पटना : ब्राह्मण राज की वापसी के लिए गैरसवर्णों में जमीन तलाश रहे हैं पीके - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 28 अगस्त 2024

पटना : ब्राह्मण राज की वापसी के लिए गैरसवर्णों में जमीन तलाश रहे हैं पीके

  • डा. मिश्रा के पतन के 35 साल बाद राख में दबी चिंगारी को सुलगाने की कोशिश

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पटना, प्रशांत किशोर। पहले पोलिटिकल दुकान के सेल्‍स मैन थे, अब खुद दुकानदार बन गये हैं। बाबा रामदेव की तरह ब्रांड भी और प्रोडक्‍ट भी। बिहार में पीके की दुकानदारी की खूब चर्चा है। ग्राहक भी अब थोक में आ रहे हैं। सत्‍ता की मलाई मारने के बाद बेगार हो चुके लोगों की पहली पसंद हैं प्रशांत किशोर पांडेय। प्रशांत किशोर पांडेय जिस शाहाबाद इलाके से आते हैं, वहां भूमिहार भी पांडेय लिखते हैं। जैसे सुनील पांडेय, हुलास पांडेय। लेकिन यह ब्राह्मण वाले पांडेय हैं। जितना मुझमें यादव प्रेम है, उससे ज्‍यादा उनमें ब्राह्मण प्रेम है। उन्‍होंने अपनी दुकानदारी को पोपुलर करने के लिए पटना में ब्राह्मण पत्रकारों की एक बैठक बुलायी। जातीय अस्मिता पर चर्चा हुई। इसके बाद ब्राह्मण प्रभाव वाले चैनल, यूट्यूब और पोर्टल में अभियान चलने लगा। खबरों का कवरेज और एंगल सब पांडेय के हक में दिखने लगा।


1990 में डा. जगन्‍नाथ मिश्रा से लालू यादव ने सत्‍ता छीनी थी। इसके बाद ब्राह्मण राजनीति का पराभव शुरू हुआ। पलायन भी शुरू हुआ। ब्राह्मण कांग्रेस छोड़कर भाजपा की ओर भागने लगे। कांग्रेस की कब्र पर भाजपा का उदय शुरू हुआ, लेकिन ब्राह्मणों की अस्मिता तिरोहित ही रही। भाजपा में ब्राह्मणों के बजाये भूमिहारों को तरजीह मिलने लगी। बनियों की दाल-रोटी पर भाजपा लंबे समय तक सवर्णों की अस्मिता की लड़ाई लड़ती रही। भाजपा ने सदैव हिंदुत्‍व के नाम पर सवर्णों का हित पूरा किया है। मुसलमान के खिलाफ नफरत की आग में गैरसवर्ण आंच बनते रहे और सवर्ण सत्‍ता की रोटी सेंकते रहे। और उस रोटी का बहुत छोटा हिस्‍सा ही ब्राह्मणों के पाले में आ रही है। इससे ब्राह्मणों में असंतोष है। बगावत करने का विकल्‍प भी नहीं है और दूसरी जगह से कुछ मिलने उम्‍मीद भी नहीं है। संजय झा या मनोज झा जैसे मै‍थिल की स्‍वीकार्यता भी ब्राह्मणों के एक छोटे हिस्‍से में ही है। इनका दायरा भी सीमित है। ये दोनों ब्राह्मण अस्मिता की नहीं, अपने अस्तित्‍व की राजनीति कर रहे हैं। वैसे माहौल में प्रशांत किशोर पांडेय ने ब्राह्मण अस्तिमता की लड़ाई नये सिरे से शुरू की। राजनीतिक दुकान के सेल्‍समैन बन कर इतना समझ गये हैं कि सवर्णों का भरोसा हासिल करना मुश्किल है, इसलिए भ्रम की राजनीति शुरू की। गैरसवर्णों में भ्रम का मायाजाल खड़ा करना आसान है, इसलिए उन्‍होंने इसी वर्ग को टारगेट किया। इसी वर्ग में सत्‍ता का आडंबर बेचने लगे। वे व्‍यवस्‍था बदलाव की बात करते हैं। उनके साथ जो भीड़ दिखती है, वह कोई कार्यकर्ताओं की वैचारिक यात्रा नहीं है। वह मदारी के हर फरेब पर ताली बजाने वाली भीड़ है।


प्रशांत किशोर पांडेय ने एक आवरण गढ़ लिया है कि वे विकल्‍प की राजनीति कर सकते हैं। इसलिए दूसरी पार्टी से टिकट की उम्‍मीद छोड़ चुके लोग पांडेय की पार्टी में शामिल हो रहे हैं। इस पार्टी में टिकटार्थियों की भीड़ बढ़ने लगी है। जब सत्‍ता की मलाई बांटने और काटने वाली पार्टियों में संभावनाएं सीमित होने लगी हैं तो नया विकल्‍प चाहिए। पांडेय इसी विकल्‍प की बात करते हैं। ले‍किन जिन गैरसवर्ण जातियों की जमीन पर प्रशांत किशोर विकल्‍प की दुकान सजा रहे हैं, उन जातियों को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि वे सामाजिक न्‍याय को मजबूत कर रहे हैं। प्रशांत किशोर सवर्ण सत्‍ता का नया संस्‍करण हैं। उनसे लोहिया, कर्पूरी या लालू यादव की तरह गैरसवर्णों के स्‍वाभिमान और हिस्‍सेदारी की लड़ाई की उम्‍मीद नहीं करनी चाहिए। प्रशांत किशोर पांडेय डा. जगन्‍नाथ मिश्र के हाथों से फिसली ब्राह्मण सत्‍ता की वापसी चाहते हैं। लेकिन सवर्णों के भरोसे यह संभव नहीं है। ब्राह्मण सत्‍ता को राजपूत और भूमिहारों ने ही मटियामेट किया है। इसलिए वे गैरसवर्णों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। इन वर्गों के सहारे प्रशांत किशोर सत्‍ता तक पहुंचते सकते हैं, लेकिन उनका अंतिम लक्ष्‍य ब्राह्मण सरोकार को साधना ही है। गैरसवर्ण नेताओं को इससे सचेत रहने की जरूरत है। उन्‍हें अपने सरोकार और सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ खड़ा रहना चाहिए। आप कहां खड़ा हैं, यह महत्‍वपूर्ण नहीं है। महत्‍वपूर्ण है आपकी अपने समाज के साथ प्रतिबद्धता।  






--- वीरेंद्र यादव, वरिष्‍ठ पत्रकार, पटना ---

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