राजस्थान के व्यंग्य-लेखकों में एक चर्चित नाम है यशवंत कोठरी। बहुत पहले 1969 और 1972 के बीच प्रभु श्रीनाथजी की नगरी नाथद्वारा में मेरे विद्यार्थी रहे। खूब लिखा, खूब छपे और खूब नाम कमाया। जब उन्हें यह मालूम पड़ा कि मैं इन दिनों बैंगलोर में हूँ,तो व्यस्तता के बावजूद मिलने चले आए। बैंगलोर जैसे व्यस्त,कोलाहल-भरे और ट्रैफिक-जामों के लिए कुख्यात महानगर में किसी से मिलना बहुत बड़ी बात है। मगर उन्होंने समय निकाला और अपनी नव-प्रकाशित पुस्तक लेकर मिलने चले आये।अच्छा लगा और लगभग पचास साल पहले की यादें ताज़ा हुईं।नाथद्वारा की बातें,गुरुजनों की बातें, शिष्यों-सहयोगियों की बातें आदि-आदि। यशवंतजी की लगभग बीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जितने सम्मान और पुरस्कार इन्हें मिले हैं,उतने ही विनम्र और मृदुभाषी भी हैं। व्यंग्य-लेखन के बारे में यशवंत जी से बात की,तो वे बोले:
“व्यंग्यकार कोई समाज-सुधारक, साधु-संत या महात्मा नहीं होता है। वह जीवन की अनिवार्यता है, आवश्यकता है।राजनीति, विशेषकर पारिवारिक राजनीति में हर व्यक्ति को व्यंग्य की प्रभावोत्पादकता से दो-चार होना पड़ता है। व्यंग्य वह तिलमिलाहट है, जो आपके अंदर तक छेदकर आर-पार निकलने की क्षमता रखता है। व्यंग्य जीवन की आक्रमकता है, सहिष्णुता नहीं। व्यंग्य तो शल्यक्रिया है जो जीवन को बचाने के लिए आवश्यक है। व्यंग्य समीक्षा नहीं, फकत वह तो सहभागिता करता है। जीवन के हर मोड़ पर व्यंग्य आपको अपने साथ खड़ा मिलेगा— ठीक प्रकृति की तरह, जिजीविषा की तरह।“ ऐसे विचारशील और ख्यातिवान शिष्य पर गुरु का गर्वित होना स्वाभाविक है।
डा० शिबन कृष्ण रैणा
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