मां के प्रति प्रेम, सम्मान और कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए भारत समेत कई देशों में हर साल मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाता है। मां सिर्फ बच्चे को जन्म ही नहीं देती बल्कि उसका पालन-पोषण करने के साथ जीवन के हर सुख-दुख में अपने बच्चे के साथ भी खड़ी रहती है. मां के लिए जितना भी करो कम ही है, क्योंकि मां की बराबरी इस संसार में कोई नहीं कर सकता है. किसी ने सच ही कहा है कि ईश्वर हर जगह नहीं पहुंच सकता, इसलिए उसने मां बनायी। मां का ऋण कोई भी कभी नहीं उतार सकता है, क्योंकि मां शब्द ही ऐसा है जिसमें बच्चे का पूरा संसार बसता है. अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। या यूं कहे, जननी और जन्मभूमि के बिना स्वर्ग भी बेकार है, क्योंकि मां की ममता व छाया ही स्वर्ग का एहसास कराती है। ‘मां’ के उच्चारण मात्र से ही हर दुख दर्द का अंत हो जाता है। मतलब साफ है ‘मां’ की ममता और उसके आंचल की महिमा को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। एक मां ही है, जो अपने बच्चों को बचाने के लिए खुद अपने को कुर्बान कर देती है
मां के बिना जिंदगी वीरान होती हैं,
तन्हा सफर में हर राह सुनसान होती है।
जिंदगी में मां का होना जरूरी है,
मां की दुआओं से ही हर मुश्किल आसान होती है.
हर रिश्ते में मिलावट देखी,
कच्चे रंगों की सजावट देखी,
लेकिन सालों साल कभी देखा है
माँ को उसके चेहरे पर ना कभी थकावट देखी,
ना ममता में कभी मिलावट देखी!
ऊपर जिसका अंत नहीं उसे आसमान कहते हैं,
इस जहां में जिसका अंत नहीं उसे मां कहते हैं.
कहां से हुई शुरुआत
बात 19वीं शताब्दी के दौरान की है, अमेरिका सिविल वॉर यानी गृह युद्ध से जल रहा था. इस दौरान कुछ वुमेन पीस ग्रुप्स ने शांति के पक्ष में और युद्ध के खिलाफ छुट्टियों और रेगुलर एक्टिविटीज को स्थापित करने की कोशिश की. इसकी शुरुआत उन माताओं के ग्रुप्स की मीटिंग के साथ हुई, जिनके बेटे अमेरिकन सिविल वॉर में विपरीत पक्षों से लड़े थे या मारे गए थे. साल 1868 में, एना मारिया जार्विस की मां एन जार्विस “मदर्स फ्रेंडशिप डे” की स्थापना के लिए एक कमेटी बनाई, जिसका उद्देश्य “सिविल वॉर के दौरान विभाजित परिवारों को फिर से जोड़ना” था. बता दें कि एन जार्विस ने इससे पहले टाइफाइड के प्रकोप से गुजर रहे अमेरिका के उत्तरी राज्य (यूनियन) और दक्षिणी राज्य (कॉन्फेडरेट) दोनों में चल रहे कैंप्स के लिए सेनिटाइजेशन और हेल्थ में सुधार के लिए मदर्स डे वर्क क्लब का आयोजन किया था, वो इन्हें माताओं के लिए एक एनुअल मेमोरियल के रूप में आगे बढ़ाना चाहती थीं, लेकिन एनुअल सेलिब्रेशन की स्थापना से पहले 9 मई 1905 में एन जार्विस मौत हो गई. इसके बाद एन जार्विस की बेटी, एना जार्विस अपनी मां के अधूरे सपने को पूरा करने में जुट गईं और उनके काम को आगे बढ़ाने लगीं. अपनी मां की मौत के तीन साल बाद, 10 मई, 1908 को एना जार्विस ने एंड्रयूज मेथोडिस्ट एपिस्कोपल चर्च में अपनी मां और सभी माताओं का सम्मान करने के लिए एक मेमोरियल सेरेमनी का आयोजन किया, जो आज वेस्ट वर्जीनिया के ग्राफ्टन में इंटरनेशनल मदर्स डे श्राइन के रूप में प्रसिद्ध है, यही दिन पहले मदर्स डे आधिकारिक सेलिब्रेशन का एक प्रतीक है. 5 अक्टूबर 1992 से इंटरनेशनल मदर्स डे श्राइन एक नामित राष्ट्रीय ऐतिहासिक स्थल रहा है. एक मां अपनी संतान में अपना बीता हुआ कल देखती है और एक संतान के लिए मां उसकी रोल मॉडल होती है। इसी वजह से दोनों का रिश्ता बेहद खास होता है। एक मां के अंदर प्रांरभ से ही अपने बच्चे के प्रति बेहद अपनेपन की भावना कायम हो जाती है। उसे अपना बच्चा सारी दुनिया से प्रिय व सुंदर लगता है।
मां से ही है वजूद
अपने बेटे के लिए सारी खुशियों का त्याग कर एक मां ही होती हैं जो दुःख झेलती रहती हैं. जब भी हमें कोई ठोकर लगती है तो सबसे पहले मां शब्द ही निकलता है. माँ जिसकों सिर्फ़ बोलने से ही हृदय में प्यार और ख़ुशी की लहर आ जाती है. भगवान ने भी मां शब्द को एक ही बनाया है. उसने ये नहीं कहा कि ये फलाने की मां ये ढ़माके की मां. उनसे मां को प्यार, त्याग, जैसे अटूट बंधनों से जोड़ा हैं. जिसका कोई मोल नही हैं. न ही कभी हो सकता है.
मातृ देवो भवः
‘माँ’ दुनिया का सबसे खूबसूरत शब्द है। कहते है ‘माँ’ में पूरी दुनिया समाई है। ‘माँ’ शब्द बोलने से ही हमें ऊर्जा, प्यार की अनुभूति होती है। दुनिया में माँ और संतान का रिश्ता सबसे ख़ास होता है। जिसे बयान करना मुश्किल है। हमारे शास्त्रों में भी ‘माँ’ के लिए कहा गया है कि, ‘मातृ देवो भव’! भारतीय समाज में माँ को भगवान के समान दर्जा दिया गया है। ‘माँ’ का जीवन त्याग, प्रेम, संघर्षपूर्ण, देखभाल से भरा होता है। ‘माँ’ कभी भी अपनी तकलीफ नहीं बताती, पर अपने बच्चे की परेशानी यूं पकड़ लेती है। ‘माँ’ वो है जो हमारी शक्ल देख कर हमारा सारा हाल जान लेती है। ‘माँ’ है जो हमे जीना सिखाती है। ‘माँ’ वो पहली शख्श है जिसे हम स्पर्श मात्र से पहचान लेते है। छोटा हो या बड़ा ‘माँ’ सबको बराबर प्यार करती है। माँ हर वक़्त हमारे लिए सोचती और कार्य करती हो। हमारा एग्जाम हो तो ‘माँ’ हमारे साथ रात भर जगती है, हमें गिर कर उठना सिखाती है। स्कूल जाने से पहले पहली गुरु ‘माँ’ होती है। रिजल्ट आने पर हमसे ज़्यादा खुश ‘माँ’ होती है। पापा की डांट से जो बचाती है वो ‘माँ’ होती है। हम थक कर घर आते है तो हालचाल पूछने वाली ‘माँ’ होती है। मां के शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है, जो अन्य किसी शब्दों में नहीं होती। मां नाम है संवेदना, भावना और अहसास का। मां के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। मातृत्व की छाया में मां न केवल अपने बच्चों को सहेजती है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसका सहारा बन जाती है। समाज में मां के ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने अकेले ही अपने बच्चों की जिम्मेदारी निभाई। कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग ने मातृत्व को परिभाषित करते हुए कहा है- सभी प्रकार के प्रेम का आदि उद्गम स्थल मातृत्व है और प्रेम के सभी रूप इसी मातृत्व में समाहित हो जाते हैं। प्रेम एक मधुर, गहन, अपूर्व अनुभूति है, पर शिशु के प्रति मां का प्रेम एक स्वर्गीय अनुभूति है। धरती पर मौजूद प्रत्येक इंसान का अस्तित्व, मां के कारण ही है। मां के जन्म देने पर ही मनुष्य धरती पर आता है और मां के स्नेह दुलार और संस्कारों में मानवता का गुण सीखता हैं। ‘मां!’ यह वो अलौकिक शब्द है, जिसके स्मरण मात्र से ही रोम-रोम पुलकित हो उठता है, हृदय में भावनाओं का अनहद ज्वार स्वतः उमड़ पड़ता है और मनोःमस्तिष्क स्मृतियों के अथाह समुद्र में डूब जाता है। हर संतान अपनी मां से ही संस्कार पाता है। लेकिन मेरी दृष्टि में संस्कार के साथ-साथ शक्ति भी मां ही देती है। इसलिए हमारे देश में मां को शक्ति का रूप माना गया है और वेदों में मां को सर्वप्रथम पूजनीय कहा गया है। श्रीमद् भगवद् पुराण में उल्लेख मिलता है कि माता की सेवा से मिला आशीष सात जन्मों के कष्टों व पापों को दूर करता है और उसकी भावनात्मक शक्ति संतान के लिए सुरक्षा कवच का काम करती है। मां को धरती पर विधाता की प्रतिनिधि कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सच तो यह है कि मां विधाता से कहीं कम नहीं है। क्योंकि मां ने ही इस दुनिया को सींचा और पाला-पोशा है। कण-कण में व्याप्त परमात्मा किसी को नजर आये न आए मां हर किसी को हर जगह नजर आती है। कहीं अण्डे सेती, तो कहीं अपने शावक को, छोने को, बछड़े को, बच्चे को दुलारती हुई नजर आती है। मां एक भाव है मातृत्व का, प्रेम और वात्सल्य का, त्याग का और यही भाव उसे विधाता बनाता है। मां विधाता की रची इस दुनिया को फिर से, अपने ढंग से रचने वाली विधाता है। मां सपने बुनती है और यह दुनिया उसी के सपनों को जीती है और भोगती है।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी


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