- माँ गंगा की गोद में लौटतीं माँ दुर्गा : सिंदूर, सुर और श्रद्धा से सराबोर काशी का विसर्जन
जुलूस से घाटों तक : श्रद्धा और उत्सव का संगम
दोपहर ढलते-ढलते जुलूस घाटों की ओर बढ़ने लगे। डीजे की लहराती धुनों पर युवाओं का जोश, नगाड़ों की ताल पर झूमते बच्चे, और आरती की थाल लिए महिलाएँ, यह काशी की लोक-धारा का जीवंत रूप था। रास्ते भर भक्ति गीत, झाँकियाँ, फूलों की वर्षा, और गंगा आरती की झलक मिलती रही। जब माँ की प्रतिमा घाट के पास पहुँची, तो सबके कदम थम गए। गंगा किनारे आरती हुई, शंख बजे, और फिर माँ को गंगा की लहरों में उतार दिया गया। उस क्षण हवा में घुला सिंदूर, दीपों की लौ, और गंगा की हल्की लहरें कृ सब मिलकर एक अनुपम दृश्य रच रही थीं। गंगा जैसे कह रही हो, “मैं ही तो वह माँ हूँ, जिससे तुमने उन्हें गढ़ा, अब मुझे ही उन्हें लौटाने दो।”
गंगा की गोद में विलीन : मिट्टी का नहीं, भावना का विसर्जन
जब प्रतिमा धीरे-धीरे गंगा के मध्य उतरती है, तो भक्तों के चेहरे भावों से भर जाते हैं। किसी की आँखों में आँसू हैं, किसी के होंठों पर मुस्कान कृ पर हर हृदय में एक ही भाव, विरह और प्रतीक्षा का संगम। गंगा की लहरें माँ को अपने में समेट लेती हैं, और घाटों पर तैरते दीपक उस विलयन के साक्षी बन जाते हैं। बनारस के लिए यह केवल मिट्टी का विसर्जन नहीं, श्रद्धा के शिखर का प्रसाद है। यहाँ हर भक्त जानता है कृ माँ गईं नहीं, बस हर हृदय में समा गईं।
विसर्जन के बाद : शोर के बीच मौन का अर्थ
जब रात उतरती है, जुलूस लौट जाते हैं, डीजे थम जाता है, तब घाटों पर गंगा की लहरों में बस दीपों की झिलमिल बचती है। वह झिलमिल केवल जल नहीं, भक्ति का उजास है। यही बनारस की पहचान है, जहाँ शोर में भी मौन का संगीत सुनाई देता है। जहाँ विसर्जन अंत नहीं, बल्कि अगले मिलन का वचन बन जाता है। हर बनारसी की जुबान पर वही प्रार्थना, “अगले बरस तू जल्दी आ माँ, गंगा किनारे फिर वही संगम होगा।”
गंगा और पर्यावरण : भक्ति में जिम्मेदारी का संदेश
इस वर्ष विसर्जन के दौरान प्रशासन और स्वयंसेवी संस्थाओं ने पर्यावरण-अनुकूल पूजा की नई मिसाल पेश की। कई पंडालों में केवल मिट्टी और प्राकृतिक रंगों की प्रतिमाएँ बनाई गईं। निर्धारित घाटों पर ही विसर्जन हुआ और ‘क्लीन घाट’ अभियान से गंगा की शुचिता का संदेश दिया गया। यह बनारस की नई चेतना है, जहाँ भक्ति केवल अनुष्ठान नहीं, कर्तव्य और संवेदना का भी प्रतीक बन चुकी है।
सिंदूर खेल : माँ की विदाई से पहले लाल भावों का उत्सव
घरों की छतों पर, पंडालों के सामने, और गंगा घाटों पर, महिलाओं ने माँ दुर्गा को विदा करने से पहले पारंपरिक सिंदूर खेला किया। साड़ी के पल्लू में सिंदूर भरकर एक-दूसरे के गालों पर लगातीं, वे एक-दूसरे को यही आशीष देतीं, “माँ जैसी सुख-समृद्धि तुम्हारे घर में भी बनी रहे।“ हवा में उड़ता लाल सिंदूर, डीजे की थाप के साथ गूंजते “माँ के जयकारे”, और आँखों में नम भक्ति, यह दृश्य किसी साहित्यिक चित्र की तरह बनारस की आत्मा में बस गया। बुजुर्ग महिलाओं ने माँ के चरणों में जल चढ़ाया, आरती उतारी, और कहा, “जा माँ, अगले बरस फिर आना। इस घाट, इस घर, इस काशी को फिर अपना आशीष देना।“
विसर्जन जुलूस का भव्यता और श्रद्धा का संगम
दोपहर ढलते-ढलते शहर के विभिन्न हिस्सों से जुलूस घाटों की ओर बढ़े। लंका से अस्सी, सोनारपुरा से मणिकर्णिका, भेलूपुर से राजघाट तक, जगह-जगह भक्तों का हुजूम उमड़ आया। डीजे पर “जय अंबे गौरी” की धुन, युवाओं का उत्साह, महिलाओं की आरती, और बच्चों की हँसी, सब कुछ मिलकर एक अनूठी बनारसी लय रच रहा था। हर प्रतिमा के आगे चलता फूलों की वर्षा करता समूह, बीच-बीच में स्थानीय कलाकारों की झाँकियाँ, और दूर घाट की दिशा से उठता गंगा आरती का स्वर कृ यह सब मिलकर विसर्जन को उत्सव और उपासना दोनों का अद्भुत संगम बना देता है।
गंगा तट पर भावनाओं की बाढ़
संध्या होते-होते अस्सी और दशाश्वमेध घाट माँ के जयकारों से गूंज उठे। नावों पर सवार होकर श्रद्धालु प्रतिमाओं को गंगा के मध्य तक ले गए। गंगा की लहरों पर झिलमिलाते दीपक, सिंदूर से रँगे जल के छींटे, और माँ की प्रतिमा का धीरे-धीरे जल में उतरना कृ यह क्षण किसी काव्यात्मक विरह जैसा था। कई महिलाएँ हाथ जोड़कर बोल उठीं, “माँ, अब अगले बरस जल्दी आना...“ लहरें प्रतिमा को अपने साथ समेट लेती हैं, मानो गंगा स्वयं माँ को अपने आँचल में भर लेती हो।
माँ की विदाई नहीं, पुनर्मिलन का वचन
जैसे ही रात का तीसरा पहर गहराता है, घाटों पर अब भी कुछ दीप तैर रहे होते हैं। कहीं किसी के होंठों पर अब भी गूंजता है, “जय माँ दुर्गा।” यह केवल जयघोष नहीं, काशी का प्रण है, माँ गंगा की लहरों में उतरी दुर्गा अब हर घर, हर मन, हर श्वास में बस गई हैं। बनारस जानता है, यह विसर्जन नहीं, पुनर्जन्म है। माँ गईं नहीं, बस अपने स्वरूप में लौटकर फिर बनारस के ही आँगन में उतरेंगी, “अगले बरस तू जल्दी आ माँ...”वैसे भी काशी में माँ दुर्गा का विसर्जन कभी विदाई नहीं होता। यह शहर जानता है कि हर लहर के पार एक प्रतीक्षा है, हर विदाई में एक पुनर्मिलन छिपा है। माँ गंगा की गोद में समाती दुर्गा बनारस के हर घर, हर मन में फिर से बस जाती हैं। भक्ति का यह प्रवाह कभी रुकता नहीं, यहाँ हर दीप, हर रंग, हर स्वर यही कहता है, “माँ, तू गई नहीं... बस गंगा बनकर हर आत्मा में बह रही है।”


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