आतंक और डर के आगे जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र की जीत हई है। जबकि हरियाणा में भाजपा की हैट्रिक का असर महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों में सिर चढ़कर बोलेगा। हालांकि कांग्रेस को भी जम्मू-कश्मीर की जीत से बूस्टअप मिलने की उम्मीद रहेगी. यह अलग बात है कि बीजेपी भले ही जम्मू कश्मीर में सरकार नहीं बना पा रही है, पर एक राष्ट्र के निर्माण के रूप में कश्मीर में सफलतापूर्वक चुनाव करवाकर दुनिया भर को संदेश है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों ने प्रचंड बहुमत से भारतीय लोकतंत्र पर मुहर लगाई है. कश्मीर घाटी के लोगों ने विकास, शांति, टूरिज़्म की वापसी और समृद्धि की तुलना में मज़हब को चुना. उनका लोकतांत्रिक अधिकार है. पर कश्मीर भारत का मुकुट है. वहां हार जीत से परे, भारत की और संविधान की जीत हुई है। कश्मीर की तरक़्क़ी होगी और वह दिन भी आएगा जब लोग मज़हब से उठकर वोट करेंगे। खास यह है कि योगी ने भिवानी, हिसार, नारनौंद, पंचकुला, फरीदाबाद, हांसी, जींद, सोनीपत, बल्लभगढ़, पृथला, बड़खल, अटेली, रादौर, जगाधरी, यमुनानगर, साढोरा, नरवाना, राय विधानसभा, कलायत, बवानीखेड़ा, असंध आदि सीटों पर प्रचार किया था। इनमें 80 फीसदी से अधिक सीटों पर बीजेपी की जीत हुई है
जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन बहुमत मिला है। बीजेपी 27 सीटे ही जीत सकी। महबूबा मुफ्ती हवा हो गयी। निर्दलीय और छोटी पार्टियों को 9 सीटे हाथ लगी है। जम्मू पहले की तरह बीजेपी को बढ़त मिली है. जम्मू रीजन में जब सीटों की सख्या कम होती थी तब भी बीजेपी लगातार कई चुनावों से 25 से 26 सीटों को जीतती रही है. 2014 और 2007 में जब सीटें बढ़ाकर 43 सीटें कर दी गई तो भी बीजेपी 27 सीटे जीती है। जबकि, कश्मीर घाटी में बीजेपी एक भी सीट पर आगे नहीं है. मतलब साफ है कि बीजेपी अनुच्छेद 370 को जम्मू कश्मीर से हटाकर भी जहां थी वही हैं. बीजेपी के लिए यह चिंता का विषय हो सकता है पर एक देश और राष्ट्र के रूप में यह खुशी की वजह है. मोदी सरकार ने वादा किया था कि वह जम्मू-कश्मीर को अलग-थलग पड़ने नहीं दिया जाएगा. सरकार बहुत पहले से कहती रही है कि जम्मू कश्मीर में चुनाव जल्द ही होंगे. इस बीच सुप्रीम कोर्ट का आदेश आ गया कि जम्मू कश्मीर में सरकार अतिशीघ्र चुनाव करवाए. सरकार चाहती तो कानून व्यवस्था का हवाला देकर चुनाव में अड़ंगा लगा सकती थी. पर सरकार ने न चाहते हुए भी अपना वादा पूरा किया. सरकार जानती थी कि चुनाव जीतने के उनकी पार्टी ने उचित तैयारी अभी नहीं की है। फिर भी कश्मीर मे चुनाव संपन्न करवाया गया. बीजेपी भले ही जम्मू कश्मीर में सरकार नहीं बना पा रही है पर एक राष्ट.के निर्माण के रूप में कश्मीर में सफलतापूर्वक चुनाव करवाना दुनिया भर को संदेश है कि भारत ने कश्मीर पर अवैध कब्जा नहीं किया हुआ है. कश्मीर में शांतिपूर्ण चुनाव होते हैं और सभी को अपना मनपसंद जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार है.
बेशक, जम्मू कश्मीर में पिछले कई दशकों से जो चुनाव हो रहे हैं वो आतंक के साये में होते रहे हैं. तमाम आतंकी गुटों की दहशत के साये में चुनाव सही मायने में चुनाव नहीं थे. क्योंकि बहुत से लोग वोट नहीं करते और बहुत से लोग चुनाव नहीं लड़ते थे. कई बार वोटिंग परसेंटेज इतना कम होता था कि वो पूरी आबादी का 10 परसेंट भी मतदान नहीं करते थे। बीजेपी के ’नया कश्मीर’ में सुरक्षा पर ज्यादा जोर दिया गया. सरकार ने आतंकवाद, अलगाववाद और.पत्थरबाजी के खिलाफ जो कार्रवाई की, उसका लोगों ने स्वागत किया. हालांकि बीजेपी को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी. क्योंकि बहुत से लोगों को ऐसा भी महसूस किया गया कि अभिव्यक्ति की आजादी को दबाया जा रहा है. बीजेपी इस आम धारणा को बदलने में कामयाब नहीं हो सकी कि असहमति को दबाने के लिए डराया जा रहा है. आतंकी गुटों को भी लगा कि अगर निष्पक्ष चुनाव हो रहें हैं तो उसका लाभ उठाना चाहिए. बीजेपी पर प्रतिबंधित जमाते इस्लामी को कश्मीर में बढ़ावा देने, टेरर फंडिंग के आरोपित सांसद इंजीनियर रशीद की पर्दे के पीछे मदद करने का भी आरोप लगा पर चुनाव में हर पक्ष को अपनी बात कहने का मौका मिला. प्रतिबंधित जमात-ए- इस्लामी जो चुनाव बहिष्कार का हिस्सा रही है, वह अब लोकतंत्र का गुणगान करती देखी गई.तमाम प्रतिबंधित संगठनो के ऐसे लोग जो पहले आतंकवादी घटनाओं में लिप्त रहे हैं उन्हें भी लोकतंत्र के इस उत्सव में भाग लेने का मौका मिला.
सबसे बड़ी बात ये रही कि जिन लोगों को भारतीय संविधान में विश्वास नहीं था कम से कम इस चुनाव के बहाने उन्होंने भारतीय संविधान को स्वीकार किया. चुनावी फायदे के लिए बीजेपी ने अल्ताफ बुखारी की अपनी पार्टी और सज्जाद लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन कर नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी का खास दबदबा कम करने की कोशिश की. हालांकि इन पार्टियों के साथ गठबंधन बीजेपी के लिए कुछ खास फायदेमंद साबित नहीं रहा. अनुच्छेद 3.70 की समाप्त कर केंद्र ने जम्मू कश्मीर के चुनावों को पहले से अधिक लोकतांत्रिक बना दिया. पहली बार जम्मू कश्मीर में अनुसूचित जनजातियों के लिए नौ सीटें आरक्षित की गईं हैं, जबकि अनुसूचित जातियों के लिए सात सीटें आरक्षित की गईं हैं. यही नहीं जम्मू कश्मीर के चुनावों में वाल्मीकि, गुरखा, भारत पाक विभाजन के समय पश्चिमी पाकिस्तान से आकर बसे नागरिकों को वोट डालने का अधिकार नहीं था. कोई भी लोकतंत्र अगर अपने सभी नागरिकों को वोटिग राइट नहीं देता है तो वह अधूरा ही कहलाएगा. यहां जिक्र करना जरुरी है कि राजीव गांधी की सरकार ने 1987 में कश्मीरी मुस्लिम आबादी को चुनाव में वोट देने से वंचित कर दिया था. कश्मीर में संघर्ष के पीछे के कारकों में से एक बहुत बड़ा कारण था. 1987 में चुनावों में की गई ज़बरदस्त हेराफेरी, उन कई कारकों में से एक थी, जिनमें पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई द्वारा की गई हेराफेरी भी शामिल थी, जिसके कारण जम्मू-कश्मीर में व्यापक आक्रोश पैदा हुआ और परिणामस्वरूप 1989 तक घाटी में उग्रवाद और आतंकवाद का उदय हुआ.
दरअसल जम्मू और कश्मीर के राज्यपाल जगमोहन ने 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह के नेतृत्व वाली अवामी नेशकॉन्फ्रेंस सरकार को बर्खास्त कर दिया, जिससे घाटी में गुस्सा भड़क उठा. जगमोहन की कार्रवाई को कश्मीर की मुस्लिम बहुल पहचान को कमजोर करने केरूप में देखा गया. इन चुनावों में इतने बड़े पैमाने पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने धांधली करवाई थी कि सज्जाद लोन के पिता अब्दुल गनी लोन ने दुखी होकर कहा इससे भारत सरकार के खिलाफ लोगों की भावनाएं और गहरी होंगी. अगर लोगों को वोट डालने की अनुमति नहीं दी जाएगी, तो उनका जहर राष्ट्र-विरोधी भावनाओं की अभिव्य.क्ति के अलावा और कहां जाएगा? घाटी के विभिन्न भागों से जिला आयुक्तों के कार्यालयों में चुनावी धांधली की खबरें आईं. घाटी के विभिन्न भागों में पार्टी मुख्यालयों और जिला आयुक्तों के कार्यालयों में चुनावी हेराफेरी और बलपूर्वक तरीकों की खबरें आती रहीं. पट्टन में मतदान केंद्रों से नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए पूर्व-मुद्रित सम्पूर्ण मतपत्र पुस्तिकाएं बरामद की गईं, जिनमें से सभी मतपत्रों के काउन्टरफॉयल मौजूद थे. रिपोर्ट के अनुसार, इसी प्रकार की पूर्व-स्टाम्प लगी हुई पुस्तकें एमयूएफ एजेंटों को ईदगाह, हंदवाड़ा और चौदुरा में मतदान अधिकारियों से मिलीं। एमयूएफ उम्मीदवारों ने खान साहिब और हजरतबल में बूथ कैप्चरिंग का भी आरोप लगाया था, जहां नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के कार्यकर्ताओं के गिरोह मेटाडोर वैन में सवार होकर मतदान केंद्रों में घुस गए और पुलिस असहाय होकर देखती रही. हालांकि, सरकारी ने आरोपों और शिकायतों पर आंखें मूंद लीं और इसके बजाय विपक्षी नेताओं पर कार्रवाई शुरू कर दी. परिणामस्वरूप, चुनावों में फारूक अब्दुल्ला की जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के गठबंधन को भारी जीत मिली. कांग्रेस ने जहां सभी 26 सीटों पर जीत हासिल की, वहीं नेशनल कॉन्फ्रेंस को 46 सीटों पर चुनाव लड़कर 40 सीटों पर विजयी घोषित किया गया. फिलहाल केंद्र सरकार ने भारत सरकार के उस पाप को धुल दिया है. जिसके दूरगामी परिणाम होना निश्चित है.
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें