विशेष : कोयला हुआ पुराना, अब रिन्यूएबल ही सस्ता - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 24 जुलाई 2025

विशेष : कोयला हुआ पुराना, अब रिन्यूएबल ही सस्ता

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दुनिया भर में 91% नई सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाएं कोयले-गैस से सस्ती पड़ीं। लेकिन सवाल अब भी बड़ा है: क्या सस्ती बिजली हर किसी तक पहुँच रही है? जरा सोचिए, अगर आपको बताया जाए कि बिजली बनाने का सबसे सस्ता तरीका अब न कोयला है, न गैस, बल्कि सूरज और हवा हैं—तो क्या आप भरोसा करेंगे? IRENA (इंटरनेशनल रिन्यूएबल एनर्जी एजेंसी) की ताज़ा रिपोर्ट यही कहती है। 2024 में दुनिया भर में जितनी भी नई बिजली परियोजनाएं शुरू हुईं, उनमें से 91% रिन्यूएबल एनर्जी की थीं—और ये सब कोयला और गैस से सस्ती साबित हुईं।


सस्ती, साफ़ और सुरक्षित - रिन्यूएबल एनर्जी की तिकड़ी, इस रिपोर्ट के अनुसार:

सोलर पैनल्स से बनने वाली बिजली की लागत, सबसे सस्ते कोयले या गैस से भी औसतन 41% कम थी।

ज़मीन पर लगने वाली पवन टर्बाइनों (ऑनशोर विंड) से बनने वाली बिजली तो 53% तक सस्ती थी।

2024 में अकेले रिन्यूएबल एनर्जी से जुड़े 582 गीगावॉट के नए प्रोजेक्ट लगे, जिससे दुनिया ने लगभग 57 अरब डॉलर का कोयला-तेल जलाने से बचा लिया।

यानी साफ़ हवा, कम प्रदूषण और पैसे की भी बचत—एक साथ।

लेकिन ये सफर उतना सीधा नहीं है...

सस्ती पड़ रही रिन्यूएबल एनर्जी के बावजूद, इसे ज़मीन पर लाना और हर किसी तक पहुंचाना अब भी टेढ़ी खीर है।


IRENA की रिपोर्ट साफ़ कहती है कि:

परमिट मिलने में देरी,

ग्रिड से जोड़ने में तकनीकी दिक्कतें,

और फाइनेंसिंग की ऊँची लागत,

कई देशों - खासकर भारत जैसे उभरते बाज़ारों में - रिन्यूएबल की रफ्तार को थामे हुए हैं।


Global South के लिए ये सस्ता सपना अभी भी महँगा क्यों है?

रिपोर्ट में एक दिलचस्प तुलना की गई - यूरोप और अफ्रीका की। दोनों ही जगह 2024 में ऑनशोर विंड प्रोजेक्ट्स की लागत लगभग बराबर थी (0.052 डॉलर प्रति यूनिट), लेकिन कारण अलग थे:


यूरोप में ज़्यादा खर्च मशीन और सेटअप पर हुआ,

जबकि अफ्रीका में ब्याज और फाइनेंसिंग की लागत ज़्यादा थी - क्योंकि निवेशकों को वहाँ रिस्क ज़्यादा लगता है। IRENA ने बताया कि यूरोप में पूंजी लागत 3.8% थी, वहीं अफ्रीका में 12% तक पहुँची। ये फर्क दिखाता है कि भले ही सूरज सब पर बराबर चमकता हो, लेकिन सोलर प्लांट सबके लिए बराबर सस्ता नहीं है।


तकनीक भी दे रही है साथ, लेकिन सिस्टम पीछे छूट रहा है

2010 से अब तक बड़ी बैटरियों की लागत 93% तक गिर चुकी है। अब सोलर-विंड प्लांट्स के साथ बैटरियां और AI-आधारित डिजिटल सिस्टम जोड़े जा रहे हैं, ताकि बिजली का उत्पादन स्मार्ट, लचीला और टिकाऊ बन सके। लेकिन अफसोस ये है कि ऐसे इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश अभी भी धीमा है, खासकर उन देशों में जहाँ इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।


गुटेरेस और IRENA की सीधी बात, संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा

"रिन्यूएबल सिर्फ सही नहीं, समझदारी भरा निवेश है। अब वक्त है कि देश इनकी राह की रुकावटें हटाएं और निवेश को बढ़ावा दें।"


IRENA के प्रमुख फ्रांसेस्को ला कैमेरा ने चेतावनी दी

"अगर हमने अभी नीतियों को मज़बूत नहीं किया, फाइनेंसिंग आसान नहीं बनाई, तो ये प्रगति धीमी हो सकती है।"


निचोड़ की बात:

साफ़ बिजली अब सिर्फ एक सपना नहीं रही—ये हकीकत है। लेकिन क्या ये हकीकत सब तक पहुँच रही है?

क्या जो लोग हर महीने बिजली के बिल से जूझते हैं, उन्हें इसका फायदा मिल रहा है?

क्या गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों में भी सूरज और हवा से सस्ती बिजली पहुँच पा रही है?

जब तक हम इन सवालों पर काम नहीं करते, तब तक “सस्ती बिजली” का ये दावा अधूरा है।

रिन्यूएबल की कहानी, सिर्फ तकनीक की नहीं, नीति, निवेश और न्याय की भी है।

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