कुछ समय बाद हम ने अपने घर का रंग-रोगन कराने की सोची। जब पेंटर लोग आए तो मेरा बेटा, जो अपने दादा से बहुत प्यार करता था, ने रंगसाज़ों को अपने दादा के उंगलियों के निशानों को मिटाने और उन क्षेत्रों पर पेंट करने से रोका। पेंटर बालक की बात मान गए। उन्होंने उसे आश्वासन दिया कि वे उसके दादाजी यानी मेरे पिताजी के उंगलियों/हाथों के निशान नहीं हटाएंगे, बल्कि इन निशानों के आसपास एक खूबसूरत गोल घेरा बनाएंगे और एक अनूठा डिजाइन तैयार करेंगे। इस बीच पेंट का ख़त्म हुआ मगर वे निशान हमारे घर का एक हिस्सा बन गए। हमारे घर आने वाला हर व्यक्ति हमारे इस अनूठे डिजाइन की प्रशंसा करने लगा। समय के साथ-साथ मैं भी बूढ़ा हो गया।अब मुझे चलते समय दीवार का सहारा लेने की जरूरत पड़ने लगी थी। एक दिन चलते समय, मुझे अपने पिता से कही गई बातें याद आईं और मैंने बिना सहारे चलने की कोशिश की। मेरे बेटे ने यह देखा और तुरंत मेरे पास आया और मुझसे दीवार का सहारा लेने को कहा और चिंता जताई कि मैं सहारे के बिना गिर जाऊंगा। मैंने महसूस किया कि मेरा बेटा मेरा सहारा बन गया था।
मेरी बिटिया तुरंत आगे आई और प्यार से मुझसे कहा कि मैं चलने के लिए उसके कंधे का सहारा लूं। मैं रोने लगा। अगर मैंने भी अपने पिता के लिए ऐसा किया होता तो वे और लंबे समय तक जीवित रह सकते थे, मैं सोचने लगा।मेरी बिटिया मुझे साथ लेकर गई और सोफे पर बिठा दिया।फिर मुझे अपनी ड्राइंग बुक दिखाने लगी । उसकी टीचर ने उसकी ड्राइंग की प्रशंसा की थी और उत्कृष्ट रिमार्क दिया था।स्केच मेरे पिता के दीवार पर हाथों के निशानों का था। उसकी टिप्पणी थी - "काश! हर बच्चा बुजुर्गों से इसी तरह प्यार करे"। मैं अपने कमरे में वापस आया और खूब रोया, अपने पिता से क्षमा मांगी, जो अब इस दुनिया में नहीं थे। हम भी समय के साथ बूढ़े हो जाएंगे । आइए, हम अपने बुजुर्गों की देखभाल करें और अपने बच्चों को भी यही सिखाएं।
डॉ० शिबन कृष्ण रैणा

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