वैश्विक स्थिरता पर मंडराते अमेरिका की आक्रामक नीति के बादल मंडराने लगे हैं। डोनाल्ड ट्रम्प की नेतृत्व शैली भले ही अमेरिका के कुछ हिस्सों में लोकप्रिय हो, लेकिन उनका अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण दादागिरी, धमकी और दबाव की नीति दुनिया को युद्ध को मुहाने पर ला खड़ा दिखाई देने लगा है। जबकि दुनिया पहले से ही युद्ध, आतंकवाद, जलवायु संकट और आर्थिक अस्थिरता की मार झेल रही है. ऐसे में ट्रम्प की हालिया हरकते वैश्विक असंतुलन को और गंभीर बना सकती है। मतलब साफ है ट्रंप न तो शांति के दूत साबित हो रहे हैं और न ही पूर्ण युद्ध नेता, बल्कि वे एक ऐसे कूटनीतिक अभिनेता बन गए हैं जिनकी स्क्रिप्ट में शांति की कोई पंक्ति नहीं दिखती। उनका ‘दुविधा भरा नेतृत्व’ शायद दुनिया को उस मोड़ पर ले जा रहा है जहां से लौटना नामुमकिन होगा. फिलहाल इसे तीसरे विश्व युद्ध की आहट कहना जल्दबाजी होगी। उनका मानना है कि वैश्विक शक्तियां भलीभांति जानती हैं कि युद्ध से किसी को लाभ नहीं होता, केवल विनाश होता है। रूस-यूक्रेन और इजरायल-गाजा संघर्ष इसके हालिया उदाहरण हैं, जहां वर्षों से अस्थिरता बनी हुई है। इजरायल या अमेरिकी सैन्य अड्डों को निशाना बना सकता है, लेकिन इससे युद्ध का विस्तार होने का खतरा बढ़ जाएगा। हालांकि, भारत के लिए यह स्थिति आर्थिक और रणनीतिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण हो सकती है। खासकर तेल की कीमतों में वृद्धि, महंगाई और चाबहार पोर्ट जैसे निवेशों पर असर पड़ सकता है
ट्रम्प का “अमेरिका फर्स्ट“ एजेंडा जितना उनके देश के लिए बना था, उतना ही बाकी देशों के लिए परेशानी का कारण बन गया। नाटो देशों को चेतावनी दी कि खर्च बढ़ाओ वरना अमेरिका सुरक्षा नहीं देगा। जलवायु समझौतों और अंतरराष्ट्रीय संधियों से खुद को अलग कर लिया। ईरान परमाणु समझौते से हटना, मध्य-पूर्व में अस्थिरता की बड़ी वजह बना। चीन पहले ही ताइवान को लेकर आक्रामक है। ट्रम्प के दौर में चीन से रिश्ते सबसे निचले स्तर पर पहुंचे। उनके आने से आशंका है कि ताइवान मुद्दा अमेरिका-चीन के बीच सीधे टकराव का रूप ले सकता है। ट्रम्प की मध्य-पूर्व नीति ने फिलिस्तीनियों को नाराज किया और इस्राइल को खुला समर्थन दिया। फिलिस्तीन में विरोध भड़का और ईरान-इस्राइल के रिश्ते और तल्ख हुए। अब ट्रम्प की वापसी वहां नई लड़ाई की आशंका को बल दे रही है। आज जब दुनिया यूक्रेन युद्ध, ताइवान तनाव और पश्चिम एशिया के संघर्ष से जूझ रही है, ऐसे में ट्रम्प जैसे नेता की दादागिरी इसे और विस्फोटक बना सकती है। इजराइल-ईरान युद्ध के बीच अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भूमिका पर अब सवाल उठ रहे हैं. उन पर इजराइल को धोखा देने का आरोप लग रहा है। ट्रंप ने कहा है, ’मैं अगले दो हफ्तों के भीतर जाने या न जाने का फैसला करूंगा।’ इस बीच, इजराइल बिना अमेरिकी मदद के भी ईरान के खिलाफ कार्रवाई जारी रखे हुए है, जबकि ईरान भी झुकने को तैयार नहीं है। युद्ध में अमेरिका के शामिल होने को लेकर एक बड़ा बयान सामने आया है. इस बयान में कहा गया है कि जंग में शामिल होने का अंतिम फैसला ट्रंप को लेना है. वहीं, इजराइल ने स्पष्ट किया है कि अमेरिका इस युद्ध में शामिल हो या न हो, वह अपनी बेहतरी के लिए लगातार काम करता रहेगा. ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के सामने इजरायल को अकेला छोड़ा? बता दें, इजरायल और ईरान के बीच 10 दिनों से जारी संघर्ष ने दुनियाभर के देशों की चिंता बढ़ा दी है. इजरायल के हवाई हमलों और ईरान के मिसाइल हमलों के बीच विश्व समुदाय युद्ध के विस्तार को लेकर सतर्क है.
भारत की कूटनीति की परीक्षा
भारत को अमेरिका, ईरान और इजरायल के बीच संतुलन साधते हुए अपनी कूटनीति का प्रयोग करना होगा। ऐसे हालात में भारत की ऊर्जा सुरक्षा और विदेश नीति की समझदारी ही उसे संभावित नुकसान से बचा सकती है। इजरायल के अलावा आसपास बहरीन व अन्य देशों में स्थित अमेरिकी अड्डों को निशाना बना सकता है, तेल परिवहन मार्ग हॉर्मुज जलडमरूमध्य में व्यवधान डाल सकता है। लेकिन ईरान सोच-समझकर ही ऐसा करेगा क्योंकि इससे युद्ध का विस्तार होने का खतरा है। यह संघर्ष लंबा नहीं चलेगा। यह कहना कठिन है लेकिन चीन और रूस के सीधे ईरान को सैन्य समर्थन की संभावना कम है, कूटनीतिक समर्थन दे सकते हैं। यही हाल पाकिस्तान सहित मुस्लिम देशों का रह सकता है। तेल की कीमतों में वृद्धि देश में ऊर्जा सुरक्षा की चुनौती व महंगाई बढ़ा सकती है। भारत के लिए अपने नागरिकों की सुरक्षा और चाबहार पोर्ट जैसे रणनीतिक निवेश फिलहाल जोखिम में पड़ सकते हैं। भारत को कूटनीतिक दृष्टिकोण से अमेरिका-इजरायल व ईरान के साथ सूझबूझ से संतुलित संबंध रखने होंगे। नीदरलैंड के हेग में 24 से 26 जून तक होने वाले नाटो शिखर सम्मेलन पर भी युद्ध की छाया नजर आएगी। अब तक साइबर सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता के अलावा रूस के साथ युद्ध में फंसे यूक्रेन को समर्थन जैसे विषयों पर सम्मेलन केंद्रित था। लेकिन अब ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमरीकी हमले और इसके बाद पश्चिम एशियाई देशों की संभावित प्रतिक्रिया से निपटने जैसी रणनीति शिखर सम्मेलन का हिस्सा हो सकती है। ईरान के परमाणु ठिकानों फोर्डों, नतांज और इस्फहान पर अमेरिका ने बी-2 स्टील्य बॉम्बर से 14 बंकर बस्टर बमों का गिराया है। इनमें से 12 बम फोर्डो पर गिराए और शेष दो नतांज पर। युद्ध क्षेत्र में यह इनका पहला इस्तेमाल है। बी-2 स्टेल्थ बॉम्बर बी-2 स्टील्थ बॉम्बर में एयर डिफेंस भेदने की अद्धुत क्षमता है। खास फ्लाइंग विंग डिजाइन और बेहद कम इंफ्रारेड के चलते यह सिर्फ 0.001 वर्ग मीटर का रडार क्रॉस सेक्शन बनाता है जो छोटी चिड़िया के आकार से ज्यादा नहीं होता। इसलिए पकड़ में नहीं आता। बी-2 स्टोल्थ बॉम्बर की खासियत ये है कि इसे आसानी से टैक नहीं किया जा सकता। साथ ही यह बेहद उंचाई पर दूर तक उड़ान भर सकता है, जिससे एयर डिफेंस के लिए भी इसे भेद पाना बेहद मुशिकल है। साथ ही यह एक बार में 6 हजार नोटिकल मील (11100 किमी) की दूरी तय कर सकता है। अमेरिका ने दावा किया है कि फोर्दो परमाणु साइट पर 30,000 (करीब 13600 किलो) पाउड के मैसिव ओर्डिनेंस पैनिटेटर या बंकर बस्टर बम गिराए है। इन बमों में की खूबी यह है कि यह 200 फीट से ज्यादा नीचे टारगेट को निशाना बना कर तबाह कर सकते है। यह बम जीपीएस गाइडेड होने के कारण सटीक निशाना साधते हैं। अमेरिका हमले में पनडुब्बी से हॉहॉक सबसोनिक क्रूज मिसाइल के जरिए ईरान की नतांज और इस्फाहन साइट पर हमला किया गया। यह मिसाइल 1000 पॉड का वारहेड लेकर 1550 से 2500 किमी तक हमला कर सकती है।चीन की विस्तारवादी नीतियां पहले से दक्षिण एशिया क्षेत्र में चिंताएं बढ़ा रही हैं। चीन बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआइ) प्रोजेक्ट के जरिए पाकिस्तान के अलावा नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश और म्यांमार में जिस तरह पैर फैला रहा है, भारत की सुरक्षा और कूटनीति के लिए गंभीर खतरा है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा भी बीआरआइ का हिस्सा है। यह पाकिस्तान के बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को गिलगित-बाल्टिस्तान के रास्ते चीन के शिनजियांग से जोड़ता है। भारत इस गलियारे का विरोध करता रहा है। आशंका है कि ग्वादर बंदरगाह को चीन भविष्य में सैन्य ठिकाने के रूप में इस्तेमाल कर सकता है।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी




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