‘भगवा आतंकवाद’ शब्द एक अचानक उपजे विचार का परिणाम नहीं था। यह एक गहरी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा था। इस विचारधारा का उद्देश्य था, बहुसंख्यक समाज की धार्मिक पहचान को ’संदिग्ध’ बनाना. राष्ट्रवादी संगठनों को ’कट्टरपंथी’ सिद्ध करना. चुनावी लाभ के लिए समाज में वैचारिक विभाजन पैदा करना. सिर्फ यही नहीं, जांच एजेंसियों पर भी राजनीतिक दबाव के आरोप लगे। अदालत में कई गवाहों ने कहा कि उन्हें बयान बदलने के लिए दबाव डाला गया था। मतलब साफ है मालेगांव विस्फोट से लेकर न्यायालय के फैसले तक, एक वैचारिक युद्ध का अंत तो हो गया, लेकिन भारत जानना चाहता है, “क्या उस समय सत्ता में बैठी सरकार ने आतंकवाद पर सच्चाई छिपाकर देश को धोखा दिया?” क्या उस समय की सत्ता ने आतंकियों को बचाने और भारत की सनातन पहचान को बदनाम करने के लिए ’भगवा आतंकवाद’ का झूठ गढ़ा? क्या यह एक सुनियोजित वैचारिक षड्यंत्र था? क्या कांग्रेस को देश से माफी मांगनी चाहिए? क्या ऐसे नेताओं की भूमिका की जांच होनी चाहिए जिन्होंने एक विचारधारा विशेष को निशाना बनाया? फिरहाल, मालेगांव “भगवा हुआ निर्दोष“, यह वाक्य एक न्यायिक सत्य के साथ-साथ सांस्कृतिक पुनर्जागरण का उद्घोष है। “सनातन की जीत“, यह केवल कोर्ट का फैसला नहीं, यह करोड़ों भारतवासियों की आस्था, आत्मसम्मान और सभ्यता की पुनर्प्रतिष्ठा है. अब वक्त है, उन चेहरों को पहचानने का जिन्होंने राष्ट्रधर्म को कलंकित किया। अब वक्त है, न्याय की भावना को केवल निर्णय में नहीं, नीति में उतारने का
आखिरकार, यह एक बड़ी रणनीति थी, देश के बहुसंख्यक समाज की सांस्कृतिक धारा को अपराधी साबित करने की। यह वही सोच थी, जो ’हिंदुत्व’ को ’फासीवाद’, ’सांप्रदायिकता’ और अब ’आतंकवाद’ के रूप में परिभाषित करने पर तुली थी। “प्रज्ञा सिंह ठाकुर, कर्नल पुरोहित और अन्य आरोपियों के खिलाफ ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है जिससे यह साबित हो सके कि वे विस्फोट की योजना या क्रियान्वयन में शामिल थे।” यह निर्णय एक कानूनी प्रक्रिया भर नहीं था, यह भारत की सांस्कृतिक चेतना की मुक्ति की घोषणा था। कहा जा सकता है भगवा सनातन का रंग, कभी आतंक का नहीं था, ’भगवा’ वह रंग है जो, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की वेशभूषा है. सन्यास और तपस्या का प्रतीक है. तिरंगे के शीर्ष पर प्रतिष्ठित है. राष्ट्र के बलिदान और सेवा का रंग है. इसी रंग को ’आतंकवाद’ से जोड़ देना भारत की आत्मा पर हमला था। अदालत का फैसला उस हमले का उत्तर है।
साध्वी प्रज्ञा : अपमान से संसद तक की यात्रा
एक महिला, एक साध्वी, एक सनातन विचारधारा की प्रतिनिधि, जिन्हें आतंकवादी कहा गया, प्रताड़ित किया गया, अपमानित किया गया। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। अब वे सांसद हैं और उन्होंने फैसले के बाद कहा, “यह मेरी नहीं, सनातन की विजय है। जो लोग सनातन धर्म को आतंक से जोड़ते हैं, वे पाप के भागी हैं। हम उन सभी को भगवान के न्याय से दंडित होते देखेंगे।“ भगवा पर लगा झूठा कलंक मिट गया। जिन्होंने उसे कलंकित किया, वे अब सत्य से डरें।“ अब इतिहास पलटेगा, क्योंकि सत्य जाग गया है. यह वक्तव्य सिर्फ एक प्रतिक्रिया नहीं, एक चेतावनी है, उन तमाम ताकतों के लिए जो भारत की मूल सांस्कृतिक पहचान को दुष्प्रचार और वैचारिक हमले के जरिए मिटाने पर आमादा हैं। अफसोस है कि बिना जांच पड़ताल के जिस दिन साध्वी को गिरफ्तार किया गया था, उसी दिन मीडिया चैनलों पर ब्रेकिंग चली, “हिंदू आतंक का चेहरा?“ बहसें हुईं, व्यंग्य किए गए, नेताओं के बयान आए, “अब साफ हो गया कि हिंदू आतंक भी होता है“। लेकिन अब वही मीडिया इस बरी होने की खबर को प्रमुखता नहीं दे रहा। क्यों? ऐसे मामलों में तथाकथित सेक्युलर बुद्धिजीवी वर्ग की चुप्पी भी संदेहजनक है। वे जो वर्षों तक “भगवा से खतरा“ बताते रहे, आज मौन हैं। क्या उन्हें यह स्वीकार करना कठिन है कि उन्होंने बिना तथ्यों के पूरे समाज को बदनाम किया?
भगवा : कोई रंग नहीं, सनातन चेतना का प्रतीक
भगवा कोई पार्टी का रंग नहीं है। यह वह चेतना है जो वेदों में प्रवाहित होती है, जो गीता में अर्जुन के रथ के ऊपर लहराती है, जो चित्तौड़ की रानी पद्मावती की ज्वाला में दिखाई देती है, और जो हर सुबह मंदिरों में आरती की लौ में चमकती है। जिस रंग को आतंक से जोड़ा गया, उसी रंग ने हजारों वर्षों तक अहिंसा, ज्ञान और शौर्य की परंपरा को पोषित किया है। भगवा केवल वस्त्र नहीं, एक संस्कार है।
अब कौन देगा जवाब?
क्या अब वे राजनेता देश से माफी मांगेंगे जिन्होंने ’हिंदू आतंक’ शब्द को स्थापित करने की कोशिश की? क्या वे अफसर सार्वजनिक रूप से सफाई देंगे जिनकी जांच ने निर्दोषों को सालों तक जेल में रखा? क्या मीडिया अपनी गलती स्वीकार करेगा? क्या न्यायपालिका अब इस पूरे प्रकरण की स्वतंत्र जांच की सिफारिश करेगी? मतलब साफ है मालेगांव ब्लास्ट केस केवल एक आतंकी हमले की कानूनी पड़ताल नहीं थी। यह एक पूरे समाज, संस्कृति और विचारधारा के ऊपर लगाए गए झूठे आरोपों की कसौटी थी। अब जब अदालत ने फैसला सुना दिया है, यह समय है कि हम आत्ममंथन करें, क्या हमने सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए अपने ही सभ्यता को ’आतंक’ कह दिया? भगवा झुका नहीं, भगवा झूठा नहीं साबित हुआ, अब समय है कि भगवा को अपमानित करने वाले खुद कटघरे में खड़े हों। आज जब साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित और अन्य निर्दोष बरी हो गए, यह सिर्फ कानूनी राहत नहीं, एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण है। ’भगवा आतंकवाद’ का झूठ अब न्यायालय में असत्य सिद्ध हुआ। लेकिन अब समय है कि देश उन लोगों की भी पहचान करे जिन्होंने इस झूठ को गढ़ा, फैलाया और वर्षों तक पोषित किया। यह ‘भगवा’ की नहीं, भारत की आत्मा की विजय है। अब वक्त है, सिर्फ केस बंद करने का नहीं, वैचारिक अपराधियों को बेनकाब करने का।
पीड़ा, आक्रोश और सत्य की संतुष्टि
भोपाल और उज्जैन से लेकर प्रयागराज, वाराणसी और लखनऊ तक साध्वी समर्थकों और हिंदू संगठनों में खुशी की लहर है। काशी में तपस्वी संत मंडल के अगुवा स्वामी जीतेन्द्रानंद सरस्वती महराज ने कहा, “सनातन को आतंक बताने वाले अब खुद कठघरे में हैं। अब मीडिया और नेताओं को माफी मांगनी चाहिए।” भोपाल में श्रद्धालुओं ने भगवा ध्वज फहराकर मनाया न्याय का पर्व। मालेगांव में भी स्थानीय लोग हैरान है, “इतने साल लगे और अंत में सब निर्दोष निकले... तो फिर असली दोषी कौन?”
संदेह कैसे पनपा?
2006 से 2008 के बीच भारत में एक के बाद एक आतंकवादी हमले हुए, मुंबई लोकल ट्रेन ब्लास्ट, मालेगांव (2006), समझौता एक्सप्रेस (2007), अजमेर दरगाह विस्फोट (2007), हैदराबाद, जयपुर, दिल्ली और अंततः मालेगांव (2008)। इनमें अधिकांश घटनाओं में लश्कर-ए-तैयबा, हूजी, इंडियन मुजाहिदीन जैसे इस्लामी आतंकी संगठनों की भूमिका प्रारंभिक जांच में सामने आई थी। लेकिन अचानक 2008 के मालेगांव ब्लास्ट के बाद एटीएस ने दिशा बदली। हिदू साध्वी, पूर्व आर्मी अफसर और राष्ट्रवादी संगठनों से जुड़े लोगों को आरोपी बनाकर ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द गढ़ा गया। कुछ अहम संकेत जो शक को जन्म देते हैं : समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट (2007) में अमेरिका की जांच एजेंसी एफबीआई ने पाकिस्तान स्थित आतंकी अज़हर, शाहिद और अऱशद की भूमिका बताई। लेकिन भारत में यूपीए सरकार ने स्वामी असीमानंद को आरोपी बना दिया। अजमेर दरगाह विस्फोट में शुरुआती रिपोर्ट में इंडियन मुजाहिदीन का नाम था। बाद में एटीएस ने ’भगवा गुटों’ का नाम जोड़ दिया। तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने 2010 में आधिकारिक तौर पर “सैफ्रन टेरर“ शब्द संसद में बोले, “भारत को अब भगवा आतंकवाद से भी नज़रें नहीं फेरनी चाहिए।“ सवाल ये है कि क्या ऐसा बयान देना न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास नहीं था? 26/11 के मुंबई हमले के बाद पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने भी कहा था, “हमें तो भारत के ही मंत्री ने बताया कि हिन्दू आतंक भी है।” क्या भारत के एक आंतरिक राजनीतिक नैरेटिव को विदेशी शत्रु राष्ट्र ने अपने बचाव में इस्तेमाल किया? क्या कांग्रेस ‘हिंदू टेरर’ दिखाकर असली आतंकियों से ध्यान भटकाना चाहती थी? यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि लश्कर, जैश, इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों की जांच धीमी पड़ गई। आतंकी मामलों को ‘संप्रदाय आधारित’ दृष्टिकोण से देखा जाने लगा। सुरक्षा एजेंसियों पर एक वैचारिक दबाव बना कि वे “हिंदू संगठनों“ की जांच को तेज करें। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि निर्दोष जेल गए, आतंक की असली जड़ें समय पर नहीं काटी गईं, राष्ट्र की सुरक्षा राजनीति की भेंट चढ़ गई।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी




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