर होकर खंडहर में तब्दील हो गया है। महिला कांग्रेस की प्रदेश महामंत्री रंजना रावत ने राज्य सरकार से तीलू रौतेली के जन्म स्थान और शहीद स्थल को विरासत घोषित कर संरक्षण और विकसित करने की मांग की है। तीलू रौतेली की जयंती हर साल 8 अगस्त को मनाई जाती है। इस दिन उत्तराखंड के लोग पेड़ लगाते है और साथ ही सांस्कृतिक उत्सव भी आयोजित किये जाते हैं। 8 अगस्त 1661 को तीलू रौतेली का जन्म हुआ था। इसी उपलक्ष्य में राज्य सरकार इस दिन की याद में तीलू रौतेली की जयंती मनाती है। उत्तराखंड में सत्रहवीं शताब्दी में तीलू रौतेली नामक वीरांगना ने 15 वर्ष की आयु में दुश्मनों के साथ 7 वर्ष तक युद्ध कर 13 गढ़ों पर विजय पाई थी और वह अंत में अपने प्राणों की आहुति देकर वीरगति को प्राप्त हो गई थी। ऐसी वीरांगना तीलू रौतेली की जीवनगाथा पर डॉ. राजेश्वर उनियाल ने एक नाटक भी लिखा है जो बताते हैं कि भारत सरकार के राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (नेशनल बुक ट्रस्ट), नई दिल्ली ने इसे प्रकाशित भी किया है। तीलू रौतेली के पिता का नाम गोरला रावत भूपसिंह था, जो गढ़वाल नरेश राज्य के प्रमुख सभासदों में से थे। गोरला रावत गढ़वाल के परमार राजपूतों की एक शाखा है जो संवत्ती 817( सन् 760) में गुजर देश (वर्तमान गुजरात राज्य) से गढ़वाल के पौड़ी जिले के चांदकोट क्षेत्र के गुरार गांव (वर्तमान गुराड़ गांव) मे गढ़वाल के परमार शासकों की शरण में आयी। इसी गांव के नाम से ये कालांतर मे यह परमारांे की शाखा गुरला अथवा गोरला नाम से प्रसिद्ध हुई। रावत केवल इनकी उपाधि है। इन परमारों को गढ़ राज्य की पूर्वी व दक्षिण सीमा के किलों की जिम्मेदारी दी गयी। चांदकोट गढ़ ,गुजडूगढ़ी आदि किले इनके अधीनस्थ थे। तीलू के दोनों भाइयों भगतु यानी भगत सिंह एवं पत्वा यानी फतह सिंह ने कत्युरी सेना के सरदार को हराकर उसका सिर काटकर गढ़ नरेश को प्रस्तुत किया था। इससे खुश होकर गढ़ नरेश ने दोनों भाइयों को 42-42 गांव की जागीर दी। पत्वा ने अपना मुख्यालय गांव परसोली/पड़सोली (पट्टी गुजडू ) मंे स्थापित किया, जहां वर्तमान में उसके वंशज रह रहे हैं। भगतु के वंशज गांव सिर्सइ (पट्टी खाटली ) मंे वर्तमान में रह रहे हैं।
शत्रु को पराजय का स्वाद चखाने के बाद जब तीलू रौतेली लौट रही थी तो जलस्रोत को देखकर उसका मन कुछ विश्राम करने को हुआ। कांडा गाँव के ठीक नीचे पूर्वी नयार नदी में पानी पीते समय उसने अपनी तलवार नीचे रख दी। जैसे ही वह पानी पीने के लिए झुकी, उधर ही छुपे हुए पराजय से अपमानित रामू रजवार नामक एक कन्त्यूरी सैनिक ने तीलू की तलवार उठाकर उस पर हमला कर दिया। निहत्थी तीलू पर पीछे से छुपकर किया गया। यह वार प्राणान्तक साबित हुआ। कहा जाता है कि तीलू ने मरने से पहले अपनी कटार के वार से उस शत्रु सैनिक को मार गिराया। तीलू की याद में आज भी कांडा ग्राम व बीरोंखाल क्षेत्र के निवासी हर वर्ष कौथीग (मेला) आयोजित करते हैं और ढ़ोल-दमाऊ तथा निशाण के साथ तीलू रौतेली की प्रतिमा का पूजन किया जाता है।
तीलू रौतेली की स्मृति में गढ़वाल मंडल के कई गाँव में थड्या गीत गाये जाते हैं-
ओ कांडा का कौथिग उर्याे
ओ तिलू कौथिग बोला
धकीं धे धे तिलू रौतेली धकीं धे धे
द्वी वीर मेरा रणशूर ह्वेन
भगतु पत्ता को बदला लेक कौथीग खेलला
धकीं धे धे तिलू रौतेली धकीं धे धे।
डॉ. चेतन आनंद
कवि-पत्रकार
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