- बारिश की फुहारों के बीच यह पांच मिनट का दिव्य मिलन मानो पूरे त्रेतायुग को काशी की धरती पर उतार लाया हो
- चारों भाईयों, राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न, का आलिंगन देखकर पूरा मैदान जय श्रीराम के उद्घोष से गूंज उठा। भीगती आंखों और भीगते मन के बीच भक्तों ने अपने आराध्य का साक्षात्कार किया
परंपरा की जड़ें, त्रेतायुग से नाटी इमली तक
रामायण की कथा में जब श्रीराम 14 वर्ष का वनवास काटकर अयोध्या लौटे तो भरत उनसे मिलने दौड़े चले आए। उन्होंने प्रभु श्रीराम के चरण पकड़ लिए और उठने से इनकार कर दिया। तुलसीदास ने इस भावुक दृश्य को रामचरितमानस में अमर कर दिया...
परे भूमि नहिं उठत उठाए।
बर करि कृपासिंधु उर लाएं।।
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े.
नव राजीव नयन जल बाढ़े।।
अर्थात, भरत जी भूमि पर पड़े हैंए उठाए नहीं उठते। तब कृपासिंधु श्रीराम ने उन्हें बलपूर्वक उठाकर हृदय से लगा लिया। श्रीराम के सांवले शरीर पर रोमांच खड़ा हो गया और उनकी आंखों में प्रेमाश्रु उमड़ पड़े। यही भाव दृश्य रूप में आज भी काशी के नाटी इमली मैदान में जीवंत होता है। कहा जाता है कि 16वीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास ने काशी में रामलीला की परंपरा की नींव रखी थी। तभी से भरत मिलाप लीला यहां की सामाजिक, सांस्कृतिक धारा का हिस्सा बन गई। लक्खा मेले के रूप में प्रसिद्ध यह आयोजन हर वर्ष हजारों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। मान्यता है कि इस दिन काशी में प्रभु श्रीराम स्वयं अवतरित होते हैं और भरत से मिलते हैं।
लक्खा मेले की भीड़ और भावनाएं
भरत मिलाप केवल लीला ही नहीं, बल्कि एक विशाल सामाजिक उत्सव भी है। इसे लक्खा मेला कहा जाता है क्योंकि यहां लाखों की संख्या में लोग उमड़ते हैं। नाटी इमली से लेकर आसपास की गलियों तक लोगों का सैलाब उमड़ पड़ता है। हर उम्र, हर वर्ग और हर समुदाय का व्यक्ति इस आयोजन में शामिल होता है। किसी के हाथ में छाताए किसी के सिर पर गमछा और किसी के ओठों पर सिर्फ रामदृनाम, भीगते हुए भी किसी का मन वहां से हटने का नाम नहीं लेता।संस्कृति और लोकजीवन का उत्सव
काशी का भरत मिलाप केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं, बल्कि लोकजीवन की धड़कन भी है। यह आयोजन एक संदेश देता है कि भाईचारा, प्रेम और कर्तव्य सबसे बड़ा धर्म है। भरत का त्याग और राम का धैर्य, दोनों मिलकर यह बताते हैं कि सत्ता का मूल्य सेवा है और जीवन का मूल मंत्र परस्पर प्रेम। यही कारण है कि जब भरत मिलाप की लीला होती है तो सिर्फ हिंदू समाज ही नहींए बल्कि अन्य धर्मों के लोग भी इसे देखने आते हैं।
परंपरा में छिपा सांस्कृतिक संदेश
काशी की पहचान उसके उत्सवों से है। यहां परंपरा केवल निभाई नहीं जाती, बल्कि जी जाती है। भरत मिलाप इसका जीवंत उदाहरण है। यह हमें त्याग और भक्ति का महत्व सिखाता है। यह भाईचारे और परिवार की एकता का संदेश देता है। यह बताता है कि सत्ता से बड़ा धर्म है, कर्तव्य और प्रेम। आज जब समाज में रिश्ते कमजोर हो रहे हैं और भाईचारे की डोर ढीली पड़ रही है, तब काशी का भरत मिलाप एक प्रेरणा है कि असली शक्ति प्रेम और समर्पण में है।
आस्था का अमर संगम
नाटी इमली में पांच मिनट की यह लीला मानो पांच युगों की शिक्षा समेटे होती है। यही कारण है कि हर साल लोग बारिश, धूप, ठंड और भीड़, हर कठिनाई को भूलकर इस आयोजन में शामिल होते हैं। काशी की यही विशेषता है, यहां आस्था थमती नहीं, बहती है। यही कारण है कि 482 सालों से यह परंपरा अटूट चली आ रही है।


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