जब पूरे विश्व के प्रमुख धर्मों में परमात्मा को एक पिता, एक पुरुष की तरह पूजा गया तो वहीं भारत ही एक ऐसा अद्वितीय और अलौकिक देश था, जहां उस परब्रह्मा को एक स्त्री-शक्ति के रूप में, एक माता के रूप में भी स्वीकार किया गया। हालांकि स्त्रैण और पुरुषैण, यह दोनों शक्ति के ही स्वरूप होते हैं, परन्तु जैसे माता और पिता के संयोग से संतान उत्पन्न होती है, उसी प्रकार शक्ति के स्वरूप का आधार शिव और शिव की कार्यशक्ति को ही हम देवी शक्ति कहते हैं। यानी प्रकृति स्त्रैण है और परब्रह्मा परमात्मा पुरुष है। प्रकृति और पुरुष के समागम से ही यह सारे संसार का बनना, चलना और संहार होता हैनवरात्र में देवी की साधना और अध्यात्म का अद्भुत संगम होता है। दुर्गा यानी परमात्मा की वह शक्ति, जो स्थिर और गतिमान है, लेकिन संतुलित भी है। किसी भी तरह की साधना के लिए शक्ति का होना जरूरी है। यह शक्ति हमें देवी मां की पूजा करने से मिलती है। देवी दुर्गा की स्तुति, कलश स्थापना, सुमधुर घंटियों की आवाज, धूप-बत्तियों की सुगंध- नौ दिनों तक चलने वाला आस्था और विश्वास का अद्भुत त्यौहार है। नवरात्र के दौरान हर कोई एक नए उत्साह और उमंग से भरा दिखाई पड़ता है। देवी दुर्गा की पवित्र भक्ति से भक्तों को सही राह पर चलने की प्रेरणा मिलती है। इन नौ दिनों में मानव कल्याण में रत रहकर, देवी के नौ रुपों की पूजा की जाय तो देवी का आशीर्वाद मिलता है और मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। देवी के इन नौ स्वरूपों का सीधा-सीधा संबंध हमारे अंतःकरण और हमारी आज की उस स्थिति से है, जहां आज अंधकार है। जहां अभी वासनाओं के असुरों का दल, जो हमारे मन के ही भीतर है, मन को ही घायल कर रहा है। हमारे मन की दैवी शक्तियां सुप्त हैं, अभी जागृत ही नहीं हुई हैं। तो इन असुरों के ताण्डव-नृत्य को समाप्त करने हेतु हमें दैवी-शक्तियों को जागृत करना होगा और इन दैवी-शक्तियों को जागृत करने के लिए देवी की उपासना सर्वोपरि कही गई है। प्रश्न यह उठता है कि है कोई ऐसा मानव, जिसको अपने जीवन में साहस नहीं चाहिए? है कोई ऐसा मानव, जिसको जीवन में शांति, कूटस्थता, स्थिरता और गम्भीरता की जरूरत नहीं? कोई भी मानव जिसके जीवन में आत्म-संयम, नियम और अनुशासन नहीं है, क्या वह किसी भी प्रकार की उन्नति को चख सकता है? अंधकार में भटक रहे मन के लिए विश्रंति प्रदान करने वाले जप-तप की सभी को आवश्यकता है। इसलिए दुर्गा के इन नौ स्वरूपों की आराधना इन नौ दिनों में जो भक्त करेंगे, वह अपने जीवन में देवी की परमकृपा को प्राप्त होंगे। इस परमशक्ति के साथ अपने मन को जोड़ने का अवसर है- नवरात्र। दिव्य देवी चिह्न् है- शक्ति का, सौंदर्य का। देवी चिह्न् है- विद्या का, समाधि का, यान का। देवी चिह्न् है- व्रत का, अनुशासन का। देवी चिह्न् है- अध्यात्म की सर्वोत्कर्ष उपलब्धियों का। देवी चिह्न् है- सिद्धियों का। कोई भी मानव अपने जीवन में शक्ति, विद्या, धन, गुण, अनुशासन, संयम, ज्ञान-चिंतन, शास्त्र-चिंतन, आत्म-चिंतन के बगैर मानवीयता को प्राप्त कैसे हो सकता है? इसलिए देवी की आराधना मानव के अंदर छिपी हुई उन रहस्यमयी दिव्य शक्तियों को जागृत करने का एक माध्यम है।
नवरात्र में रात्रि का महत्व
माता के सभी 51 पीठों पर भक्त विशेष रुप से माता के दर्शनों के लिये एकत्रित होते हैं। जिनके लिये वहां जाना संभव नहीं होता है, वह अपने निवास के निकट ही माता के मंदिर में दर्शन कर लेते हैं। नवरात्र शब्द, नव अहोरात्रों का बोध करता है। इस समय शक्ति के नव रूपों की उपासना की जाती है। रात्रि शब्द सिद्धि का प्रतीक है। उपासना और सिद्धियों के लिये दिन से अधिक रात्रियों को महत्त्व दिया जाता है। हिन्दू धर्म में अधिकतर पर्व रात्रियों में ही मनाये जाते हैं। रात्रि में मनाये जाने वाले पर्वों में दीवाली, होलिका दहन, दशहरा आदि आते हैं। शिवरात्रि और नवरात्र भी इनमें से एक है। रात्रि समय में जिन पर्वों को मनाया जाता है, उन पर्वों में सिद्धि प्राप्ति के कार्य विशेष रुप से किये जाते हैं। नवरात्र के साथ रात्रि जोड़ने का भी यही अर्थ है कि माता शक्ति के इन नौ दिनों की रात्रियों को मनन व चिन्तन के लिये प्रयोग करना चाहिए। चैत्र नवरात्र मां भगवती जगत जननी को आह्वान कर दुष्टात्माओं का नाश करने के लिए जगाया जाता है। प्रत्येक नर-नारी जो हिन्दू धर्म की आस्था से जुड़े हैं वे किसी न किसी रूप में कहीं न कहीं देवी की उपासना करते ही हैं। फिर चाहे व्रत रखें, मंत्र जाप करें, अनुष्ठान करें या अपनी-अपनी श्रद्धा-भक्ति अनुसार कर्म करते रहें। कहा जाता है कि वेद, पुराण व शास्त्र साक्षी हैं कि जब-जब किसी आसुरी शक्तियों ने अत्याचार व प्राकृतिक आपदाओं द्वारा मानव जीवन को तबाह करने की कोशिश की तब-तब किसी न किसी दैवीय शक्तियों का अवतरण हुआ। इसी प्रकार जब महिषासुरादि दैत्यों के अत्याचार से भू व देव लोक व्याकुल हो उठे तो परम पिता परमेश्वर की प्रेरणा से सभी देवगणों ने एक अद्भुत शक्ति का सृजन किया जो आदि शक्ति मां जगदंबा के नाम से सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हुईं। उन्होंने महिषासुरादि दैत्यों का वध कर भू व देव लोक में पुनःप्राण शक्ति व रक्षा शक्ति का संचार कर दिया।
आध्यात्मिक स्वरूप
देवी का जो प्रथम स्वरूप शैलपुत्री दुर्गा का कहा गया है, इसमें भी साधक के लिए एक बड़ा गहरा संदेश है कि वह पर्वत की न्यांई स्थिर हो। कूटस्थ का बोध करने वाला हो, और कूट की न्यांई स्थिर हो। जो कभी नहीं बदलता, वही सत्य है। वही देवी है। उसी देवी की आराधना करने वाला देवी की ही न्यांई स्थिर, शांत और शीतल स्वभाव का हो जाता है। देवी के दूसरे स्वरूप ब्रह्माचारिणी है जिसका हम साधकों के लिए एक बड़ा गहन संदेश है कि हम अपनी इंद्रियों पर, अपने मन पर आत्मबल से नियंत्रण करना जानते हों। ऐसा नहीं कि संसार का आकर्षण है और उसको जबरदस्ती साधक दबाता है। सत्य तो यह है कि साधक के लिए यह सारा संसार एक जलती हुई ज्वाला है। एक दिन वह ज्वाला सब कुछ समाप्त कर देगी क्योंकि यहां तो सब कुछ मरणशील है। ऐसा संसार का स्वभाव जानने, समझने के बाद कौन मूर्ख मन, इंद्रियों की तृप्ति के लिए इस संसार में अपने आपको देखेगा। ब्रह्माचर्य का पालन एक सजा नहीं है, एक ऐसा चुनाव है, जो साधक स्वयं के लिए करता है। उसकी साधना से उत्तरोत्तर ऊर्ध्वमुखी जो उन्नति होने जा रही है, उस उन्नति के लक्ष्य को अपने समक्ष रखते हुए साधक ब्रह्माचर्य का आचरण करता है। देवी चंद्रघंटा भी साधक के मन में एक गहरा आध्यात्मिक गूढ़ संकेत देती है। अज्ञानी मन अमावस्या की कालरात्रि की न्यांई है, परन्तु साधना, तपस्या करने से उसके भीतर सर्वप्रथम अर्धचंद्रमा ही जागृत होता है। योग के ग्रंथों में, योग के गूढ़ रहस्यों में एक रहस्य यह है कि आज्ञाचक्र से और थोड़ा ऊपर शिखा की तरफ एक और चक्र होता है, जिसे हम कहते हैं- बिंदुचक्र। यह बिंदु अर्धचंद्रमा की ही न्यांई है। अर्थात जो साधक अपनी धरणा शक्ति के द्वारा मंत्र, यंत्र और तंत्र का अभ्यास करता है, उसका बिंदुचक्र जागृत होता है और इस बिंदुचक्र से अमृत का पानकर वह अत्यन्त आनन्द, स्थिरता और शांति की अनुभूति को प्राप्त करता है।
पौराणिक मान्यताएं
कहते है आदिशक्ति का अवतरण सृष्टि के आरंभ में हुआ था। कभी सागर की पुत्री सिंधुजा-लक्ष्मी तो कभी पर्वतराज हिमालय की कन्या अपर्णा-पार्वती। तेज, द्युति, दीप्ति, ज्योति, कांति, प्रभा और चेतना और जीवन शक्ति संसार में जहां कहीं भी दिखाई देती है, वहां देवी का ही दर्शन होता है। ऋषियों की विश्व-दृष्टि तो सर्वत्र विश्वरूपा देवी को ही देखती है, इसलिए माता दुर्गा ही महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में प्रकट होती है। देवी ही ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश का रूप धर संसार का पालन और संहार करती हैं। जगन्माता दुर्गा सुकृती मनुष्यों के घर संपत्ति, पापियों के घर में अलक्ष्मी, विद्वानों-वैष्णवों के ह्वदय में बुद्धि व विद्या, सज्जनों में श्रद्धा व भक्ति तथा कुलीन महिलाओं में लज्जा एवं मर्यादा के रूप में निवास करती है।
नौ दुर्गाओं के स्वरूप का वर्णन संक्षेप में ब्रह्मा जी ने इस प्रकार से किया है।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रहमचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम।
पंचमं स्क्न्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
देव दानव युद्ध में मां की विशेष भूमिका
उपरोक्त नौ दुर्गाओं ने देव दानव युद्ध में विशेष भूमिका निभाई है। इनकी सम्पूर्ण कथा देवी भागवत पुराण और मार्कण्डेय पुराण में लिखित है। शिव पुराण में भी इन दुर्गाओं के उत्पन्न होने की कथा का वर्णन आता है कि कैसे हिमालय राज की पुत्री पार्वती ने अपने भक्तों सुरक्षित रखने के लिए तथा धरती, आकाश, पाताल में सुख शान्ति स्थापित करने के लिए दानवों राक्षसों और आतंक फैलाने वाले तत्वों को नष्ट करने की प्रतीज्ञा की। समस्त नवदुर्गाओं को विस्तारित करके उनके 108 रूप धारण कर तीनों लोकों में दानव और राक्षस साम्राज्य का अन्त किया। नवदुर्गाओं की माता अपराजिता सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड की शक्तिदायिनी और ऊर्जा उत्सर्जन करने वाली है। महर्षि वेदव्यास ने अपराजिता देवी को आदिकाल की श्रेष्ठ फल देने वाली अदृश्य अनश्वर शक्ति कहा है। अपराजिता को देवताओं द्वारा पूजित, महादेव, सहित ब्रहमा विष्णु और विभिन्न अवतार के द्वारा नित्य ध्यान में लाई जाने वाली देवी कहा है। गायत्री स्वरूप अपराजिता को निम्नलिखित मंत्र से भी पूजा जाता है।
ओम् महादेव्यै च विह्महे दुर्गायै धीमहि।
तन्नो देवी प्रचोदयात्।।
नमस्ते देवी देवेशि नमस्ते ईप्सितप्रदे।
नमस्ते जगतां धात्रित नमस्ते शंकरप्रिये।।
ओम् सर्वरूपमयी देवी सर्वं देवीमयं जगत्।
अतोघ्हं विश्वरूपां तां नमामि परमेश्वरीम्।।
ये तीन देवियां अस्तित्व के तीन मूल गुणों- तमस, रजस और सत्व की प्रतीक हैं। तमस का अर्थ है जड़ता। रजस का मतलब है सक्रियता और जोश। सत्व एक तरह से सीमाओं को तोडकर विलीन होना है, पिघलकर समा जाना है। तीन खगोलीय पिंडों से हमारे शरीर की रचना का बहुत गहरा संबंध है-पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा। इन तीन गुणों को इन तीन पिंडों से भी जोड़ कर देखा जाता है। पृथ्वी माता को तमस माना गया है, सूर्य रजस है और चंद्रमा सत्व। नवरात्रि के पहले तीन दिन तमस से जुड़े होते हैं। इसके बाद के दिन राजस से, और नवरात्रि के अंतिम दिन सत्व से जुड़े होते हैं। जो लोग शक्ति, अमरता या क्षमता की इच्छा रखते हैं, वे स्त्रैण के उन रूपों की आराधना करते हैं, जिन्हें तमस कहा जाता है, जैसे काली या धरती मां। जो लोग धन-दौलत, जोश और उत्साह, जीवन और भौतिक दुनिया की तमाम दूसरी सौगातों की इच्छा करते हैं, वे स्वाभाविक रूप से स्त्रैण के उस रूप की ओर आकर्षित होते हैं, जिसे लक्ष्मी या सूर्य के रूप में जाना जाता है। जो लोग ज्ञान, बोध चाहते हैं और नश्वर शरीर की सीमाओं के पार जाना चाहते हैं, वे स्त्रैण के सत्व रूप की आराधना करते हैं। सरस्वती या चंद्रमा उसका प्रतीक है। तमस पृथ्वी की प्रकृति है जो सबको जन्म देने वाली है। हम जो समय गर्भ में बिताते हैं, वह समय तामसी प्रकृति का होता है। उस समय हम लगभग निष्क्रिय स्थिति में होते हुए भी विकसित हो रहे होते हैं। इसलिए तमस धरती और आपके जन्म की प्रकृति है। आप धरती पर बैठे हैं। आपको उसके साथ एकाकार होना सीखना चाहिए। वैसे भी आप उसका एक अंश हैं। जब वह चाहती है, एक शरीर के रूप में आपको अपने गर्भ से बाहर निकाल कर आपको जीवन दे देती है और जब वह चाहती है, उस शरीर को वापस अपने भीतर समा लेती है। इन तीनों आयामों में आप खुद को जिस तरह से लगाएंगे, वह आपके जीवन को एक दिशा देगा। अगर आप खुद को तमस की ओर लगाते हैं, तो आप एक तरीके से शक्तिशाली होंगे। अगर आप रजस पर ध्यान देते हैं, तो आप दूसरी तरह से शक्तिशाली होंगे। लेकिन अगर आप सत्व की ओर जाते हैं, तो आप बिल्कुल अलग रूप में शक्तिशाली होंगे। लेकिन यदि आप इन सब के परे चले जाते हैं, तो बात शक्ति की नहीं रह जाएगी, फिर आप मोक्ष की ओर बढ़ेंगे।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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