अगर सरकार चाहे तो विधानसभा में ईसाई समुदाय को प्रतिनिधित्व करने का मौका मिल सकता है
बिहार के 11 विधान पार्षदों का कार्यकाल मई 2024 समाप्त होगा. जिसमें जदयू की तरफ से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, मंत्री संजय झा, खालिद अनवार और रामेश्वर महतो की सीट है. वहीं बीजेपी के तीन विधान पार्षद मंगल पांडे, संजय पासवान और सैयद शाहनवाज हुसैन का कार्यकाल भी समाप्त हो रहा है. जबकि राजद की दो सीट एक पूर्व सीएम राबड़ी देवी और दूसरा रामचंद्र पूर्वे का कार्यकाल समाप्त हो रहा है. कांग्रेस के एक प्रेमचंद्र मिश्रा और एक सीट जीतन राम मांझी के बेटे और हम के राष्ट्रीय अध्यक्ष संतोष सुमन की है, जिनका कार्यकाल 2024 मई में समाप्त हो रहा है.यानी कुल 11 सीट विधान परिषद की खाली हो जाएगी. इसके सदस्यों का कार्यकाल छह वर्षों का होता है लेकिन प्रत्येक दो साल पर एक तिहाई सदस्य हट जाते हैं.एक राज्य के विधानसभा (निम्न सदन) के साथ इसके विपरीत, विधान परिषद (उच्च सदन) में एक स्थायी निकाय है और भंग नहीं किया जा सकता है, विधान परिषद का प्रत्येक सदस्य (एमएलसी) 6 साल की अवधि के लिए कार्य करता है. मालूम हो कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 169 के अनुसार, भारत की संसद किसी राज्य की राज्य विधान परिषद को बना या समाप्त कर सकती है यदि उस राज्य की विधायिका विशेष बहुमत से इसके लिए प्रस्ताव पारित करती है. फरवरी 2023 तक, 28 राज्यों में से 6 में राज्य विधान परिषद है. भारत के छह राज्यों में विधान परिषद है.ये हैं आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और कर्नाटक.अविभाजित बिहार में पहले आम चुनाव 1952 के बाद सदस्यों की संख्या 72 हो गई और 1958 तक यह संख्या बढ़कर 96 हो गई. झारखंड के निर्माण के साथ, संसद द्वारा पारित बिहार पुनर्गठन अधिनियम, 2000 के परिणामस्वरूप, बिहार विधान परिषद की की क्षमता 96 से 75 सदस्यों तक कम हो गई है. बिहार विधान परिषद के सदस्यों की संख्या 96 थी.15 नवंबर 2000 में बिहार से अलग कर झारखंड राज्य की स्थापना की गई थी और बिहार विधान परिषद के सदस्यों की संख्या 96 से घटाकर 75 निर्धारित की गई.अभी बिहार विधान परिषद में 27 सदस्य बिहार विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से, 6 शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र से, 6 स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से, 24 स्थानीय प्राधिकार से तथा 12 मनोनीत सदस्य हैं.
इस समय स्वयं को अल्पसंख्यक ईसाई समुदाय उपेक्षित महसूस कर रहे हैं.भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में एंग्लो-इंडियन समुदाय को लोकसभा में प्रतिनिधित्व करने का प्रावधान किया गया.इस प्रावधान के तहत दो सदस्यों को प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर राष्ट्रपति मनोनीत करते थे. ऑल इंडिया एंग्लो-इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे फ्रैंक एंथोनी पहले और लंबे समय तक प्रतिनिधित्व किये.उन्होंने ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से यह अधिकार हासिल किया था.ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि समुदाय के पास अपना कोई मूल राज्य नहीं था. इसी तरह विधान सभा में एंग्लो-इंडियन समुदाय के एक प्रतिनिधि को मुख्यमंत्री चयन करके राज्यपाल को मनोनीत करने लिए अनुशंसा करते है.तब बिहार विधानसभा में एंग्लो-इंडियन समुदाय के जोसेफ पी गोलस्टेन प्रतिनिधित्व कर रहे थे.झारखंड का लंदन या गोरों के गांव के नाम से चर्चित मैक्लुस्कीगंज से प्रतिनिधित्व कर रहे थे. कभी चार सौ गोरे परिवारों की इस बस्ती में अब बमुश्किल एक दर्जन परिवार रह गए हैं.बिहार से 15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग होने तथा मैकुस्लीगंज के क्षेत्र झारखंड में चले जाने से बिहार विधानसभा में एंग्लो-इंडियन समुदाय के प्रतिनिधित्व करने वाले जोसेफ पी गोलस्टेन झारखंड में चले गये.झारखंड के पहले और बिहार के अंतिम एंग्लो-इंडियन समुदाय के प्रतिनिधि जोसेफ पी गोलस्टेन बने. एंग्लो-इंडियन समुदाय के प्रतिनिधि जोसेफ पी गोलस्टेन के निधन के बाद झारखंड के ग्लेन जोसेफ गोलस्टेन प्रतिनिधित्व करने लगे. इसके बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा में एंग्लो-इंडियन समुदाय के प्रतिनिधित्व देना बंद कर दिये. इसके बाद भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने लोकसभा और विधानसभा में एंग्लो-इंडियन समुदाय के प्रतिनिधित्व नहीं देने का निश्चय किया.एनडीए सरकार ने जनवरी 2020 में भारत की संसद और राज्य विधानसभाओं में एंग्लो-इंडियन आरक्षित सीटों को 2019 के 126 वें संवैधानिक संशोधन विधेयक द्वारा बंद कर दिया गया था, जब इसे 104 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2019 के रूप में लागू किया गया था. इन एंग्लो- इंडियन समुदाय के दो सदस्यों को भारत सरकार की सलाह पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाता था.
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