युद्ध चाहे आज के जमाने का हो या पुराने जमाने का अपने निशान धरती पर लंबे समय तक के लिए छोड़़ जाते हैं। यह कहना कि युद्ध इतिहास की बात रह जाता है, गलत होगा। यह विश्लेषण में युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता कि युद्ध के दौरान अमुख देश के इतने करोड़ रुपए प्रतिदिन खर्च हो रहे थे या युद्ध के कारण जनहानि के साथ ही करोड़ों की संपत्ति और युद्ध सामग्री का नष्ट होना भी एक बात है। इसके साथ ही युद्ध में प्रयुक्त सामग्री खासतौर से युद्ध आयुधों के प्रयोग के कारण प्रकृति पर कितना प्रतिकूल असर पड़ता है वह अकल्पनिय होता है। हालिया युद्धों में किस तरह से मिसाईलों का इस्तेमाल किया गया है और दूसरी और उन्हें नष्ट करने के प्रयास हुए हैं। इससे केवल क्षेत्र विशेष ही नहीं अपितु वायु मण्डल, पारिस्थिति तंत्र सहित प्रकृति पर गंभीर दूरगाामी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। बम, गोलाबारी, धुंआ, रासायनिक तत्वों के उपयोग से ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोतरी हुई है। ग्लोबल वार्मिंग पर इसका सीधा सीधा असर पड़ेगा। यह तो वायु मण्डल के प्रदूषित होने और ग्लोबल वार्मिंग की बात है दूसरी तरफ रासायनिक बमों के अवशेष और युद्ध के कारण बारुदी सुरंगों या बारुद आदि सामग्री के उपयोग के कारण भूजल, मिट्टी आदि भी प्रदूषित होती है और पानी के प्रदूषित होने और मिट्टी की उर्वरा शक्ति प्रभावित होती है। इसके साथ ही जल, थल और नभ तीनों ही स्थानों पर जैव विविधता प्रभावित होती है। वन्य जीवोें के साथ ही पशु-पक्षियों सहित अन्य प्रजातियों की विलुप्ति सहित अनेक दुष्प्रभाव सामने आते हैं। युद्ध के कारण जीवाश्म ईंधन के अत्यधिक उपयोग से प्रदूषण के साथ ही प्राकृतिक संसाधनों पर विपरीत प्रभाव आता है। पारिस्थितिकी तंत्र के प्रभावित होने के साथ ही युद्ध के कारण जिस तरह से जन-धन हानि और प्रकृति पर विपरीत प्रभाव के साथ ही युद्ध के कारण संसाधनों के नष्ट होने, उन्हें वापिस दुरुस्त करने, आधारभूत संरचना विकसित करने और कुछ कार्य तत्काल दुरुस्त करने के होते हैं तो कुछ सुधार कार्यों में लंबा समय लगना होता है। इस तरह से युद्ध के कारण केवल दो देशों के बीच तात्कालीक संघर्ष और संघर्ष विराम मात्र नहीं होता और युद्ध का असर केवल जन-धन हानि तक ही सीमित नहीं होता यहां तक कि युद्ध का असर युद्धरत देशों तक ही नहीं होता अपितु युद्ध के कारण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से अधिकांश देश प्रभावित होते हैं और प्राकृतिक संसाधनोें पर सीधा असर पड़ता है। आज जिस तरह से विश्व गांव की बात की जाती हेै ग्लोबल की बात की जाती तो है यह साफ है कि युद्ध केवल युद्धरत देशों ही नहीं अपितु समूचे विश्व को युद्ध की आंच से दो चार होना पड़ता है। ऐसे में साम्राज्यवादी सोच और अहम् को त्याग कर उसके स्थान पर आपसी समझ और बातचीत से ही समस्या का समाधान महत्वपूर्ण हो जाता है।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
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