विचार : भाषा का स्वाभाविक विकास: समायोजन बनाम संकुचन - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 30 जुलाई 2025

विचार : भाषा का स्वाभाविक विकास: समायोजन बनाम संकुचन

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भाषा किसी भी समाज की सांस्कृतिक चेतना की वाहक होती है। यह केवल शब्दों का संग्रह मात्र नहीं, बल्कि सभ्यता और अनुभवों की अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। जब हम भाषा की शुद्धता की बात करते हैं, तो यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि ‘शुद्धता’ से हमारा तात्पर्य क्या है — व्याकरणिक शुद्धता, या शब्दों की उत्पत्ति के आधार पर कोई कृत्रिम निर्धारण? आज कुछ लोग यह मत रखते हैं कि हिंदी भाषा में उर्दू या फारसी मूल के शब्दों का प्रयोग भाषा की पवित्रता या शुद्धता के विरुद्ध है। लेकिन यह दृष्टिकोण न केवल संकुचित है, बल्कि भाषाई विकास के स्वाभाविक प्रवाह के विरुद्ध भी है।


यदि हम उर्दू भाषा के कतिपय शब्दों का प्रयोग करते हैं, तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। उलटे, इससे भाषा में अतिरिक्त निखार, संप्रेषणीयता और प्रभाव आता है। तहसीलदार, पटवारी, लम्बरदार, तोपची, शहीद, खतरा, मुनीम, बंदूक, गोली, मुफ्तखोरी, चौकीदार, और कारीगर जैसे शब्द आज जनमानस की भाषा में रच-बस चुके हैं। ये शब्द केवल उर्दू या फारसी के नहीं रहे, बल्कि अब हिंदी के सांस्कृतिक संदर्भों में भी उतने ही स्वाभाविक हैं जितने कि किसी अन्य मूल के शब्द। यदि इनके स्थान पर संस्कृतनिष्ठ या स्वदेशी विकल्प खोजे भी जाएं, तो संभवतः वे उतने सर्वग्राही, अर्थपूर्ण और व्यावहारिक नहीं होंगे। भाषा कोई प्रयोगशाला का कृत्रिम प्रयोग नहीं, बल्कि जीवित सामाजिक व्यवहार है। उसकी स्वीकृति इस बात से तय होती है कि कौन सा शब्द सहज रूप से बोला, समझा और अपनाया जाता है। अमीर खुसरो को पढ़िए। उन्होंने अपने काव्य और गीतों में हिंदी, ब्रज, फारसी, अरबी और यहां तक कि संस्कृत शब्दों का अद्भुत सामंजस्य स्थापित किया। कबीर, रहीम, रसखान, और तुलसीदास तक ने अपनी भाषा में विभिन्न स्रोतों के शब्दों को समाहित कर भाषा को जीवंत बनाए रखा। क्या इन्हें भी 'शुद्धता' की कसौटी पर खारिज किया जाएगा?


यदि संकीर्ण दृष्टिकोण अपनाना है तो फिर अंग्रेज़ी के उन शब्दों का प्रयोग भी रोक देना चाहिए जो हिंदी में गहराई से समा चुके हैं — जैसे रेडियो, स्कूटर, लाइट, रेल, कार, साइकिल, पिक्चर, फोटो, और लाइसेंस आदि। क्या ये सभी “विदेशी शब्द” नहीं हैं? लेकिन हम इन्हें दैनिक प्रयोग में लाते हैं क्योंकि ये अब हमारी भाषाई चेतना का हिस्सा बन चुके हैं। वहीं दूसरी ओर, अंग्रेज़ी जैसी वैश्विक भाषा ने भी हमारी भाषाओं के शब्दों को आत्मसात किया है। बाजार, जवान, और कुली जैसे शब्द अब अंग्रेज़ी शब्दकोश का हिस्सा हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि भाषा का विकास अन्य भाषाओं के शब्दों को अपनाकर होता है, उन्हें त्याग कर नहीं। भाषा का विकास समन्वय, उदारता और स्वीकार्यता के सिद्धांत पर चलता है। किसी भी शब्द को उसकी जड़ (उत्पत्ति) नहीं, बल्कि उसकी अर्थवत्ता और प्रयुक्ति स्थान देती है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हम भाषा के स्वाभाविक विकास को समझें, उसे बांधने का प्रयास न करें। खुले मन से सोचें, पढ़ें, संवाद करें — और समझें कि भाषा सीमाओं को नहीं मानती, वह तो दिलों को जोड़ने का माध्यम है।






—डॉ० शिबन कृष्ण रैणा—

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