आलेख : जनता हो राजनीतिक दलों के चुनावी चंदे का स्रोत - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

आलेख : जनता हो राजनीतिक दलों के चुनावी चंदे का स्रोत

अस्सी के दशक से पहले कांग्रेंस को छोड़ दें तो राजनीतिक दलों के चुनावी चंदे का स्रोत आम जनमानस ही थे। उस दौर में पार्टियों के पास एक रसीद बुक हुआ करती थी. इस बुक को लेकर कार्यकर्ता घर-घर जाते थे और लोगों से चंदा वसूलते थे. तो वर्तमान में राजनीतिक दलों को चंदे के लिए जनता के पास क्यों नहीं जाना चाहिए? जबकि सच तो यह है कि जनता खुलकर उनकी मदद करेगी. मतलब साफ है पार्टी के सदस्यों और उन लोगों को चंदा देना चाहिए, जो संबंधित पार्टी की विचारधारा से प्रभावित या सहानुभूति रखते हैं। कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए होती हैं तो वो अपना पैसा राजनीतिक दलों को क्यों दें? और फिर उससे राजनीति में भी गंदगी आती है. इसकी बड़ी वजह यह है कि जब कोई कारोबारी (कॉर्पोरेट घराने) अपने कंपनियों के शेयर होल्डर्स का पैसा राजनीतिक दलों को चंदे के तौर पर देंगे, तो उनसे लाभ भी लेना ही चाहेंगे। इसकी पहल भाजपा को ही करनी होगी। देखा जाएं तो जनसंघकाल में भी उसके नेता लोगों के घर-घर जाकर चुनाव चिह्न दीपक बताते हुए उनसे वोट देने के साथ चंदा भी लेते थे

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हालांकि, इससे पहले भी चुनावी चंदे को लेकर विवाद रहा है. आंकड़े बताते हैं कि जो पार्टी सत्ता में रही है, उसे सबसे ज्यादा चुनावी चंदा मिला है. जब इलेक्टोरल बॉन्ड नहीं थे, तब भी सत्ता पक्ष ही चंदे पाने के मामले में सबसे आगे रहता था या फिर जिस दल की सत्ता में आने की संभावना सबसे ज्यादा होती थी, उस पर कॉर्पोरेट घराने सबसे ज्यादा मेहरबान होते थे. 60 के दशक में जनसंघ बहुत बड़ी पार्टी नहीं बन पाई थी और उसे पैसे की कमी से जूझना पड़ रहा था, क्योंकि ज्यादातर उद्योगपति सिर्फ सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को ही चंदा देते थे. तब वाजपेयी अगस्त 1962 में राज्यसभा में एक प्राइवेट मेंबर बिल लेकर आए. इस बिल में कंपनीज एक्ट, 1956 के तहत बदलाव (संशोधन) का सुझाव रखा गया था. बिल में कहा गया था कि कंपनियों को राजनीतिक दलों को चंदे देने पर रोक लगानी चाहिए. क्योंकि कंपनियों को अपने शेयर होल्डर्स का पैसा राजनीतिक दलों को चंदे के तौर पर देने का नैतिक अधिकार नहीं है. क्योंकि शेयरधारक कंपनी के विचारों से सहमत नहीं हो सकते हैं. वाजपेयी ने सवाल किया कि कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए होती हैं तो वो अपना पैसा राजनीतिक दलों को क्यों दें? और फिर उससे राजनीति में भी गंदगी आती है. वाजपेयी का कहना था कि राजनीतिक दलों को चंदे के लिए जनता के पास जाना चाहिए, जनता उनकी मदद करे. इस बिल पर संसद में जबरदस्त बहस हुई. इस विधेयक को सभी राजनीतिक दलों का समर्थन मिला. लेकिन संसद में कांग्रेस के पास भारी बहुमत था. लिहाजा, यह बिल पास नहीं हो पाया था.


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वाजपेयी ने राज्यसभा में इस विधेयक पेश करने का उद्देश्य समझाया था. उन्होंने कहा था, राजनीतिक जीवन में धन के प्रभाव को कम करने की जरूरत है. विधेयक में इस बात पर जोर दिया गया था कि पार्टी के सदस्यों और उन लोगों को चंदा देना चाहिए, जो संबंधित पार्टी की विचारधारा से प्रभावित या सहानुभूति रखते हैं. इस मुद्दे पर तीन दिन तक लंबी बहस चली. अंत में वाजपेयी ने कहा था, ऐसा कोई भी कारोबारी नहीं होगा जो कांग्रेस को चंदा सिर्फ इसलिए देगा, क्योंकि वो कांग्रेस की नीतियों से प्रभावित या सहमत हो. वे (कॉर्पोरेट घराने) ऐसा किसी खास विचारधारा को फलते-फूलते देखने के लिए नहीं, बल्कि अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए करते हैं. हालांकि इस समय देश में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार केंद्र और कई राज्यों में है. बीजेपी अब देश की सबसे ताकतवर पार्टी है. यही वजह है कि उसे सबसे ज्यादा इलेक्टोरल बांड के जरिए चंदा मिला। हालांकि अन्य पार्टियों को भी उनकी सदस्यता व हिस्सेदारी के अनुपात में ज्यादा चंदा मिला है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में भी याचिकाकर्ता ने यह तर्क दिया है. जबकि सरकार का कहना है कि पारदर्शिता लाने के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड लेकर आए थे. ताकि कोई भी पार्टी अपने आय और व्यय को साफ रखे और चुनाव आयोग को जानकारी देने के लिए बाध्य हो. दरअसल, याचिकाकर्ता का कहना था कि सत्तारूढ़ दल या सत्ता में आने वाले पार्टी को बहुत ज्यादा पैसा मिलता है. क्योंकि कॉरपोरेट घराने उनको पैसा देते हैं और सत्ता में आने पर अपने हित से जुड़े काम करवाते हैं और मदद लेते हैं. चंदा लेने वाली पार्टी उनके एहसान के तले दबी रहती है. लिहाजा उनके अनुसार काम करती है और गैरकानूनी काम को भी कानूनी अमलीजामा पहनाने से पीछे नहीं हटती है.


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हालांकि इलेक्टोरल बॉन्ड रद्द हो जाने के बाद पार्टियों के पास और भी रास्ते हैं जहां से वो कमाई कर सकतीं हैं. इनमें डोनेशन, क्राउड फंडिंग और मेंबरशिप से आने वाली रकम शामिल है. इसके अलावा कॉर्पोरेट डोनेशन से भी पार्टियों की कमाई होती है. इसमें बड़े कारोबारी पार्टियों को डोनेशन देते हैं. फिरहाल, देश में इलेक्टोरल बॉन्ड चर्चा में है. चुनावी चंदे पर विपक्ष मुखर है. सुप्रीम कोर्ट ने भी पारदर्शिता पर जोर दिया है और इस योजना को ही रद्द कर दिया है. जबकि सरकार का दावा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड पॉलिसी की वजह से ही चंदे की सही जानकारी मिल पा रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चुनावी चंदे पर प्रतिक्रिया दी. पीएम मोदी ने कहा, 2014 से पहले जब चुनाव हुए तो कौन सी एजेंसी बता सकती है कि पैसा कहां से आया और कहां गया? हम चुनावी बॉन्ड लेकर आए, इसलिए आज आप बता पा रहे हैं कि किसने किसको कितना दिया और कैसे दिया, वरना यह पता ही नहीं चल पाता. उन्होंने कहा कि जो लोग इसको लेकर आज नाच रहे हैं या गर्व कर रहे हैं, वो पछताने वाले हैं. 2014 से पहले जितने चुनाव हुए उनमें खर्चा तो हुआ ही होगा, ऐसी कौन सी एजेंसी है जो बता पाएं कि पैसा कहां से आया था और कहां गया और किसने कितना खर्च किया. मोदी ने इलेक्टोरल बॉन्ड बनाया था, इसके कारण आप ढूंढ पा रहे हो कि पैसा कहां से आया, किसने दिया, वरना पहले तो यह पता ही नहीं लग पाता था. कोई व्यवस्था पूरी नहीं होती, उसमें कमियां हो सकती है और कमियों को सुधारा जा सकता है.


बता दें, चुनावी बॉन्ड योजना से पहले पार्टियों को चंदा अधिकतर नगदी के तौर पर मिलता था, जिससे राजनीतिक दलों और चुनावी प्रक्रिया में काले धन को बढ़ावा मिलता था. किसी पार्टी को चंदा देने वालों को अक्सर विरोधी पार्टी से निशाना बनाए जाने की आशंका रहती थी. चंदे में दी गई राशि की पूरी जानकारी उनके एनुअल अकाउंट में होती थी. जबकि राजनीतिक पार्टियां चुनाव आयोग को चंदा देने वाले का नाम और प्राप्त राशि की जानकारी देती थीं. ऐसी स्थिति में आमतौर पर कॉरपोरेट चेक के जरिए बड़ी रकम का चंदा देने से बच जाता था, क्योंकि इसकी पूरी जानकारी आयोग को देनी होती थी. नवंबर 2023 में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि वित्त वर्ष 2004-05 से 2014-15 के बीच 11 साल की अवधि के दौरान राजनीतिक दलों की कुल आय का 69 फीसदी हिस्सा ‘अज्ञात स्रोतों’ से प्राप्त हुआ था. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट को बताया था कि इस अवधि के दौरान, ‘अज्ञात स्रोतों’ से राष्ट्रीय पार्टियों की आय 6,612.42 करोड़ रुपये और क्षेत्रीय पार्टियों की आय 1,220.56 करोड़ रुपये थी. अज्ञात स्रोत का अर्थ हुआ कि ऐसे राजनीतिक चंदे का कोई लेखा जोखा नहीं था. ऐसे में राजनीतिक चंदे कैश में दिए जाते हैं और बैंकिंग सिस्टम से बाहर रहते हैं. इस कारण ऐसे चंदे को ब्लैक मनी माना जा सकता है.


पहले कैसे घपला करतीं थी पार्टियां?

इलेक्टोरल बॉन्ड से पहले की स्थिति को देखें तो सभी राजनीतिक दलों के लिए आयकर रिटर्न दाखिल करते समय पार्टी फंड में 20 हजार रुपये से अधिक का योगदान देने वाले दानकर्ताओं के नाम और अन्य विवरण रिपोर्ट करना अनिवार्य था. 20 हजार से कम राशि दान करने वालों की जानकारी नहीं मांगी जाती थी, इस दान को अज्ञात स्रोतों से आमदनी के रूप में घोषित किया जाता था और ऐसे दानदाताओं के विवरण सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध नहीं होते थे. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेट रिफॉर्म्स यानी एडीआर ने 2017 में एक अध्ययन के जरिए पाया कि 2004-5 और 2014-15 के बीच भारत में राजनीतिक दलों की कुल आय 11 हजार 367 करोड़ रुपये थी, जिसमें 20 हजार से कम दान वाले दान से प्राप्त आमदनी कुल आय का 69 प्रतिशत हिस्सा थी. यानी 7833 करोड़ रुपये अज्ञात स्रोतों से आए थे, जबकि राजनीतिक दलों की कुल आय का केवल 16 प्रतिशत हिस्सा ही ज्ञात दानदाताओं से था.


पहले पता ही नहीं चलता था कहां से हुई फंडिंंग

2004 के बाद से 2015 तक 6 राष्ट्रीय पार्टियों (कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी, एनसीपी, सीपीआई, सीपीएम) और 51 क्षेत्रीय पार्टियों को कुल आय 11,367.34 करोड़ रुपये में से अज्ञात स्रोतों से आय 7,832.98 करोड़ रुपये थी. इसमें राष्ट्रीय पार्टियों को 71 फीसदी फंडिंग अज्ञात स्रोतों से हुई और क्षेत्रीय पार्टियों के लिए यह 58 फीसदी थी. 11 साल में कांग्रेस की 83 फीसदी फंडिंग, बीजेपी की 65 फीसदी, एसपी की 95 फीसदी और शिरोमणि अकाली दल की 86 फीसदी फंडिंग का पता नहीं चला पाया था कि किसने उनको यह रकम दी है. इस कार्यकाल में राष्ट्रीय पार्टियों को अज्ञात स्रोतों से मिलने वाली फंडिंग में 313 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई जबकि क्षेत्रीय पार्टियों की फंडिंग में 652 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई. संयोग से बसपा एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो लगातार घोषणा करती है कि उसे 20,000 रुपये से अधिक का चंदा नहीं मिला. बसपा का कहना था कि उसे अज्ञात स्रोतों से 100 प्रतिशत दान मिला है और पिछले 11 वर्षों में कुल आय में 2057 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई थी. तब दलों को 20 हजार रुपये से कम के चंदे का विवरण न बताने की छूट थी। इसके चलते कई दल यह बताते थे कि उन्हें करोड़ों का चंदा मिला तो लेकिन वह सब 20-20 हजार रुपये से कम का यानी फुटकर ही था। कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी के पास सारा काला धन आता था। यह सर्वविदित है कि खर्चीले चुनाव राजनीति में भ्रष्टाचार का एक बहुत बड़ा कारण हैं. चुनाव लड़ने के लिए धन की जरूरत पड़ती है. आजादी के बाद भारतीय राजनीति और उसमें सक्रिय राजनीतिक दलों का जिस तरह से विकास हुआ है, उसमें अब पार्टियां जनता से मिलने वाले चंदे या आर्थिक मदद पर निर्भर नहीं रह गयी हैं. वे लगभग पूरी तरह बड़े कॉरपोरेट घरानों से मिलने वाले धन और सत्ता प्राप्त करने के बाद किए गए भ्रष्टाचार से कमाए धन पर निर्भर हैं.


इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

राजनैतिक दलों को चंदा देने के लिए 2018 से लागू की गई इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 15 फरवरी को असंवैधानिक करार दे दिया. जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने एक राय से अपने फैसले में कहा कि राजनीतिक दलों को गुमनाम चंदे वाली चुनावी बांड योजना संविधान के अनुच्छेद 191ए के तहत मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है. व्यक्तिगत चंदे से ज्यादा परेशानी कंपनियों द्वारा दिए जाने वाले चंदे से है. कोर्ट ने कहा कि इस बात की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि चंदा लेने वाले राजनीतिक दल और कंपनियों के बीच एक तरह का गठजोड़ पैदा हो जाएगा. संविधान पीठ ने कहा कि यह योजना राजनीतिक प्रक्रिया में आम वोटर के बजाय बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों के गैर-वाजिब दखल को बढ़ावा देती है. यह एक, व्यक्ति एक वोट के राजनीतिक समानता के बुनियादी सिद्धांत और स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया में बाधा डालने वाली योजना है. जबकि सरकार का कहना है कि इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कई प्रावधान किए गए थे जैसे सिर्फ वही पार्टी इलेक्टोरल बॉन्ड ले सकती थी, जिसे पिछले आम चुनाव में कम से कम 1 प्रतिशत वोट हासिल हुए हो, केवल वही व्यक्ति या कंपनी बॉन्ड खरीद सकते थे जिनका केवाईसी पूरा हो यानी जिनकी पहचान बैंक स्थापित कर चुका हो, बॉन्ड का इस्तेमाल अवैध लेनदेन में ना हो इसके लिए 15 दिन के भीतर ही इनको भुनाना जरूरी किया गया था. अगर 15 दिनों में बॉन्ड को कैश नहीं कराया जाता है तो इसका पैसा प्रधानमंत्री राहत कोष में ट्रांसफर हो जाता था. हालांकि कोर्ट ने चंदा देने वाले की निजता और एक नागरिक के राजनीतिक दल की फंडिंग को जानने के अधिकार में संतुलन को चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता के लिए जरूरी बताया. इस व्यवस्था को लाते समय सरकार की ओर से यह तर्क दिया गया था कि चुनावी बॉन्ड के इस सुधार से राजनीतिक फंडिंग के क्षेत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ने की उम्मीद है. साथ ही भविष्य में अवैध फंड की गतिविधि को भी रोका जा सकेगा. चुनावी बॉन्ड योजना की घोषणा तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2017-18 के अपने बजट भाषण में की थी और इसे राजनीतिक वित्त पोषण में पारदर्शिता लाने के प्रयासों के तहत राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले नकद चंदे के विकल्प के रूप में पेश किया था.


चुनावी बॉन्ड से कितना-कितना मिला पैसा

इसमें देश के 25 राजनीतिक दलों को 127 अरब 69 करोड़ 8 लाख 93 हजार रुपए मिले हैं। पांच मूल्य वर्ग में बॉन्ड खरीद गए हैं। इसमें न्यूनतम ट्रांजक्शन 1 हजार और अधिकतम 1 करोड़ रुपए का है। बाकी 10 हजार, 1 लाख और 10 लाख रुपए के मूल्यवर्ग में बॉन्ड खरीदे गए। राजनीतिक दलों में सबसे ज्यादा पैसा करीब 60.60 अरब रुपए बीजेपी को मिला है। जबकि दूसरे नम्बर पर ऑन इंडिया तृणमूल कांग्रेस पार्टी है, जिसे 16.09 अरब रुपए मिले। वहीं, कांग्रेस के खाते में 14.21 अरब रुपए गए है। तृणमूल कांग्रेस पार्टी तो कांग्रेस से भी आगे निकल गई।


 


 


Suresh-gandhi


सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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