दरअसल पिछले लंबे समय से धनखड़ का व्यवहार संवैधानिक प्रमुख की भूमिका से हटकर कार्यपालिका प्रमुख जैसा होने लगा था। इसे कुछ घटनाओं से समझा जा सकता है। गत वर्ष 3 दिसंबर को धनखड़ ने केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान से मुंबई में एक समारोह के दौरान किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और किसानों से किए गए वादों को लेकर तीखे सवाल पूछे। उनके पूछने के तरीका इतना तल्ख़ था कि सब स्तब्ध रह गए थे। उधर, इस वर्ष मई में अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस की भारत यात्रा के बाद उन्होंने भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर से वेन्स से हुई बातचीत की रिपोर्ट मांग ली। यह भी एक असामान्य बात थी कायदे से कैबिनेट मंत्रियों से सवाल पूछने या रिपोर्ट मांगने का अधिकार प्रधानमंत्री को ही होता है। इन दोनों घटनाओं को मोदी सरकार ने बहुत गंभीरता से लिया। धनखड़ के बदले और असहज करने वाले व्यवहार के संकेत पहले भी मिल रहे थे। गत वर्ष ही 20 जुलाई को पत्नी के जन्मदिन पर सरकारी खर्चे पर 800 लोगों को आमंत्रित और इसमें विपक्षी दलों के नेताओं को ख़ास तौर पर न्यौता देना भी चर्चा का विषय रहा। इस पार्टी में शराब घोटाले में जेल यात्रा कर आए आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल की उपस्थिति के कई प्रश्न खड़े किए कि भाजपा के कट्टर विरोधी और नकारात्मक छवि वाले केजरीवाल को किस हैसियत से बुलाया गया। हैरानी वाली बात ये है उनकी यह पार्टी ऐसी थी जैसे वे कुछ बड़ा करने जा रहे थे, सो पार्टी में बड़े बड़े विपक्षी नेता बुलाए गए। लगता था जैसे भविष्य की राजनीति के लिए एक नया रास्ता, नए समीकरण बनाए जा रहे थे। धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के दिनों के पुराने मित्र समाजवादी पार्टी के सांसद कपिल सिब्बल से अपने संबंधों को सक्रिय किया तो कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे के नेतृत्व में विपक्ष भी आगे बढ़ रहा था।
उधर, संसद के मानसून सत्र में न्यायाधीश निवास से अधजले नोटों के बोरों वाले बहुचर्चित जस्टिस धनन्जय वर्मा के प्रस्तावित महाभियोग मामले के अवसर का उपयोग सरकार कॉलेजियम प्रणाली को खराब रोशनी में दिखाने के लिए करना चाहती थी। वह नहीं चाहती थी कि धनखड़ विपक्षी सांसदों द्वारा लाए गए प्रस्ताव को स्वीकार करें। जब उन्होंने अपने फैसले पर अडिग रहने का फैसला किया, तो बीजेपी ने इसे बेहद गंभीरता से लिया। यह भी चर्चा थी कि सभापति धनखड़ जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ भी केवल इस आधार पर कि उन्होंने विहिप के कार्यक्रम में कट्टरपन्थियों को कठमुल्ला बोला था, महाभियोग चलाने के प्रस्ताव पर विचार करने लगे थे। यह एक सार्वजनिक कार्यक्रम था न कि अदालत में दिया गया कोई निर्णय। जस्टिस यादव के विरुद्ध महाभियोग का प्रस्ताव कपिल सिब्बल लेकर आए, और भ्रष्टाचारी जस्टिस वर्मा के खिलाफ कोर्ट में वर्मा के वकील भी कपिल सिब्बल ही हैं। इस तरह उनकी विपक्ष के साथ बढ़तीं नजदीकियां उनकी बढ़ रही महत्त्वाकांक्षा के संकेत दे रही थीं कि क्या वे जुलाई 2027 में भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठने की लालसा पाल रहे थे? उनके इस्तीफ़े के बाद एक टीवी चैनल की एक चौंकाने वाली एक्सक्लूसिव रिपोर्ट में चंद्रबाबू नायडू को एनडीए गठबंधन छोड़ने के लिए उकसाने वाली बात भी सार्वजनिक रूप से उजागर हुई। इन सबसे राजनीतिक पंडितों का विश्लेषण है कि क्या वे एनडीए में तोड़फोड़ कर मोदी सरकार को अल्पमत में लाकर स्वयं इस पद के लिए विपक्ष के साझा उम्मीदवार बनने की दिशा में योजनाबद्ध रूप से कदम-दर-कदम आगे बढ़ रहे थे? धनखड़ सार्वजनिक जीवन में कितने महत्वाकांक्षी रहे हैं, इस बात का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि भाजपा में आने से पहले वे भी सत्ताधारियों से संपर्क बढ़ाने में निरंतर सक्रिय रहे।
सन् 1989 में जनता दल नेता देवी लाल के 75वें जन्मदिन पर 75 गाड़ियां लेकर बोट क्लब दिल्ली पहुंच देवीलाल को बर्थ डे विश से राजनीति शुरु करने वाले उसी साल में झूंझुनूं से जनता दल सांसद और फिर वीपी मंत्रिमंडल में उप मंत्री बने। वीपी सरकार गिरी तो चंद्रशेखर मंत्रिमंडल में भी उपमंत्री बनाया गया पर उन्होंने वह पद नहीं लिया। चंद्रशेकर सरकार गिरी, तो कांग्रेस का दामन पकड़ा और अजमेर लोकसभा से टिकट हासिल किया। राजीव गांधी ने इनका प्रचार किया, लेकिन हार गए। 1996 किशनगढ़ से कांग्रेस से विधायक बने। फिर झुंझुनूं से लोकसभा चुनाव लड़े। पुनः हार गये तो शरद पवार के एनसीपी नजदीकी बढ़ाई पर बात आगे नहीं बढ़ी। कभी काले हरिण के मामले में सलमान खान की पैरवी कर उन्हें जोधपुर उच्च न्यायालय से जमानत दिला कर देश भर का ध्यान आकर्षित करने वाले धनखड़ बाद में भाजपा में आ गए, पर गुमनामी में रहे। अचानक 2019 में भाजपा ने इनको पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बना दिया। वहाँ कई मामलों में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से टकरा कर भाजपा की नजरों में चढ़ गए और 2022 में उपराष्ट्रपति बना दिए गए। वे जानते थे कि उपराष्ट्रपति के रूप में उनकी भूमिका सीमित ही है। अमेरिका में कहा जाता है कि उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति बनने से केवल एक सांस की दूरी रखती है। यदि राष्ट्रपति की मृत्यु हो जाती है, तो उपराष्ट्रपति स्वतः राष्ट्रपति बन जाता है और शेष अवधि के लिए ऐसा ही रहता है। भारत में, यदि राष्ट्रपति की मृत्यु हो जाती है, तो उपराष्ट्रपति कार्यवाहक राष्ट्रपति बनता है। वह तब तक ऐसा ही रहता है जब तक कि कोई नया राष्ट्रपति चुना नहीं जाता। बी.डी. जत्ती भारत के उपराष्ट्रपति थे। वे दो बार कार्यवाहक राष्ट्रपति रहे, लेकिन वह कभी राष्ट्रपति नहीं बने। राष्ट्रपति तो ख़ैर धनखड़ भी नहीं बन पाए लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा के आत्मशिकार हुए धनखड़ अपने इस्तीफ़े की कॉपी सोशल मीडिया X पर डालने वाले देश के पहले उपराष्ट्रपति ज़रूर बन गए। इससे पहले गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने भी फेसबुक पर अपने इस्तीफ़े की घोषणा की थी।
डॉ.हरीश शिवनानी (वरिष्ठ पत्रकार)
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