ऐतिहासिक उदाहरण
भारत की संसदीय परंपरा में बहस और तर्क को ही लोकतंत्र की जान माना गया है। जवाहरलाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक के दौर में तीखी बहस हुईं, लेकिन संसद का गरिमा और संवाद अभी भटका नहीं.आज की स्थिति इन आदर्श उदाहरणों के उलट है—जहाँ बहस की जगह नारेबाजी और जिद ने ले ली है.
अन्य देशों की मिसाल
दुनिया के कई लोकतंत्रों में ऐसी बर्बादी पर कड़ी व्यवस्था है.उदाहरण के तौर पर, ब्रिटेन की संसद में अगर सांसद लगातार गैर-हाजिर रहते हैं या अनुशासनहीनता करते हैं, तो उनके वेतन में कटौती हो जाती है.अमेरिका में भी टैक्स-पेयर से जुड़ी जवाबदेही पर संसद का अनुशासन बेहद सख्त है. जापान और दक्षिण कोरिया में तो सांसदों पर अनुशासनहीनता की स्थिति में भारी जुर्माना लगाया जाता है. सवाल उठता है कि भारत में ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं?
असली बहस
सवाल यह नहीं कि सत्ता या विपक्ष कौन दोषी है, बल्कि यह है कि जनता के पैसों का अपव्यय आखिर कब तक चलेगा. जब आम नागरिक समय पर टैक्स देता है, तो उसे यह अधिकार भी होना चाहिए कि वह अपने प्रतिनिधियों से जवाब मांगे—आपका एक-एक घंटा कहाँ खर्च हुआ?उमेश पटेल की मांग आज सिर्फ एक प्रदर्शन नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की असल आत्मा को बचाने का आह्वान है. संसद में मौजूद हर दल को यह समझना होगा कि संसद हंगामे का अखाड़ा नहीं, बल्कि जनता की उम्मीदों का मंदिर है। अगर यह मंदिर बार-बार अपवित्र होगा, तो जनता अब और चुप नहीं बैठेगी.

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