सीता नवमी : परमात्मा की शक्ति स्वरूपा हैं मां सीता - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 16 मई 2024

सीता नवमी : परमात्मा की शक्ति स्वरूपा हैं मां सीता

गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में सीता जी को संसार की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करने वाली माता कहा है। माता सीता शक्ति, इच्छा-शक्ति तथा ज्ञान-शक्ति तीनों रूपों में प्रकट होती हैं। अतः वे परमात्मा की शक्ति स्वरूपा हैं। एक पुत्री, पुत्रवधू, पत्नी और मां के रूप में उनका आदर्श रूप सभी के लिए पूजनीय रहा है। संसार में एकमात्र मां सीता ही है जिन्होंन धरती से जन्म लिया तो धरती में ही समा गयी। सीता नवमी रामनवमी की तर्ज पर माता जानकी के जन्मोत्सव के रूप में जाना जाता है। यह व्रत सौभाग्यवती स्त्रियां अपने वैवाहिक जीवन की सुख-शांति एवं संतान की कामना के लिए करती हैं। माता सीता को मां लक्ष्मी का अवतार माना जाता है. इसलिए माता सीता की पूजा करने से मां लक्ष्मी खुद-ब-खुद प्रसन्न हो जाती हैं, जिन्हें धन की देवी भी कहा जाता है. सीता नवमी पर सच्चे मन से मां सीता की उपासना करने वालों के घर में कभी धन की कमी नहीं रहती है. ऐसी भी मान्यताएं हैं कि माता सीता की पूजा-पाठ से रोग और पारिवारिक कलह से मुक्ति मिल सकती है. इस बार सीता नवमी 16 मई गुरुवार को है. इस दिन वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि, मघा नक्षत्र, ध्रुव योग, बव करण, दक्षिण का दिशाशूल है. सुबह 06ः22 बजे के बाद से नवमी तिथि लग जाएगी. ऐसे में सीता नवमी का उत्सव गुरुवार को है. पौराणिक कथाओं के अनुसार, वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को माता सीता प्रकट हुई थीं, इस वजह से सीता नवमी इस तिथि को मनाते हैं. इस दिन व्रत रखकर माता सीता की विधि विधान से पूजा करते हैं. इस बार सीता नवमी गुरुवार होने के कारण भगवान विष्णु की पूजा का भी शुभ संयोग बना है. सीता नवमी पर व्रत और पूजा पाठ करने से दांपत्य जीवन खुशहाल होता है. महिलाओं को अखंड सौभाग्य का आशीर्वाद मिलता है 


Sita-navmi
सीता नवमी मां सीता के जन्म दिवस के रुप में जाना जाता है। वैशाख मास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को भी जानकी-जयंती के रूप में मनाया जाता है, परंतु भारत के कुछ क्षेत्रों में फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष को सीता-जयंती के रूप में भी मनाने की परंपरा रही है। इसीलिए इस तिथि को सीताष्टमी के नाम से भी संबोद्धित किया जाता है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को सीता नवमी कहते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार, इसी दिन भगवान श्रीराम की प्राणप्रिया आद्याशक्ति, सर्वमंगलदायिनी, पतिव्रताओं में शिरोमणि श्री सीता माताजी का प्राकट्य हुआ था। इसे पर्व को जानकी नवमी भी कहते हैं। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी पर पुष्य नक्षत्र में जब राजा जनक संतान प्राप्ति की कामना से यज्ञ की भूमि तैयार करने के लिए भूमि जोत रहे थे, उसी समय उन्हें पृथ्वी में दबी हुई एक बालिका मिली। जोती हुई भूमि को तथा हल की नोक को सीता कहते हैं। इसलिए उस बालिका का नाम सीता रखा गया।


Sita-navmi
माता सीता की उत्पत्ति भूमि से हुई थी, इस कारण उन्हें ‘अन्नपूर्णा’ भी कहा जाता है। भगवती सीता जी की पति-परायणता, त्याग सेवा, संयम, सहिष्णुता, लज्जा, विनयशीलता भारतीय संस्कृति में नारी भावना का चरमोत्कृष्ट उदाहरण है। उनकी त्याग व तपस्या समस्त नारी जाति के लिए अनुकरणीय है। माता जानकी को मां लक्ष्मी का अवतार कहा गया है। उनका व्रत करने से घर में सुख-समृद्धि आती है। माता की उपासना से त्याग, शील, ममता और समर्पण जैसे गुण का आर्शीवाद मिलता है। माता सीता ने ही अशोक वाटिका में श्रीराम का समाचार सुनाने पर हनुमानजी को अजर अमर होने का वरदान दिया, अष्ट सिद्धि और नव निधियां प्रदान कीं। इस व्रत को करने से श्रद्धालु को पृथ्वी दान व 16 प्रकार के दान का पुण्य फल प्राप्त होता है। मान्यता है कि इस दिन समस्त तीर्थों के दर्शन का फल मिलता है। माता जानकी के साथ भगवान श्रीराम की पूजा की जाती है। इस व्रत से सुख सौभाग्य में वृद्धि व दुखों से छुटकारा मिलता है। माता सीता के पति भगवान राम का अवतरण दिवस एक महीने पहिले चैत्र शुक्ला नवमी या राम नवमी के दिन मनाया जाता है। सीता का अर्थ हल चलाना है। विवाहित हिंदू महिलाएं अपने पतियों के लम्बे जीवन तथा सफलता के लिए देवी सीता की पूजा करती हैं। माता सीता का व्रत करने से भगवान विष्णु, माता लक्ष्मी के साथ सूर्यदेव की भी कृपा मिलेगी। पवित्र नदी या जलाशय में स्नान के बाद श्री रामाय नमः या श्री सीतायै नमः का जाप, जानकी स्त्रोत्र, रामचंद्राष्टक, रामचरित मानस का पाठ करने से सुख-सौभाग्य, सौंदर्य, आरोग्यता का वरदान मिलता है।


शुभ मुहूर्त

हिन्दू पंचांग के अनुसार वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि 16 मई को सुबह 06 बजकर 22 मिनट पर शुरू होगी और 17 मई को सुबह 08 बजकर 48 मिनट पर समाप्त होगी। इस दिन मां सीता का प्राकट्य मध्याह्न बेला में हुआ है। सीता नवमी पर मध्याह्न बेला सुबह 10 बजकर 56 मिनट से लेकर दोपहर 01 बजकर 39 मिनट तक है। इस शुभ मुहूर्त में मां सीता की पूजा-अर्चना कर सकते हैं।


पूजा विधि

इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करें और व्रत का संकल्प लें। अब पूजा कक्ष में एक चौकी पर लाल रंग का वस्त्र बिछाकर राम परिवार का चित्र या प्रतिमा स्थापित करें। शुद्ध जल में गंगा जल मिलाकर भगवान श्री राम और सीता माता की मूर्तियों को स्नान कराएं। यदि तस्वीर की पूजा कर रहे हैं, तो गंगाजल के छींटे लगाकर स्वच्छ कपड़े से पौछ दें । अब विधि-विधान से भगवान राम और मां सीता की पूजा करें। मां सीता एवं रामजी को फल, फूल, धूप, दीप, सिंदूर,तिल, जौ, अक्षत आदि चीजें पूजा में अर्पित करें,प्रसाद लगाएं। पूजा के समय सीता चालीसा का पाठ करें। अंत में आरती कर सुख, समृद्धि, धन एवं वंश में वृद्धि की कामना करें। 


उपाय

सीता नवमी के दिन शुभ मुहूर्त में माता सीता को सोलह श्रृंगार की सामग्री अर्पित करने से दांपत्य जीवन में खुशहाली आती है और आपके सुहाग पर आ रहे सारे संकट का निवारण होता है। ये सुहाग की सामग्री सुहागिनों को दान करें। विवाह योग्य कन्याओं को मनपसंद जीवनसाथी की कामना के लिए इस दिन राम चरित्र मानस के इस मंत्र का जाप करें -

पुष्पान्वितायां तु कुजे नवम्यां श्रीमाधवे मासि सिते हलाग्रतः

भुवोःर्चयित्वा जनकेन कर्षणे सीता-विरासीत व्रतमत्र कुर्यात


जनकपुर में है विशाल मंदिर

भारत और नेपाल की सीमा के नजदीक बसा है ‘जनकपुर‘। जनकपुर वह जगह है जहां त्रेतायुग में माता सीता भूमि से अवतरित हुई थीं। यह स्थान माता सीता के जन्मस्थान के रूप में सदियों से धार्मिक आस्था का केंद्र है। जनकपुर, नेपाल के धानुषा जिले के दक्षिणी तराई शहर से लगभग 200 किमी दूर दक्षिण-पूर्व है। जनकपुर में मां सीता का भव्य मंदिर है, जो भारतीय सीमा से महज 22 किमी दूरी पर है। त्रेतायुग में मिथला के राजा जनक जब भूमि में हल जोत रहे थे, तभी उन्हें सीता जी एक स्वर्ण जड़ित बक्से में मिली थीं। रामायण में मिथिला राज्य का उल्लेख मिलता है। सीता मिथिला के राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री सीता थीं। जिनका विवाह अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम से हुआ था। जनकपुर की अपनी भाषा और लिपि के साथ प्राचीन मैथिली संस्कृति का केंद्र है। जनकपुर के निवासी सीता जी को जानकी देवी कहते हैं। जनकपुर के केंद्र उत्तर और पश्चिम में जानकी मंदिर है। यह मंदिर 1911 में बनाया गया था। जनकपुर में कई तालाब हैं जिनमें 2 सबसे महत्वपूर्ण हैं धनुष सागर और गंगा सागर। यहां की बोली मैथिली अभी भी व्यापक रूप से इस क्षेत्र में बोली जाती है।


पौराणिक मान्यताएं

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पौराणिक पवित्र ग्रंथ रामायण की मुख्य नायक और नायिका भगवान श्रीराम और माता सीता है। श्रीराम के तीन भाई थे। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। श्रीराम सबसे बड़े पुत्र थे। ठीक इसी तरह माता सीता की तीन बहनें मांडवी, श्रुतकीर्ति और उर्मिला थी। माता सीता सबसे बड़ी थीं। सीता उपनिषद में वर्णित है कि सीता उपनिषद अथर्ववेद का एक भाग है। इसलिए इसे अथर्ववेदीय उपनिषद भी कहते हैं। इस उपनिषद के अनुसार देवगण तथा प्रजापति के मध्य हुए प्रश्नोत्तर में ‘सीता‘ को शाश्वत शक्ति का आधार माना गया है। इसमें सीता को प्रकृति का स्वरूप बताया गया है। उन्हें ही प्रकृति में परिलक्षित होते हुए देखा गया है। सीता जी को प्रकृति का स्वरूप कहा गया है। यहां सीता शब्द का अर्थ अक्षरब्रह्म की शक्ति के रूप में हुआ है। यह नाम साक्षात ‘योगमाया‘ का है। सीता को भगवान श्रीराम का सानिध्य प्राप्त है, जिसके कारण वे विश्वकल्याणकारी हैं। राजा जनक ने उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया, इसी कारण उनका नाम ‘जानकी’ पड़ा। सीता मां का चरित्र सभी के लिये मार्गदर्शक रहा है और आज भी प्रासंगिक है। सीता जी ही प्रकृति हैं वही प्रणव और उसका कारक भी हैं। सीता जी जग माता हैं और श्री राम को जगत-पिता बताया गया है। एकमात्र सत्य यही है कि श्रीराम ही बहुरूपिणीमाया को स्वीकार कर विश्वरूप में भासित हो रहे हैं और सीता जी ही वही योगमाया है। वाल्मीकि रामायण तथा वेद-उपनिषदों में माता सीता के स्वरूप का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। ऋग्वेद में एक स्तुति में कहा गया है कि असुरों का नाश करने वाली सीता जी आप हमारा कल्याण करें।


व्रत से मिलता है सौभाग्यवती का फल

सीता जयंती के उपलक्ष्य पर भक्तगण माता की उपासना करते हैं। परम्परागत ढंग से श्रद्धा पूर्वक पूजन अर्चन किया जाता है। सीता जी की विधि-विधान पूर्वक आराधना की जाती है। इस दिन व्रत करने को सबसे उत्तम बताया गया है। व्रतधारी को व्रत से जुडे सभी नियमों का पालन करना चाहिए। सुबह स्नान आदि से निवृत होकर माता सीता व श्री राम जी की पूजा उपासना करनी चाहिए। पूजन में चावल, जौ, तिल आदि का प्रयोग करना चाहिए। इस व्रत को करने से सौभाग्य सुख व संतान की प्राप्त होती है। मां सीता लक्ष्मी का ही रुप है। इसलिए इस दिन व्रत धारण करने से परिवर में सुख-समि्द्ध और धन कि वृद्धि होती है। एक अन्य मत के अनुसार माता का जन्म क्योंकि भूमि से हुआ था, इसलिए वे अन्नपूर्णा कहलाती है। माता जानकी का व्रत करने से उपावसक में त्याग, शील, ममता और समर्पण जैसे गुण आते है। मान्यता है कि जो व्यक्ति इस दिन व्रत रखता है एवं राम-सीता का विधि-विधान से पूजन करता है, उसे 16 महान दानों का फल, पृथ्वी दान का फल तथा समस्त तीर्थों के दर्शन का फल मिल जाता है। इस दिन माता सीता के मंगलमय नाम ‘श्री सीतायै नमः‘ और ‘श्रीसीता-रामाय नमः‘ का उच्चारण करना लाभदायी रहता है।


सीता नवमी की पौराणिक कथाएं

सीता नवमी की पौराणिक कथा के अनुसार मारवाड़ क्षेत्र में एक वेदवादी श्रेष्ठ धर्मधुरीण ब्राह्मण निवास करते थे। उनका नाम देवदत्त था। उन ब्राह्मण की बड़ी सुंदर रूपगर्विता पत्नी थी, उसका नाम शोभना था। ब्राह्मण देवता जीविका के लिए अपने ग्राम से अन्य किसी ग्राम में भिक्षाटन के लिए गए हुए थे। इधर ब्राह्मणी कुसंगत में फंसकर व्यभिचार में प्रवृत्त हो गई। अब तो पूरे गांव में उसके इस निंदित कर्म की चर्चाएं होने लगीं। परंतु उस दुष्टा ने गांव ही जलवा दिया। दुष्कर्मों में रत रहने वाली वह दुर्बुद्धि मरी तो उसका अगला जन्म चांडाल के घर में हुआ। पति का त्याग करने से वह चांडालिनी बनी, ग्राम जलाने से उसे भीषण कुष्ठ हो गया तथा व्यभिचार-कर्म के कारण वह अंधी भी हो गई। अपने कर्म का फल उसे भोगना ही था। इस प्रकार वह अपने कर्म के योग से दिनों दिन दारुण दुख प्राप्त करती हुई देश-देशांतर में भटकने लगी। एक बार दैवयोग से वह भटकती हुई कौशलपुरी पहुंच गई। संयोगवश उस दिन वैशाख मास, शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि थी, जो समस्त पापों का नाश करने में समर्थ है। सीता (जानकी) नवमी के पावन उत्सव पर भूख-प्यास से व्याकुल वह दुखियारी इस प्रकार प्रार्थना करने लगी- हे सज्जनों! मुझ पर कृपा कर कुछ भोजन सामग्री प्रदान करो। मैं भूख से मर रही हूं- ऐसा कहती हुई वह स्त्री श्री कनक भवन के सामने बने एक हजार पुष्प मंडित स्तंभों से गुजरती हुई उसमें प्रविष्ट हुई। उसने पुनः पुकार लगाई- भैया! कोई तो मेरी मदद करो- कुछ भोजन दे दो। इतने में एक भक्त ने उससे कहा- देवी! आज तो सीता नवमी है, भोजन में अन्न देने वाले को पाप लगता है, इसीलिए आज तो अन्न नहीं मिलेगा। कल पारणा करने के समय आना, ठाकुर जी का प्रसाद भरपेट मिलेगा, किंतु वह नहीं मानी। अधिक कहने पर भक्त ने उसे तुलसी एवं जल प्रदान किया। वह पापिनी भूख से मर गई। किंतु इसी बहाने अनजाने में उससे सीता नवमी का व्रत पूरा हो गया। अब तो परम कृपालिनी ने उसे समस्त पापों से मुक्त कर दिया। इस व्रत के प्रभाव से वह पापिनी निर्मल होकर स्वर्ग में आनंदपूर्वक अनंत वर्षों तक रही। तत्पश्चात् वह कामरूप देश के महाराज जयसिंह की महारानी काम कला के नाम से विख्यात हुई। उसने अपने राज्य में अनेक देवालय बनवाए, जिनमें जानकी-रघुनाथ की प्रतिष्ठा करवाई। अतः सीता नवमी पर जो श्रद्धालु माता जानकी का पूजन-अर्चन करते है, उन्हें सभी प्रकार के सुख-सौभाग्य प्राप्त होते हैं। इस दिन जानकी स्तोत्र, रामचंद्रष्टाकम्, रामचरित मानस आदि का पाठ करने से मनुष्य के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।


हर पुरुष चाहता है मां सीता जैसी पत्नी

रिश्ता अटूट और खुशनुमा रहे ये हर पति-पत्नी की चाहत होती है। माता सीता और प्रभु राम को देखें तो दोनों एक दूसरे पर पूरा विश्वास करते थे जो कि आज कपल्स में देखने को नहीं मिलता है। किसी महिला में गुणों का जिक्र करें तो सीता का नाम सबसे आगे रहता है। संघर्षों से भरा होने के बाद भी भगवान राम और माता सीता का जीवन आज भी समाज के लिए एक आदर्श बना हुआ है। लोक दाम्पत्य जीवन में भले ही किसी रिश्ते की शुरुआत कितनी भी मीठी हुई हो, लेकिन इसे खुशहाल तरीके से बिताने के लिए जीवनसाथी के साथ गहरा तालमेल जरूरी होता है। माता सीता बात करें तो सनातन धर्म में उन्हें एक पतिव्रता का दर्जा मिला है। ऐसे में आज भी जब एक महिला में गुणों की बात आती है तो अक्सर पुरुष सीता जैसे गुणों की बात करते हैं। उनके त्याग का बहुत बड़ा उदाहरण पेश किया जाता है। महल की सभी सुख-सुविधाएं एक झटके में छोड़कर उन्होंने पति के साथ वनवास का फैसला कर लिया। इसी तरह जो महिलाएं धन-दौलत की तुलना में रिश्तों को हमेशा आगे रखती हैं, पुरुषों की पसंद में शामिल होती हैं। रिश्ते को हेल्दी रखने के लिए एक दूसरे का सम्मान करना भी बहुत जरूरी है। याद हो, जब माता सीता के पतिव्रता धर्म पर सवाल उठे तो उन्होंने खुद सही होते हुए भी समाज में श्री राम की इज्जत की खातिर अग्नि परीक्षा का सामना किया। ये गुण हमेशा पुरुषों को पसंद आते हैं। माता सीता ने खुद को पूरी तरह भगवान राम को समर्पित किया। रावण द्वारा हरण किए जाने के बाद भी उन्होंने अपने पतिव्रता धर्म पर आंच नहीं आने दी और राम का विश्वास जीतकर रखा। उनका ये गुण भी बेहद खास है और ये बताता है कि किसी भी रिश्ते में अपने साथी पर पूरा विश्वास और इमानदारी कितनी जरूरी है। सीता को दया और उदारता का प्रतीक माना जाता है। अशोक वाटिका में माता सीता हनुमान से कहती हैं कि “ये रक्षक केवल रावण के आदेश का पालन कर रहे थे। उनका कोई दोष नहीं है।“ आखिर ऐसा कोई उदार व्यक्ति ही कह सकता है। इसके अलावा रावण जब भिक्षुक के रूप में कुछ मांगने आया था, जब भी अपनी परवाह किए बिना उन्होंने सुरक्षा की लकीर को पार कर लिया था ताकि वे उसकी मदद सक सकें। ऐसी महिलाएं अक्सर पुरुषों की पसंद में शुमार होती हैं। 


हर नारी की आदर्श है मां सीता

मां सीता अपने माता-पिता को पूरा सम्मान देती थीं, उनकी सभी आज्ञाओं का पालन करती थीं। माता-पिता की तरह ही वे सास ससुर का भी सम्मान करती थीं। वनवास के समय जब माता-पिता उनसे मिलने आए तब, उन्होंने वहां पहले से आई हुईं सासों से आज्ञा ली, उसके बाद अपने परिजनों से मिलने गईं। विवाह के बाद सीता स्वयं श्रीराम की देखभाल करती थीं, जबकि महल में असंख्य सेवक थे। जब राम को पिता के ने वनवास जाने की आज्ञा दी, तो वह भी राम के साथ वन जाने को तैयार हो गईं। सीता पतिव्रता धर्म की साक्षात उदाहरण थीं, लेकिन जब माता अनसूयाजी ने उनको पतिव्रत धर्म का उपदेश दिया, तब उन्होंने बिना किसी अभिमान के सारी बातें सुनी। सीता ने माता अनसूया से ये नहीं कहा कि मुझे सब मालूम है। इस चरित्र से यह शिक्षा मिलती है कि वृद्ध लोगों की शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। रावण ने सीता का हरण किया और माता को अशोक वाटिका में रखा, लेकिन सीता ने रावण के किसी भी प्रलोभन को स्वीकार नहीं किया और वे किसी तरह उससे नहीं डरीं। रावण से सभी देवता डरते थे, लेकिन सीता निडर होकर उसके सामने ही तिरस्कार करती थीं। सीता उपनिषद में वर्णित है कि सीता उपनिषद अथर्ववेद का एक भाग है। इसलिए इसे अथर्ववेदीय उपनिषद भी कहते हैं। इस उपनिषद के अनुसार देवगण तथा प्रजापति के मध्य हुए प्रश्नोत्तर में ‘सीता‘ को शाश्वत शक्ति का आधार माना गया है। इसमें सीता को प्रकृति का स्वरूप बताया गया है। उन्हें ही प्रकृति में परिलक्षित होते हुए देखा गया है। सीता जी को प्रकृति का स्वरूप कहा गया है। यहां सीता शब्द का अर्थ अक्षरब्रह्म की शक्ति के रूप में हुआ है। यह नाम साक्षात ‘योगमाया‘ का है। सीता को भगवान श्रीराम का सानिध्य प्राप्त है, जिसके कारण वे विश्वकल्याणकारी हैं। राजा जनक ने उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया, इसी कारण उनका नाम ‘जानकी’ पड़ा। सीता मां का चरित्र सभी के लिये मार्गदर्शक रहा है और आज भी प्रासंगिक है। सीता जी ही प्रकृति हैं वही प्रणव और उसका कारक भी हैं। सीता जी जग माता हैं और श्री राम को जगत-पिता बताया गया है। एकमात्र सत्य यही है कि श्रीराम ही बहुरूपिणीमाया को स्वीकार कर विश्वरूप में भासित हो रहे हैं और सीता जी ही वही योगमाया है। वाल्मीकि रामायण तथा वेद-उपनिषदों में माता सीता के स्वरूप का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। ऋग्वेद में एक स्तुति में कहा गया है कि असुरों का नाश करने वाली सीता जी आप हमारा कल्याण करें।


श्रीराम-सीता आदर्श दंपति हैं 

भारतीय संस्कृति में श्रीराम-सीता आदर्श दंपति हैं। श्रीराम ने जहां मर्यादा का पालन करके आदर्श पति और पुरुषोत्तम पद प्राप्त किया वहीं माता सीता ने सारे संसार के समक्ष अपने पतिव्रता धर्म के पालन का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। इस पावन दिन सभी दंपतियों को श्रीराम-सीता से प्रेरणा लेकर अपने दांपत्य को मधुरतम बनाने का संकल्प करना चाहिए। नेपाल के जनकपुर और अयोध्या में इस दिन को खासे उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दिन शहरभर में हजारों दीप जलाएं जाते है और विवाह झांकिया भी निकाली जाती है। खास यह है कि इस दिन नेपाल के कई क्षेत्रों में आम विवाह करना शुभ नहीं माना जाता है। जबकि पंचागों के मुताबिक यह तिथि अबूझ मुहूर्त है। इसके पीछे लोगों की मान्यता है कि विवाहोपरांत सीता को बहुत कष्ट झेलने पड़े थे। वनवास समाप्ति के पश्चात भी उन्हें सुख नहीं मिला और गर्भावस्था में उन्हें मरने के लिए जंगल में छोड़ दिया गया था। महर्षि बाल्मिकी आश्रम में ही उन्हें तमाम दुःख सहते हुए लव कुश पुत्रों को जन्म दिया। इसी कारण लोग सोचते है कि उनकी बेटियों को भी माता सीता की तरह दुख ना सहना पडे। इतना ही नहीं विवाह पंचमी पर्व को मनाने के लिए यदि कोई कथा का भी आयोजन करता है तो कथा सीता स्वयंवर और प्रभु श्रीराम और माता सीता के विवाह संपंन होने तक की ही कथा के बाद समाप्त कर दी जाती है। इसके आगे की कथा दुखों से भरी है इसीलिए इस दिन कथा का सुखांत ही कहा जाता है और विवाहपरांत वाली कथा नहीं कही जाती है। पौराणिक मान्याताओं के मुताबिक विवाह पंचमी के दिन विधि-विधान के साथ जनकपुरी से 14 किलोमीटर दूर उत्तर धनुषा नाम स्थान है, जो जनकपुर वर्तमान में नेपाल में स्थित है। यहां कुछ दूर उत्तर धनुषा में बताया जाता है कि रामचंद्रजी ने इसी जगह पर धनुष तोड़ा था। पत्थर के टुकड़े को इस प्रसंग का अवशेष बताया जाता है। पूरे वर्षभर और खासकर विवाह-पंचमी पर यहां दर्शनार्थियों की भीड़ रहती है। विवाह ऐसा संस्कार है जिसे प्रभु श्रीराम और कृष्ण ने भी अपनाया। भगवान राम ने अहंकार के प्रतीक धनुष को तोड़ा। यह इस बात का प्रतीक है कि जब दो लोग एक बंधन में बंधते हैं तो सबसे पहले उन्हें अहंकार को तोड़ना चाहिए और फिर प्रेम रूपी बंधन में बंधना चाहिए। यह प्रसंग इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि दोनों परिवारों और पति-पत्नी के बीच कभी अहंकार नहीं टकराना चाहिए क्योंकि अहंकार ही आपसी मनमुटाव का कारण बनता है। त्रेता युग में मिथिला नरेश जनक के राज्य में जब अकाल पड़ा तो उसके निवारण के लिए जनक ऋषि-मुनियों के पास गए। उनके सुझाव पर जनक ने भूमि को जोतना शुरू किया। हल जोतते हुए हल का अग्र भाग किसी वस्तु से टकराया और वहीं रुक गया। जब जनक ने मिट्टी हटाकर देखा तो उन्हें एक कन्या मिली। राजा ने उसे अपनी पुत्री स्वीकार किया। नाम रखा सीता, जिन्हें वैदेही और जानकी भी कहा गया। राजा जनक शिवधनुष की पूजा करते थे। एक दिन उन्होंने देखा कि जानकी ने शिव के धनुष को हाथ में उठा लिया है। राजा जनक ने प्रतिज्ञा की कि जो शिवधनुष तोड़ेगा जानकी का विवाह उसी के साथ होगा। सीता के स्वयंवर में जब कोई धनुष को उठा भी नहीं पाया तब श्रीराम ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास किया और वह टूट गया। इस तरह राम और सीता का विवाह हुआ।


 





Suresh-gandhi


सुरेश गांधी 

वरिष्ठ पत्रकार 

वाराणसी

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