आलेख : गोविन्दा आला रे... कान्हा के रंग में रंगा हिन्दुस्तान, द्वापर जैसा नजारा - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 7 सितंबर 2023

आलेख : गोविन्दा आला रे... कान्हा के रंग में रंगा हिन्दुस्तान, द्वापर जैसा नजारा

देशभर में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी श्रद्धा एवं भक्ति के साथ मनायी जा रही है। नंद के घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की के जयकारों के साथ पूरा क्षेत्र गूंज रहा है। शहर से लेकर देहात तक के मंदिरों में पालने में भगवान श्रीकृष्ण ‘पालनै गोपाल झुलावैं...हुलसत हंसत, करत किलकारी मन अभिलाष बढ़ावैं...की मधुर गीतों की धून पर झूल रहे है। ‘हरे कृष्ण हरे राम’ तथा ‘गोविंदा आला रे’ के भजनों के साथ भक्तगण पूजा-अर्चना में लीन है। भला क्यों नहीं, यह 30 साल बाद द्वापर युग जैसा अद्भुत संयोग जो आया है। 6 सितम्बर, बुधवार, चंद्रमा का वृषभ राशि में होना, अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र का एकसाथ संयोग बना है. द्वापर युग में इसी संयोग में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था. इसके साथ ही आज पूरे दिन सर्वार्थ सिद्धि योग, जयंती योग, रवि योग और बुधादित्य योग भी रहा

Janmashtami
देशभर में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की धूम है। सुबह से ही मंदिरों में मुरली मनोहर के भक्त प्रार्थना-भजन के लिए उमड़ रहे हैं। बांके बिहारी की नगरी मथुरा-वृंदावन हो या फिर धर्म एवं आस्था की नगरी काशी हो या फिर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की नगरी अयोध्या या फिर आर्थिक राजधानी मुंबई सब जगह उत्सव-सा माहौल है। ‘हरे कृष्ण हरे राम’ तथा ‘गोविंदा आला रे’ के भजनों के साथ भक्तगण उल्लास के साथ जन्माष्टमी की खुशियां मना रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिन आज मनाया जा रहा है. इस साल 6 और 7 सितंबर दोनों दिन जन्माष्टमी का त्योहार मनाया जा रहा है. जानकारों के अनुसार कृष्ण जन्मोत्सव 6 सितंबर की रात ही श्रेष्ठ है क्योंकि इसी रात तिथि-नक्षत्र का वो ही संयोग बन रहा है, जैसा द्वापर युग में बना था. रात 12 बजे जैसे ही धरती पर कान्हा के नन्हें कदम पड़ें, हर तरफ शंख का पवित्र नाद गूंज उठा। कान्हा के नाम का जयकारा भक्तों के तन-मन में नया जोश भर गया। मंदिरों में नंद के घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की, का जयकारा लगने लगा है। घरों में भी कृष्ण जन्मोत्सव मनाया जा रहा है। जगह-जगह कृष्ण-लीलाओं और रास-लीलाओं के आयोजन के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति पूरा माहौल भक्ति रस में डूबो दिया है। मंदिरे दुल्हन की तरह सजी है। भारतीय मिथकीय पात्रों में कृष्ण सर्वाधिक अपने-से प्रतीत होने वाले देवता या नायक हैं। कृष्ण अकेले ऐसे अवतार हैं, जो देश में पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सब जगह समान रूप से पूज्य हैं। यह प्रतिष्ठा भारतीय मिथकीय पात्रों में से किसी को नहीं मिली। इसकी वजह भी है, बाकी के सभी अवतारों में एक अभिजात्य मर्यादा है। उनके साथ इतने किंतु-परंतु हैं कि आमजन उनके समीप जाने से डरता है, पर कृष्ण सबके लिए हैं और सबके हैं। इसीलिए लोक कृष्ण के साथ जुड़ता है। जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का पर्व है। भगवान ने भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि की मध्यरात्रि को कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में जन्म लिया था। भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे, इसलिए इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है। जन्माष्टमी के पावन पर्व पर  केवल मथुरा-वृंदावन ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों की धरती भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है। जन्माष्टमी पर कृष्ण के पावन और अलौकिक रूप का दर्शन भक्तों को धन्य कर देता है। उनके घर में भी आए कान्हा जैसा पुत्र, यह कामना भक्तों के मन में हिलोरें मारने लगती हैं। कहते हैं कि अपने भक्तों के लिए भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के हर कण में बसे हैं। चाहे वह वृंदावन हो या ब्राजील या बेल्जियम। यह कृष्ण के प्रति हमारी भक्ति का ही उत्कर्ष है कि विभिन्न सदियों में जगह-जगह उनके मंदिर बनाये गये हैं और आगे भी बनाये जाते रहेंगे। ब्रज मंडल के कण-कण में कृष्ण बसे हैं। यहां हर जगह किशन कन्हैया के अद्भुत मंदिर मिल जायेंगे और सभी मंदिरों की अपनी-अपनी विशेषता है। इस क्षेत्र का सबसे अलौकिक और प्राचीन श्री बांके बिहारी मंदिर के बारे में मान्यता है कि अगर कोई बांके बिहारी जी के मुखारविंद को लगातार देखता रहे, तो प्रभु उसके प्रेम से मंत्रमुग्ध होकर उसके साथ चल देते हैं। इसीलिए मंदिर में उन्हें परदे में रख कर उनकी क्षणिक झलक ही भक्तों को दिखायी जाती है। यह मंदिर शायद अपनी तरह का पहला मंदिर है, सुबह में घंटे इसलिए नहीं बजाये जाते, ताकि बांके बिहारी की नींद में व्यवधान न पड़ जाये। उन्हें हौले-हौले एक बालक की तरह दुलार कर उठाया जाता है। इसी तरह संध्या आरती के समय भी घंटे नहीं बजाये जाते।


सुदामा कृष्ण की मित्रता एक नये आयाम देती है 

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सुदामा के प्रति कृष्ण की मित्रता एक नये आयाम देती है। कृष्ण द्वारिका के शासक हैं, जहां पर हर तरह की सुख-सुविधाएं उन्हें उपलब्ध हैं, पर उनके बाल सखा सुदामा सर्वथा विपन्न विप्र हैं और संतुष्ट भी हैं। सुदामा एक दिन बहबूदी में अपनी पत्नी को बताते हैं कि कृष्ण उनके बाल सखा हैं, तो उनकी पत्नी उनको रोज ताना देती है कि जिसके बाल सखा कृष्ण हो, उसके बीवी-बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं? वे कहते हैं, तो क्या हुआ ब्राह्मण तो गरीब होता ही है और उसका तो काम ही भीख मांगना है। पर उनकी पत्नी यह स्वीकार नहीं कर पाती और उसके रोज-रोज के तानों से आजिज आकर वे कृष्ण के दरबार में जाते हैं। और कृष्ण को जैसे ही पता चलता है कि सुदामा नामक एक विप्र उनके द्वार आये हैं, तो वे नंगे पैर ही दरवाजे से सुदामा को लेकर आते हैं। सुदामा कृष्ण की इस मित्र विह्वलता से गदगद हैं। वे जब देखते हैं कि कृष्ण बिना अपने पद-प्रतिष्ठा और रुतबे का विचार किये एक दीनहीन विप्र का इतना आदर-सत्कार कर रहे हैं, तो उनके मुंह से निकल पड़ता है कि आज ऐसा दीनबंधु और कौन है भला! कृष्ण यहीं नहीं रुकते. वे सुदामा से मिल कर इतने भावुक हो जाते हैं कि अश्रुधारा उनकी आंखों से फूट पड़ती है। मध्यकाल में रसखान तो कृष्ण के ऐसे दीवाने हो गये थे कि वे अपने बादशाह वंश की ठसक छोड़ कर वृंदावन में ही जाकर रहने लगे थे। वे अर्जुन के भी सखा हैं। भाई तो अर्जुन के पास पहले से ही चार और हैं, पर जब भी विपदा पड़ी, वे सदैव सलाह हेतु कृष्ण के पास ही जाते हैं। तब भी जब वे दुविधा में थे कि अपने उन भाई-बांधवों से युद्ध कैसे किया जाये, जिनके साथ रह कर वे पले-बढ़े हैं अथवा वे किस तरह सारी मर्यादा और नैतिकता की लक्ष्मणरेखाएं लांघ कर अपने पितामह भीष्म का वध करें। कैसे वे अपने अपराजेय गुरु द्रोणाचार्य को रणभूमि में युद्ध से विरत करें तथा कर्ण को तब मारें, जब वह निहत्था होकर अपने रथ का पहिया चढ़ा रहा होता है। उस दुविधा को एक मित्र की तरह कृष्ण दूर करते हैं और एकदम व्यावहारिक मित्र की भांति सलाह देते हैं कि पार्थ रणभूमि में नैतिक-अनैतिक कुछ नहीं होता है। या तो सामने वाले अपराजेय शत्रु का मौका ताक कर वध करो, अन्यथा वह आपका वध कर देगा। यह शिक्षा अकेले कृष्ण ही दे सकते थे। इसीलिए भारतीय मिथकीय पात्रों में कृष्ण सर्वाधिक अपने-से प्रतीत होने वाले देवता या नायक हैं। 


प्रेरणाश्रोत और सबक

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श्रीकृष्ण को दूध, दही और माखन बहुत प्रिय था। इसके अलावा भी उन्हें गीत-संगीत, राजनीति, प्रेम, दोस्ती व समाजसेवा से विशेष लगाव था। जो आज हमारे लिए प्रेरणाश्रोत और सबक भी है। उनकी बांसुरी के स्वरलहरियों का ही कमाल था कि वे किसी को भी मदहोश करने की क्षमता रखते थे। उन्होंने कहा भी है, अगर जिंदगी में संगीत नहीं तो आप सुनेपन से बच नहीं सकते। संगीत जीवन की उलझनों और काम के बोझ के बीच वह खुबसूरत लय है जो हमेसा आपको प्रकृति के करीब रखती है। आज के दौर में कर्कश आवाजें ज्यादा है। ऐसे में खुबसूरत ध्वनियों की एक सिंफनी आपकी सबसे बड़ी जरुरत हैं। जहां तक राजनीति का सवाल है श्रीकृष्ण ने किशोरावस्था में मथुरा आने के बाद अपना पूरा जीवन राजनीतिक हालात सुधारने में लगाया। वे कभी खुद राजा नहीं बने, लेकिन उन्होंने तत्कालीन विश्व राजनीति पर अपना प्रभाव डाला। मिथकीय इतिहास इस बात का गवाह है कि उन्होंने द्वारका में भी खुद सीधे शासन नहीं किया। उनका मानना था कि अपनी भूमिका खुद निर्धारित करो और हालात के मुताबिक कार्रवाई तय करो। महाभारत युद्ध में दर्शक रहते हुए भी वे खुद हर रणनीति बनाते और आगे कार्रवाई तय करते थे। जबकि आज पदो ंके पीछे भागने की दौड़ में राजनीति अपने मूल उद्देश्य को भूल रही है। ऐसे में श्रीकृष्ण की राजनीतिक शिक्षा हमें रोशनी देती हैं। श्रीकृष्ण में तथा अन्य किशोरों में यही तो अंतर है कि उनकी काया सतोप्रधान तत्वों की बनी हुई थी, वे पूर्ण पवित्र संस्कारों वाले थे और उनका जन्म काम-वासना के भोग से नहीं हुआ था। मीराबाई ने तो श्रीकृष्ण की भक्ति के कारण आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया। श्रीकृष्ण सभी को इसलिए इतने प्रिय लगते हैं क्योंकि उनकी सतोगुणी काया, सौम्य चितवन, हर्षित मुखत और उनका शीतल स्वभाव सबके मन को मोहने वाला है और इसीलिए ही उनके जन्म, किशोरावस्था और बाद के भी सारे जीवन को लोग दैवी जीवन मानते हैं। परंतु फिर भी श्रीकृष्ण के जीवन में जो मुख्य विशेषतायें थीं और जो अनोखे प्रकार की महानता थी उसको लोग आज यथार्थ रूप में और स्पष्ट रीति से नहीं जानते। उदाहरण के तौर पर वे यह नहीं जानते कि श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इतना आकर्षक क्यों था और वे पूज्य श्रेणी में क्यों गिने जाते हैं? एक बार फिर, उन्हें यह भी ज्ञात नहीं है कि श्रीकृष्ण ने उस उत्तम पदवी को किस उत्तम पुरूषार्थ से पाया। अतः जब तक हम उन रहस्यों को पुर्णतः जानेंगे नहीं, तब तक श्रीकृष्ण दर्शन जैसे हमारे लिए अधुरा ही रह जायेगा। अमूमन किसी नगर या देश की जनता जन्मदिन उसी व्यक्ति का मनाती की जिनके जीवन में कुछ महानता रही हो। परंतु आप देखेंगे कि महान व्यक्ति भी दो प्रकार के हुए हैं। एक तो वे जिनका जीवन जन-साधारण से काफी उच्च तो था परंतु फिर भी उनकी मनसा पूर्ण अविकारी नहीं थी, उनके संस्कार पूर्ण पवित्र न थे, वे विकर्माजीत भी नहीं थे और उनकी काया सतोप्रधान तत्वों की बनी हुई नहीं थी। अब दूसरे प्रकार के महान व्यक्ति वे हैं जो पूर्ण निर्विकारी थे। जिनके संस्कार सतोप्रधान थे और जिनका जन्म भी पवित्र एवं धन्य था अर्थात कामवासना के परिणामस्वरूप नहीं अपितु योगबल से हुआ था। श्रीकृष्ण और श्रीराम ऐसे ही पूजन योग्य व्यक्ति थे। यहां ध्यान देने के योग्य बात यह है कि पहली प्रकार के व्यक्तियों के जीवन बाल्यकाल से ही गायन या पूजने के योग्य नहीं होते बल्कि वे बाद में कोई उच्च कार्य करते हैं जिसके कारण देशवासी या नगरवासी उनका जन्मदिन मनाते हैं। परंतु श्रीकृष्ण तथा श्रीराम जैसे आदि देवता तो बाल्यावस्था से ही महात्मा थे। वे कोई संन्यास करने या शिक्षा-दीक्षा लेने के बाद पूजने के योग्य नहीं बने और इसीलिए ही उनके बाल्यावस्था के चित्रों में भी उनको प्रभामण्डल से सुशोभित दिखाया जाता है जबकि अन्यान्य महात्मा लोगों को संन्यास करने के पश्चात अथवा किसी विशेष कर्तव्य के पश्चात ही प्रभामण्डल दिया जाता है। यही वजह हैं की श्रीकृष्ण की किशोरावस्था को भी मातायें बहुत याद करती हैं और ईश्वर से मन ही मन यही प्रार्थना करती हैं कि यदि हमें बच्चा हो तो श्रीकृष्ण जैसा। श्रीकृष्ण में तथा अन्य किशोरों में यही तो अंतर है कि उनकी काया सतोप्रधान तत्वों की बनी हुई थी, वे पूर्ण पवित्र संस्कारों वाले थे और उनका जन्म योगबल द्वारा हुआ था और उनका जन्म काम-वासना के भोग से नहीं हुआ था। मीराबाई ने तो श्रीकृष्ण की भक्ति के कारण आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया और इसके लिए विष का प्याला भी पीना सहर्ष स्वीकार कर लिया। जबकि श्रीकृष्ण की भक्ति के लिए, उनका क्षणिक साक्षात्कार मात्र करने के लिए और उनसे कुछ मिनट रास रचाने के लिए भी काम-विकार का पूर्ण बहिष्कार जरूरी है।


श्रीकृष्ण को पशुओं और प्रकृति से बेहद लगाव

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वृंदावन में गोपियों के साथ रास रचाने वाले श्रीकृष्ण को पशुओं और प्रकृति से बेहद लगाव था। उनका बचपन गायों और गांवों के जीवों के इर्द-गिर्द बीता, लेकिन जब मौका आया तो उन्होंने अपने नगर के लिए समुद्र के करीब का इलाके को चुना। जहां पहाड़, पशु, पेड़, नदी-समुद्र कृष्ण की पूरी कहानी का जरुरी हिस्सा हैं। यानी श्रीकृष्ण ने जिसे चाहा टूटकर चाहा और अपने प्रिय के लिए वे किसी भी हद से गुजरे। साथ ही अपने काम को भी नहीं भूले। वे अपने सबसे प्रिय लोगों को किशोवय में छोड़कर मथुरा आएं, काम की खातिर। कहा जा सकता है प्रेम और काम के बीच उलझे आज के दौर में श्रीकृष्ण वह राह सुझाते हैं जहां दोनों के बीच तार्किक संतुलन हैं। बतौर दोस्त श्रीकृष्ण के दो रुप दिखाई देते हैं। एक सुदामा के दोस्त है, दुसरे अर्जुन के। तत्कालीन परिस्थितियों में उन्हें अर्जुन जैसे दोस्त की दरकार थी, लेकिन वे सुदामा के प्रति अपनी जिम्मेदारी को भी नहीं भूलते। यह श्रीकृष्ण की देस्ती का फलसफा हैं। मतलब साफ है दोस्त को जरुरत से ज्यादा खुद पर निर्भर मत बनाओं। अर्जुन को कृष्ण लड़ने लायक बनाते है, उसके लिए खुद नहीं लड़ते। सुदामा को भी आर्थिक मदद ही करते हैं। यानी दोस्ती की छीजती सलाहियत के बीच कृष्ण दोस्त की पहचान पर जोर देते हैं। समाजसेवा के लिए श्रीकृष्ण किसी काम को छोटा नहीं समझते। अगर अर्जुन के सारथी बने तो चरवाहा या यूं कहे ग्वाला भी बनें। सुदामा के पैर धोए तो युधिष्ठिर से धुलवाया, तो उनकी पत्तल भी उठाएं। कर्म प्रधानता का पूरा शास्त्र गीता इसका बड़ा उदाहरण है। यानी काम करो, बस काम, जो भी सामने हो, जैसा भी हो। या यूं कहे कृष्ण अकर्मण्यता के खिलाफ थे। मतलब साफ है  शार्टकट और पहले परिणाम जानने की दौर में श्रीकृष्ण के मार्ग ज्यादा अहम् हो जाते हैं। वे परिणाम से ज्यादा कर्म को तवज्जों देते हैं। जन्माष्टमी के मौके पर जब कोई भी भक्त उनके आदर्शो या बताएं मार्गो का अनुशरण करता है या उनकी सच्चे दिल से प्रार्थना करता है, बाल-गोपाल कन्हैया उसकी इच्छा जरूर पूरी करते हैं।


जन्माष्टमी व्रत है महत्वपूर्ण

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भविष्योत्तर पुराण में कृष्ण द्वारा ‘कृष्ण जन्माष्टमी व्रत‘ के बारे में युधिष्ठिर से स्वयं कहलाया गया है, ‘मैं वसुदेव एवं देवकी से भाद्र कृष्ण अष्टमी को उत्पन्ना हुआ था, जबकि सूर्य सिंह राशि में था, चन्द्र वृषभ राशि में था और नक्षत्र रोहिणी था।‘ जन्माष्टमी के दिन जो भी भक्त व्रत रखते हैं और श्रीकृष्ण के नाम का सुमिरन करते हैं वे भवसागर से पार उतरते हैं। जो भी व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है वह ऐश्वर्य और मुक्ति को प्राप्त करता है। आयु, कीर्ति, यश, लाभ, पुत्र व पौत्र को प्राप्त कर इसी जन्म में सभी प्रकार के सुखो को भोगते हुए मोक्ष पाता है। श्रीकृष्ण की लीलाओं को सुनने वाले के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वह उत्तम गति को प्राप्त होती है।


माखनचोर रूप का दर्शन

श्रीकृष्ण माखनचोर रूप में चित्रित किया गया है। वे चित चोर भी हैं यानी जो भक्तों के हृदय को चुराते हैं। श्रीकृष्ण और उनके बाल सखा घरों में घुसकर माखन चुराते थे और उसे सभी में बांट देते थे। इसमें दर्शन यह है कि मक्खन प्रेम की तरह है और इसे बंद करके लोगों से दूर रखने के बजाय सभी में बांटा जाना चाहिए।


जन्माष्टमी पर कैसे करें पूजन

- व्रत की पूर्व रात्रि को हल्का भोजन करें और ब्रह्मचर्य का पालन करें।

- सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर मुख बैठें।

- व्रत के दिन सुबह स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएं।

- इसके बाद जल, फल, कुश और गंध लेकर संकल्प करें।

ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धये श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये।।

- अब शाम के समय काले तिलों के जल से स्नान कर देवकीजी के लिए ‘सूतिकागृह‘ नियत करें।

- इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें।

- मूर्ति में बालक श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मीजी उनके चरण स्पर्श किए हों अगर ऐसा चित्र मिल जाए तो बेहतर रहता है।

- इसके बाद विधि-विधान से पूजन करें। पूजन में देवकी, वसुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा और लक्ष्मी इन सबका नाम क्रमशः लेना चाहिए।

- फिर निम्न मंत्र से पुष्पांजलि अर्पण करें-

‘प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः। वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः। सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तुते।‘


जैसी झांकी वैसा वरदान

लोग घरों में झांकिया सजाते हैं। इन झांकियों में कन्हैया के बाल रूप और उस दौरान घटी घटनाओं को अलग-अलग तरीके से पेश किया जाता है। लेकिन सबसे खास होती है मंदिर की सजावट, जहां नन्हे बाल-गोपाल की पूजा की जाती है। कहते है जिसकी जितनी अच्छी झांकी होती है भगवान का उतना ही प्यारा वरदान होता है। इसलिए झांकी को काफी अनोखे व भव्यता रुप में सचना चाहिए। इसके लिए जरुरी है कुछ सावधानियां -

-मंदिर को फूलों से सजाएं। जितने ज्यादा रंग के फूल मिल सकें, उतना अच्छा रहेगा। मंदिर के अंदर वाले हिस्से को गेंदे के पीले फूलों से सजाएं।

-रंग बिरंगे पर्दे खरीद लें। लाल, पीले, नीले या फिर गोल्डन कलर के पर्दे से मंदिर के पिछले हिस्से को ढक दें। इससे पिछला हिस्सा ढक भी जाएगा और खूबसूरत भी नजर आएगा।

-मोगरे की मालाओं को बाहरी हिस्से पर लगाएं। इससे मंदिर के चारों ओर खुशबू बनी रहेगी, वो भी लंबे समय तक।

-मंदिर की सफाई कर, निचले हिस्से पर कोई चमकीला पेपर चिपका दें। इसके बाद भगवान की मूर्तियों को साफ करके एक क्रम में लगाएं। धूप और अगरबत्ती का स्टैंड बीच में रखें। पूजा से पहले ही प्रसाद और पूजा की बाकी सामग्री को एक बड़ी पूजा थाली में सजा लें।

-कन्हैया के लिए कपड़ों का चयन अच्छा होना चाहिए। चटक रंगों वाले और गोटापट्टी के काम वाले कपड़े ही आज के दिन सुंदर लगेंगे। बाल-गोपाल के लिए एक छोटा सा मुकुट भी खरीदें। आप चाहें तो फूलों से भी मुकुट तैयार कर सकते हैं। मुकुट में मोर पंख लगाना बिल्कुल न भूलें।

-कन्हैया के लिए तैयार झूले को फूलों की लड़ियों और गोटे से सजा सकते हैं। झूले के भीतर रखने के लिए मलमल का कपड़ा ही सबसे अच्छा रहेगा।

-अगर जगह हो तो बिजली वाले झालर भी लगा सकते हैं।  





Suresh-gandhi


सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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