छठ विशेष : ‘‘इ दउरा छठी मइया के जाइ“ - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 15 नवंबर 2023

छठ विशेष : ‘‘इ दउरा छठी मइया के जाइ“

‘तें ते आन्हर बाड़े रे बटोहिया, इ दउरा छठी मइया के जाइ।“ इस गाने का भावार्थ है कि एक स्त्री कह रही है, मैं अपने स्वामी को गिरवी रखकर छठी माता को पांच प्रकार के फलों का अर्घ्य दूंगी। दो-दो बांस की सूपली से छठी माता को अर्घ्य दूंगी। वैसे भी प्रकृति की प्रतिष्ठा को स्थापित करने वाला छठ एक ऐसा पर्व है, जिसका नाम सुनते ही शरीर के अंग-अंग से आध्यात्म की सरिता फूट पड़ती है। महिमा इतनी अपरंपार है कि इस आध्यात्म की धारा निराकार या अलौकिक न होकर लौकिक हो जाती है। खासतौर से उस दौर में जब दुनियाभर में प्रकृति-पर्यावरण, सहिष्णुता, अहिंसा, शुचिता एवं परस्पर सहयोग की भावना को लेकर वैज्ञानिक समेत पूरा कायनात चिंतित है। सामूहिकता में मनाया जाने वाला लोकपर्व छठ संदेश देता है कि हम अपने आसपास हर दिन सफाई करें। पर्यावरण को बचाएं और प्रकृति पर मंडरा रहे खतरे को दूर भगाएं। विशेषकर बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में इसे बड़े पैमाने पर मनाया जाता है. इसी के साथ छठ महापर्व को देश के साथ ही विदेशों में भी भारतीय मूल के लोग मनाते हैं. श्रद्धा और लोक आस्था का चार दिवसीय महापर्व छठ में कठिन व्रत के साथ ही कठोर नियमों का भी पालन किया जाता है. छठ प्रकृति से जुड़ा पर्व है, जिसमें सूर्य देव की उपासना की जाती है. पंचांग के अनुसार कार्तिक शुक्ल की षष्ठी और दीवाली के बाद छठ पर्व मनाया जाता है. इस साल छठ की शुरुआत 17 नवंबर से हो रही है, जिसका समापन 20 नवंबर 2023 को होगा

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वैसे भी प्रकृति के साथ अटूट रिश्ता और लोक से जुड़ाव छठ को सभी पर्वो से अलग करता है। देखा जाएं तो विश्वभर की धार्मिक परंपराओं में इंसान का प्रकृति के साथ रिश्ता विभिन्न रुपों में उद्घाटित होता रहा है। छठ इसकी जींवत उदाहरण है। सूर्य जागृत ईश्वर है। इसीलिए छठ को प्रकृति पर्व कहा जाता है। या यूं कहे इस पर्व का प्रकृति के साथ सबसे करीबी रिश्ता माना जाता है। सूर्य की पूजा से न सिर्फ मन व शरीर शुद्ध होता है बल्कि प्रकृति के करीब पहुंचने का अवसर मिलता है। इस पर्व की महत्ता धार्मिक के साथ वैज्ञानिक भी है। इसमें व्रतियों की श्रद्धा की महापरीक्षा भी होती हैं। कहते है साफ-सफाई के मामले में व्रतियों की एक भूल पूण्य की जगह पाप भोगने को विवश कर देती है। यही वजह है कि यह पर्व सामूहिक रूप से लोगों को स्वच्छता की ओर उन्मुख करता है। अर्थात प्रकृति को सम्मान व संरक्षण देने का संदेश भी यह पर्व देता है। आज जबकि पूरी दुनिया में पर्यावरण को लेकर चिंता जतायी जा रही है, तब छठ का महत्व और जाहिर होता है। इस पर्व के दौरान साफ-सफाई के प्रति जो संवेदनशीलता दिखायी जाती है, वह लगतार बनी रहे तो पर्यावरण का भी भला होगा। छठ पूजा की प्रक्रिया के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे सेहत को फायदा होता है। सूर्य को अर्घ देने के लिए उपयोग में लाया जाने वाला हल्दी, अदरक, मूली और गाजर जैसे फल-फूल स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होते हैं। सूर्य की सचेष्ट किरणों का प्रभाव मनुष्य ही नहीं पेड़-पौधों पर पड़ता है। पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ देने से शरीर को प्राकृतिक तौर में कई चीजें मिल जाती हैं। पानी में खड़े होकर अर्घ देने से टॉक्सिफिकेशन होता है जो शरीर के लिए फायदेमंद होता है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि सूर्य की किरणों में कई ऐसे तत्व होते हैं जो प्रकृति के साथ सभी जीवों के लिए लाभदायक होते हैं। ऐसा माना जाता है कि सूर्य को अर्घ देने के क्रम में सूर्य की किरणें परावर्तित होकर आंखों पर पड़ती हैं। इससे स्नायुतंत्र सक्रिय हो जाता है और व्यक्ति खुद को ऊर्जान्वित महसूस करता है।


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इस त्योहार को जितने मन से महिलाएं रखती हैं पुरुष भी पूरे जोशो-खरोश से इस त्योहार को मनाते हैं और व्रत रखते हैं। कहा जा सकता है छठ पर्व हमारी रीति-रिवाज ही नहीं हमारी सांस्कृतिक विविधता का बेजोड़ उदाहरण है। यूपी-बिहार में इस पर्व को लोग जिस निष्ठा, भक्ति व समर्पण के साथ करते रहे हैं वह और कहीं देखने को नहीं मिलता। लोग आज भी इसकी तैयारी में पूरी आस्था और समर्पण से जुटते हैं। अपने घर, गांव व समाज में आकर छठ करने पर कुछ अलग महसूस होता है। इस दिन कितनी ही व्यस्तता हो लोग छठ के मौके पर अपने घर जरूर पहुंचते है। खास बात यह है कि लोगों को अपनत्व के बंधन में भी यह पर्व बांधता है। बेटियां इस मौके पर अपने मायके आती है। इसी बहाने दामाद भी आते है। घर में आनंद, उत्साह व प्रेम का एक अलग माहौल दिखता है। लोगों की बढ़ती आस्था का ही उदाहरण है कि अब विदेशों में रहने वाले भारतवंशी भी छठ व्रत करने लगे है। कृषक समाज को जब न तो विज्ञान का इतना विकास हुआ था और न ही आधुनिक सुख-सुविधाएं उपलब्ध थी, तब सूर्य सिर्फ ऊष्मा और ऊर्जा ही नहीं देता था बल्कि कृषि में भी हर तरह से सहायता पहुंचाता था। सही अर्थों में पूजक कृषकों ने अपनी श्रमशक्ति से खेतों में वे जो कुछ उपजाते थे उन सबको पहले सूर्य देवता को भेंट के रूप में देते थे। इस पर्व के मौके पर जो लोक गीत गाये जाते हैं उनमें से कई गीतों के अर्थ कुछ इस प्रकार होते हैं- ‘हे देवता! नेत्रहीनों को दृष्टि दो, कुष्ठ रोगियों को रोगमुक्त कर स्वस्थ बनाओ और उसी तरह से निर्धनों को धन प्रदान करो। यही तुम्हारे रथ को पूरब से पश्चिम की ओर ले जाएंगे।’ गौर करें तो इस गीत में अपने लिए नहीं, बल्कि समाज के पीड़ित और उपेक्षित लोगों के लिए नया जीवन मांगा जा रहा है। एक लोकगीत में तो मांग की गई है, ‘हे देवता! हमें पांच विद्वान पुत्र और दस हल की खेती चाहिए।‘ इससे प्रमाणित होता है कि यह व्रत अत्यंत प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है। मूलतः बिहार, यूपी, दिल्ली, महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में प्रचलित यह पर्व अब तो मॉरीशस और अमरीका में भी जीवंत नजर आता है। यह पर्व सबके बीच सद्भाव उत्पन्न करता है। सूर्य की दृष्टि में सब एक हैं। अमीर हो या गरीब या भूमि पर लेटकर उपासना करने वाले हो या एक सूप चढ़ाने वाले, सभी सूर्य परिवारी हो जाते हैं। सूर्य अपनी रश्मियों का विभाजन नहीं करता। जब कोटि-कोटि हाथ सूर्योपासना में उठते हैं तो पूरी मानवता नदी-तालाब किनारे इकट्ठा हो जाती है। अमीर का आंचल भी सूर्य के सामने फैलता है। यानी अंतःकरण की शुद्धता का भी प्रतीक है यह पर्व। व्रती का धैर्य ही महत्वपूर्ण होता है। कृषक समाज या कृषि पर आधारित समाज की संस्कृति में विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा उस समाज की संपूर्ण मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है। इसीलिए राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक जगत में अनेक तरह के परिवर्तन के वावजूद पर्व त्यौहारों का सिलसिला आज भी जारी है।


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इस ग्लोबल दुनिया में छठ अर्थात सूर्योपासना की धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताएं एवं स्थापनाएं भी पूर्ववत हैं। सूर्योपासना का यह पर्व अपने भीतर कई किंवदंतियों को समेटे है। प्रकाश पर्व दीपावली के छठवें दिन अर्थात कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी को मनाये जाने वाले इस पावन पर्व की कथा एक ओर वैदिक संस्कृति से जुड़ती है और दूसरी तरफ रामायण-महाभारत की कथाओं से भी। यह माना जाता है कि कुंती ने सूर्य की आराधना से ही तेजस्वी पुत्र कर्ण को जन्म दिया। उसने ही पहली बार अपने पुत्रों की प्राणरक्षा के लिए सूर्योपासना की। यह भी मान्यता है कि राज्याभिषेक के बाद राम और सीता ने पुत्र प्राप्ति के लिए सूर्य की आराधना की। शिवपुत्र कार्तिकेय के जन्म की कथा भी सूर्य की आराधना से जुड़ी है। इन तमाम किंवदंतियों में एक बात जो मूल रूप से जुड़ी है कि चाहे कर्ण हों, लव-कुश हों या कार्तिकेय के जन्म की परिकल्पनाएं, है यह पुत्र प्राप्ति से जुड़ी दंतकथाएं ही। यह श्रेष्ठ पुत्रों के जन्म से जुड़ी कथाएं हैं और आज भी इस रूप में इसकी मान्यताएं हैं। इन धार्मिक कथाओं से बाहर निकलें तो यह मान लेने में हर्ज नहीं है कि सूर्योपासना दरअसल प्रकृति की अनंत, अक्षय विराटता की उपासना है। यह प्रकृति की जीवनदायी अक्षय स्रोतों के प्रति लघुमानव का नमन और ग्रहण है। प्रकृति और मनुष्य के एकाकार होने का भाव है। पूरे ब्रह्मांड या सौरमंडल के अधिष्ठाता सूर्य ही हैं जो पृथ्वी पर जीवन, जीवनाहार और ऊर्जा के स्रोत हैं। आखिर मनुष्य के जीवन का पालन पोषण व रक्षण करने वाले ऊर्जा स्रोतों के प्रति एकाकार हो जाने की अनुभूति या उसके दाय को झुक कर, हाथ जोड़ कर या फैला कर स्वीकार करने की एक प्रविधि ही छठ पूजा है। भारतीय संस्कृति में समाहित पर्व अन्ततः प्रकृति और मानव के बीच तादात्म्य स्थापित करते हैं। इस दौरान लोक सहकार और मेल का जो अद्भुत नजारा देखने को मिलता है, वह पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों को भी कल्याणकारी भावना के तहत आगे बढ़ाता है। यह अनायास ही नहीं है कि छठ के दौरान बनने वाले प्रसाद हेतु मशीनों का प्रयोग वर्जित है और प्रसाद बनाने हेतु आम की सूखी लकड़ियों को जलावन रूप में प्रयोग किया जाता है, न कि कोयला या गैस का चूल्हा। वस्तुतः छठ पर्व सूर्य की ऊर्जा की महत्ता के साथ-साथ जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को भी संजोता है। छठ पर्व की परंपरा में वैज्ञानिक और ज्योतिषीय महत्व भी छिपा हुआ है। षष्ठी तिथि एक विशेष खगोलीय अवसर है, जिस समय धरती के दक्षिणी गोलार्ध में सूर्य रहता है और दक्षिणायन के सूर्य की पराबैंगनी किरणें धरती पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती हैं क्योंकि इस दौरान सूर्य अपनी नीच राशि तुला में होता है। इन दूषित किरणों का सीधा प्रभाव जनसाधारण की आंखों, पेट, स्किन आदि पर पड़ता है। इस पर्व के पालन से सूर्य प्रकाश की इन पराबैंगनी किरणों से जनसाधारण को हानि ना पहुंचे, इस अभिप्राय से सूर्य पूजा का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है। इसके साथ ही घर-परिवार की सुख-समृद्धि और आरोग्यता से भी छठ पूजा का व्रत जुड़ा हुआ है। इस व्रत का मुख्य उद्देश्य पति, पत्नी, पुत्र, पौत्र सहित सभी परिजनों के लिए मंगल कामना से भी जुड़ा हुआ है। सुहागिन स्त्रियां अपने लोक गीतों में छठ मैया से अपने ललना और लल्ला की खैरियत की ख्वाहिश जाहिर करती हैं।


छठ पूजा के मुहूर्त

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लोक आस्था का महापर्व छठ हिंदू धर्म का सबसे कठिन व्रत है. इसमें पूरे 36 घंटे तक निर्जला व्रत रखा जाता है. संतान सुख, संतान की उन्नति, अखंड सौभाग्य, सुख-समृद्धि और सुखी जीवन के यह व्रत रखा जाता. मान्यता है कि श्रद्धापूर्वक और आस्था के साथ छठ व्रत करने से छठी मईया और सूर्य देव की कृपा से जीवन सुखी होता है. छठ पर्व उषा, प्रकृति, जल, वायु और सूर्यदेव की बहन षष्ठी माता को समर्पित है.


महत्वपूर्ण तिथियां

पहला दिन : छठ व्रत की शुरुआत नहाय खाय से होती है. इस दिन प्रसाद के रूप में सात्विक रूप से कद्दू-भात तैयार किया जाता है. इस साल छठ का नहाय-खाय शुक्रवार 17 नवंबर 2023 को है.

दूसरा दिन : छठ व्रत के दूसरे दिन खरना पूजा होती है. इस दिन खीर-पूरी का प्रसाद बनता है. खरना वाले दिन संध्या में खरना प्रसाद खाकर व्रती 36 घंटे का निर्जला व्रत शुरू करती है. इस साल खरना शनिवार18 नवंबर 2023 को है.

तीसरा दिन : छठ पर्व के तीसरे दिन व्रती और घर-परिवार के सभी लोग नदी,सरोवर, पोखर या तालाब आदि में जाकर संध्याकालीन या अस्तचलगामी सूर्य को अर्घ्य देते हैं, क्योंकि इस दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा है. कुछ लोग अपने घर पर ही पानी का जमाव बनाकर अर्घ्य देते हैं. इस साल छठ व्रत में डूबते हुए सूर्य को रविवार 19 नवंबर 2023 को अर्घ्य दिया जाएगा.

चौथा दिन : छठ पर्व के आखिरी दिन उषा अर्घ्य या उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा है. उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के बाद छठ व्रत संपन्न हो जाता है. इसके बाद पारण किया जाता है. इस साल छठ पर्व में ऊषा अर्घ्य सोमवार 20 नवंबर 2023 को दिया जाएगा. 


स्वास्थ्य की संजीवनी है छठ

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छठ की हर रस्म प्रकृति व हमारे स्वास्थ्य से सीधी जुड़ी हैं। छठ में उपवास रहने से शरीर की कैलोरी जलती है। पाचन तंत्र ठीक रहता है। सुबह में पानी में खड़े होकर अर्घ्य देने के दौरान सूर्य की किरणें शरीर पर पड़ती हैं, उससे विटामिन डी की कमी की भरपाई हो जाती है। किसी तरह के चर्म रोग में इससे लाभ होता है। छठव्रती पानी में खड़े होकर अर्घ्य देती हैं। इससे सूर्य की किरण आंख के बीच संपर्क बनता है। कमर तक पानी में सूर्य की ओर देखना सेहत के लिए फायदेमंद माना जाता है। त्वचा संबंधी रोगों में सूरज की किरणों से लाभ होता है। यह श्वेत रक्त कणिकाओं की कार्यप्रणाली में सुधार कर रक्त की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है। सौर ऊर्जा हार्मोन के स्राव को नियंत्रित करने की शक्ति प्रदान करती है। रोज सूर्य ध्यान शरीर और मन को आराम देता है। ‘आरोग्यम भाष्करात इच्छेसु यानी सूर्य में आरोग्य देने की पूर्ण शक्ति है। सूर्य के सात घोड़े हैं, विज्ञान भी मानता है सूर्य की सात किरणें हैं। असल में ये सातों किरणें ही आरोग्य श्रोत हैं। सूरज की डूबती किरणें और सुबह की पहली किरणें हमारे शरीर को एक अलग ही ऊर्जा देती हैं, समग्र क्रांति के रूप में। प्रतिदिन सूर्योदय से डेढ़ घंटा पहले उठकर नित्यक्रियासे निवृत होकर सूर्य नमस्कार करने का विधान बताया गया है। ताम्बे के एक लोटा में स्वच्छ जल लेकर पूर्वाभिमुख होकर सूर्यार्घ्य दें। हस्त-मुद्रा चिकित्सा में भी सूर्य-मुद्रा के बारे में बतलाया गया है। अनामिका अंगुली को मोड़कर इसके ऊपरी पोर के भाग को अंगूठे के मूल पर लगाकर अंगूठे से दबाएं। कुछ देर दबाकर रखें। मन शांत होगा। मोटापा कम होगा। तनाव कम होगा। सूर्य को स्थावर और जंगम जगत की आत्मा कहा गया है। जीवन का प्राण सूर्य है।


ब्रह्मा की मानस पुत्री हैं षष्ठी देवी

शास्त्रोंमें षष्ठी देवी को ब्रह्मा की मानस पुत्री, मनसा प्रकृति का अंश एवं मंगला चण्डी का रूप माना गया है। इन्हें कात्यायनी, देवसेना एवं शिवपुत्र स्कन्द की प्रललाणप्रिया भी कहा गया है। ये बालकों की रक्षिका है तथा निसंतान को पुत्र प्रदान करती है। शिशु जन्म के छठे दिन (छठियार), नामकरण, अन्नप्रासन आदि अवसरों तथा नवरात्र में छठे दिन (षष्ठं कात्यायनीतिच) अनिष्टकारी शक्तियों से रक्षा एवं दीर्ध आयुष्य के लिए इनके पूजन की परम्परा है।


पौराणिक मान्यताएं

सूर्य उपासना और छठी मैया की पूजा के लिए चार दिनों तक चलने वाले इस महापर्व का इतिहास भी बहुत पुराना है। पुराणों में ऐसी कई कथाएं हैं जिसमें मां षष्ठी संग सूर्यदेव की पूजा की बात रही गयी है, फिर चाहे वो त्रेतायुग में भगवान राम हों या फिर सूर्य के समान पुत्र कर्ण की माता कुंती. छठ पूजा को लेकर परंपरा में कई कहानियां प्रचलित हैं।


राम की सूर्यपूजा

कहते हैं सूर्य और षष्ठि मां की उपासना का ये पर्व त्रेता युग में शुरू हुआ था। भगवान राम जब लंका पर विजय प्राप्त कर रावण का वध करके अयोध्या लौटे तो उन्होंने कार्तिक शुक्ल की षष्ठि को सूर्यदेव की उपासना की और उनसे आशीर्वाद मांगा। जब खुद भगवान सूर्यदेव की उपासना करें तो भला उनकी प्रजा कैसे पीछे रह सकती थी। राम को देखकर सबने षष्ठी का व्रत रखना और पूजा करना शुरू कर दिया। कहते हैं उसी दिन से भक्त षष्टी यानी छठ का पर्व मनाते हैं।


राजा प्रियव्रत की कथा

छठ पूजा से जुड़ी एक कथानुसार, एक बार एक राजा प्रियव्रत और उनकी पत्नी ने संतान प्राप्ति के लिए पुत्रयेष्टि यज्ञ कराया। लेकिन उनकी संतान पैदा होते ही इस दुनिया को छोड़कर चली गई। संतान की मौत से दुखी प्रियव्रत आत्महत्या करने चले गए तो षष्टी देवी ने प्रकट होकर उन्हें कहा कि अगर तुम मेरी पूजा करो तो तुम्हें संतान की प्राप्ति होगी। राजा ने षष्टी देवी की पूजा की जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। कहते हैं इसके बाद से ही छठ पूजा की जाती है।


कुंती कर्ण कथा

कहते हैं कि कुंती जब कुंवारी थीं तब उन्होंने ऋषि दुर्वासा के वरदान का सत्य जानने के लिए सूर्य का आह्वान किया और पुत्र की इच्छा जताई। कुंवारी कुंती को सूर्य ने कर्ण जैसा पराक्रमी और दानवीर पुत्र दिया। एक मान्यता ये भी है कि कर्ण की तरह ही पराक्रमी पुत्र के लिए सूर्य की आराधना का नाम है छठ पर्व। भविष्य पुराण में भी इस व्रत का उल्लेख मिलता है- ‘कृत्यशिरोमणो, कार्तिक शुक्ल षष्ठी षष्ठीकाव्रतम’ यानी धौम्य ऋषि ने द्रोपदी को बतलाया कि सुकन्या ने इस व्रत को किया था। द्रोपदी ने भी इस व्रत को किया जिसके फलस्वरूप वह 88 सहस्र ऋषियों का स्वागत कर पति धर्मराज युधिष्ठर की मर्यादा रखती हुई शत्रुओं को समूल नष्ट करके विजय प्राप्त की।


साफ-सफाई का विशेष ध्यान

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इस व्रत में एक-एक नियम-कानून का बहुत ही बारीकी से ध्यान देना पड़ता है। इतना ही नहीं अर्घ्य देने वाले कोनिया दौरा और प्रसाद में इस्तेमाल किए जाने वाली एक-एक चीज का पूरी तरह से शुद्ध होना बहुत जरुरी है। व्रत की शुरुआत नहाय-खाय से होती है। पूजन सामग्री किसी कारण से जूठी न हो, इस कारण पूजन सामग्री को रखने के लिए घरों की सफाई की जाती है। अगर पूजन सामग्री जूठी या अपवित्र हो जाए तो पर्व खंडित हो जाता है और इसे अशुभ माना जाता है। नहाय-खाय के दिन से ही व्रतधारी जमीन पर सोते हैं। घर में सभी के लिए सात्विक भोजन बनता है। दूसरे दिन पूरे दिन व्रत कर चंद्रमा निकलने के बाद व्रतधारी गुड़ की खीर का प्रसाद खाते हैं। इसी दिन कद्दू की सब्जी विशेषतौर पर खायी जाती है। स्थानीय बोलचाल में इसे कद्दू-भात कहते हैं। कद्दू-भात के साथ ही व्रतधारियों का 36 घंटे का अखंड व्रत शुरू हो जाता है। इस दौरान व्रतधारी अन्न और जल ग्रहण नहीं करते हैं। तीसरे दिन व्रतधारी अस्त होते हुए सूर्य को नदी व तालाब में खड़े होकर अर्ध्य देते हैं। चौथे दिन सुबह उगते सूर्य को कंद-मूल व गाय के दूध से अर्घ्य देने के साथ ही यह व्रत सम्पन्न होता है। व्रतधारी व्रत समाप्त होने के बाद सबसे पहले प्रसाद के रूप ठेकुआ खाते हैं और उसके बाद अन्न ग्रहण करते हैं।


 




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सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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