आलेख : झांसी की रानी से कम नहीं तीलू रौतेली - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 8 अगस्त 2023

आलेख : झांसी की रानी से कम नहीं तीलू रौतेली

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तिलोत्तमा देवी यानी तीलू रौतेली का जन्म गढ़वाल, उत्तराखण्ड में हुआ। तीलू एक ऐसी वीरांगना थी जो केवल 15 वर्ष की अल्प आयु में रणभूमि में कूद पड़ी थी और सात साल तक जिसने अपने दुश्मन राजाओं को कड़ी चुनौती दी थी। मात्र 22 वर्ष की आयु में उसने सात युद्ध लड़े। तीलू रौतेली उर्फ तिलोत्तमा देवी भारत की रानी लक्ष्मीलबाई, चांद बीबी, झलकारी बाई, बेगम हजरत महल के समकक्ष हैसियत रखती हैं। लेकिन उत्त्राखंड के अलावा देश के लोग शायद ही उसे जानते होंगे। हालांकि उत्तराखंड सरकार उसके नाम पर महिलाओं की पेंशन योजना चला रही है। यह योजना उन महिलाओं को समर्पित है, जो कृषि कार्य करते हुए विकलांग हो चुकी हैं। लेकिन इस योजना का विस्तार अधिक नहीं है। जबकि जानकारों का कहना है कि तीलू का देश के लिए योगदान किसी से कम नहीं आंका जाना चाहिए। उसे वही सम्मान मिलना चाहिए जो झांसी की रानी को मिला है।


तीलू रौतेली का ऐतिहासिक गांव पौड़ी जिले के चौंदकोट परगना के अंतर्गत आता है। गांव में आज भी उनका पैतृक मकान मौजूद है। यह मकान 17वीं शताब्दी में बना बताया जाता है। भवन का सामने का हिस्सा ठीक हाल में है, जबकि पिछला हिस्सा खंडहर बन गया है। प्रदेश सरकार ने गांव में वीरांगना तीलू रौतेली की प्रतिमा तो स्थापित की है, लेकिन उनके पैतृक भवन की आज तक किसी ने सुध नहीं ली है। गुराड़ के प्रधान किरण सिंह रावत ने बताया कि तीलू रौतेली के वंशज कुछ वर्षों पूर्व तक यहां रहा करते थे, लेकिन अब यह भवन वीरान होने से खंडहर बन रहा है। मकान के पीछे का हिस्सा जर्जर होकर खंडहर में तब्दील हो गया है। महिला कांग्रेस की प्रदेश महामंत्री रंजना रावत ने राज्य सरकार से तीलू रौतेली के जन्म स्थान और शहीद स्थल को विरासत घोषित कर संरक्षण और विकसित करने की मांग की है। तीलू रौतेली की जयंती हर साल 8 अगस्त को मनाई जाती है। इस दिन उत्तराखंड के लोग पेड़ लगाते है और साथ ही सांस्कृतिक उत्सव भी आयोजित किये जाते हैं। 8 अगस्त 1661 को तीलू रौतेली का जन्म हुआ था। इसी उपलक्ष्य में राज्य सरकार इस दिन की याद में तीलू रौतेली की जयंती मनाती है। उत्तराखंड में सत्रहवीं शताब्दी में तीलू रौतेली नामक वीरांगना ने 15 वर्ष की आयु में दुश्मनों के साथ 7 वर्ष तक युद्ध कर 13 गढ़ों पर विजय पाई थी और वह अंत में अपने प्राणों की आहुति देकर वीरगति को प्राप्त हो गई थी। ऐसी वीरांगना तीलू रौतेली की जीवनगाथा पर डॉ. राजेश्वर उनियाल ने एक नाटक भी लिखा है जो बताते हैं कि भारत सरकार के राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (नेशनल बुक ट्रस्ट), नई दिल्ली ने इसे प्रकाशित भी किया है। तीलू रौतेली के पिता का नाम गोरला रावत भूपसिंह था, जो गढ़वाल नरेश राज्य के प्रमुख सभासदों में से थे। गोरला रावत गढ़वाल के परमार राजपूतों की एक शाखा है जो संवत्ती 817( सन् 760) में गुजर देश (वर्तमान गुजरात राज्य) से गढ़वाल के पौड़ी जिले के चांदकोट क्षेत्र के गुरार गांव (वर्तमान गुराड़ गांव) मे गढ़वाल के परमार शासकों की शरण में आयी। इसी गांव के नाम से ये कालांतर मे यह परमारांे की शाखा गुरला अथवा गोरला नाम से प्रसिद्ध हुई। रावत केवल इनकी उपाधि है। इन परमारों को गढ़ राज्य की पूर्वी व दक्षिण सीमा के किलों की जिम्मेदारी दी गयी। चांदकोट गढ़ ,गुजडूगढ़ी आदि  किले इनके अधीनस्थ थे। तीलू के दोनों भाइयों भगतु यानी भगत सिंह एवं पत्वा यानी फतह सिंह ने कत्युरी सेना के सरदार को हराकर उसका सिर काटकर गढ़ नरेश को प्रस्तुत किया था। इससे खुश होकर गढ़ नरेश ने दोनों भाइयों को 42-42 गांव की जागीर दी। पत्वा ने अपना मुख्यालय गांव परसोली/पड़सोली (पट्टी गुजडू ) मंे स्थापित किया, जहां वर्तमान में उसके वंशज रह रहे हैं। भगतु के वंशज गांव सिर्सइ (पट्टी खाटली ) मंे वर्तमान में रह रहे हैं।


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गढ़वाल के लेखक हरिराम धस्माना ने पत्रिका ‘उत्तर भारत’ में 12 जनवरी 1938 को प्रकाशित लेख ‘वीरमूर्ति भगतु-पत्वा’ में लिखा कि परमारांे की यह शाखा गुजरात से काली कुमाऊं-डोटी क्षेत्र में आयी। वहां चंद राजाओं के बढ़ते प्रभाव के कारण अधिकारविहीन होकर यह शाखा गढ़वाल के परमार शासकों के अधीन आयी।   तीलू रौतेली की सगाई इड़ा गाँव (पट्टी मोंदाडस्यु) के सिपाही नेगी भुप्पा सिंह के पुत्र भवानी नेगी के साथ हुई। गढ़वाल में सिपाही नेगी जाति हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा रियासत के कटोच राजपूतों की ही शाखा है, वहां इन्हें सिप्पै भी कहा जाता है। ये हिमाचल प्रदेश से आकर गढ़वाल मंे बसे हैं। इन्ही दिनों गढ़वाल में कन्त्यूरों के लगातार हमले हो रहे थे और इन हमलों में कन्त्यूरों के खिलाफ लड़ते-लड़ते तीलू के पिता ने युद्ध भूमि प्राण न्यौछावर कर दिये। इनके प्रतिशोध में तीलू के मंगेतर और दोनों भाइयों (भगतु और पत्वा) ने भी युद्धभूमि में अप्रतिम बलिदान दिया। कुछ ही दिनों में कांडा गाँव में कौथीग (मेला) लगा और बालिका तीलू इन सभी घटनाओं से अंजान कौथीग में जाने की जिद करने लगी तो माँ ने रोते हुये ताना मारा-तीलू तू कैसी है, रे! तुझे अपने भाइयों की याद नहीं आती। तेरे पिता का प्रतिशोध कौन लेगा रे! जा रणभूमि में जा और अपने भाइयों की मौत का बदला ले। ले सकती है क्या? फिर खेलना कौथीग! तीलू के बाल्य मन को ये बातें चुभ गई और उसने कौथीग जाने का ध्यान छोड़ प्रतिशोध की धुन पकड़ ली। उसने अपनी सहेलियों के साथ मिलकर एक सेना बनानी आरंभ कर दी और पुरानी बिखरी हुई सेना को एकत्र करना भी शुरू कर दिया। प्रतिशोध की ज्वाला ने तीलू को घायल सिंहिनी बना दिया था, हथियारों से लैस सैनिकों तथा ‘बिंदुली’ नाम की घोड़ी और अपनी दो प्रमुख सहेलियों बेल्लु और देवली को साथ लेकर युद्धभूमि के लिए प्रस्थान किया। सबसे पहले तीलू रौतेली ने खैरागढ़ (वर्तमान कालागढ़ के समीप) को कत्यूरों से मुक्त करवाया, उसके बाद उमटागढ़ी पर धावा बोला, फिर वह अपने सैन्य दल के साथ सल्ड महादेव पहुंची और उसे भी शत्रु सेना के चंगुल से मुक्त कराया। चौखुटिया तक गढ़ राज्य की सीमा निर्धारित कर देने के बाद तीलू अपने सैन्य दल के साथ देघाट वापस आयी. कालिंका खाल में तीलू का शत्रु से घमासान संग्राम हुआ, सराईखेत में कन्त्यूरों को परास्त करके तीलू ने अपने पिता के बलिदान का बदला लिया। इसी जगह पर तीलू की घोड़ी ‘बिंदुली’ भी शत्रु दल के वारों से घायल होकर तीलू का साथ छोड़ गई।


शत्रु को पराजय का स्वाद चखाने के बाद जब तीलू रौतेली लौट रही थी तो जलस्रोत को देखकर उसका मन कुछ विश्राम करने को हुआ। कांडा गाँव के ठीक नीचे पूर्वी नयार नदी में पानी पीते समय उसने अपनी तलवार नीचे रख दी। जैसे ही वह पानी पीने के लिए झुकी, उधर ही छुपे हुए पराजय से अपमानित रामू रजवार नामक एक कन्त्यूरी सैनिक ने तीलू की तलवार उठाकर उस पर हमला कर दिया। निहत्थी तीलू पर पीछे से छुपकर किया गया। यह वार प्राणान्तक साबित हुआ। कहा जाता है कि तीलू ने मरने से पहले अपनी कटार के वार से उस शत्रु सैनिक को मार गिराया। तीलू की याद में आज भी कांडा ग्राम व बीरोंखाल क्षेत्र के निवासी हर वर्ष कौथीग (मेला) आयोजित करते हैं और ढ़ोल-दमाऊ तथा निशाण के साथ तीलू रौतेली की प्रतिमा का पूजन किया जाता है।


तीलू रौतेली की स्मृति में गढ़वाल मंडल के कई गाँव में थड्या गीत गाये जाते हैं-

ओ कांडा का कौथिग उर्याे

ओ तिलू कौथिग बोला

धकीं धे धे तिलू रौतेली धकीं धे धे

द्वी वीर मेरा रणशूर ह्वेन

भगतु पत्ता को बदला लेक कौथीग खेलला

धकीं धे धे तिलू रौतेली धकीं धे धे।





डॉ. चेतन आनंद

कवि-पत्रकार

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