वाराणसी : कालिंदी में कूदे यशोदानंद, तोड़ा कालियानाग का दर्प... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 26 अक्टूबर 2025

वाराणसी : कालिंदी में कूदे यशोदानंद, तोड़ा कालियानाग का दर्प...

  • लाखों श्रद्धालुओं ने देखा तुलसीघाट पर नाग नथैया लीला, जब गंगा बन गई यमुना और काशी बन गई वृंदावन
  • यह लीला नदियों की निर्मलता और मानव चेतना की पवित्रता का संदेश देती है

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वाराणसी (सुरेश गांधी). काशी की गंगा जब भक्ति से लहराती है, तो उसके तटों पर केवल जल नहीं बहता — बहती है आस्था, परंपरा और भारतीय जीवनदर्शन की वह अमर धारा जो सहस्राब्दियों से हमें जोड़ती रही है। शनिवार को ऐसा ही अलौकिक क्षण था, जब तुलसीघाट पर गंगा कुछ देर के लिए यमुना में परिवर्तित हो गई और संपूर्ण घाट वृंदावन के तट का रूप धर लिया। चार सौ तिरेपन वर्षों से निर्बाध रूप से होती आ रही ‘नाग नथैया लीला’ ने इस बार भी श्रद्धा, भक्ति और दर्शन के रंगों से काशी के हृदय को अभिषिक्त कर दिया।


गंगा की लहरों पर खेली गई दिव्यता की लीला

गोधूलि बेला से पहले ही तुलसीघाट पर श्रद्धालुओं का सागर उमड़ पड़ा था। नावों, बजड़ों और घाट की सीढ़ियों पर बैठे जनमानस की आंखें एकटक उस क्षण की प्रतीक्षा में थीं, जब नटखट नंदलाल कालिय दह के विषैले जल में अवतरित होंगे। जब लीला आरंभ हुई और बालसखा सुदामा की गेंद खेलते-खेलते जल में जा गिरी, तो श्रीकृष्ण ने उसे लाने का निश्चय किया। सबने रोका—“कन्हैया, मत जाओ! कालिया नाग का वास है उस जल में, वह विषैला है।” परंतु लीलामय नटवर नटनागर कहाँ रुकने वाले थे। ब्रज-विलास के पद की गूंज उठी— “यह कहि नटवर मदन गोपाला, कूद परे जल में नंदलाला...” और देखते ही देखते यशोदानंदन कदंब की डाल से जल में कूद पड़े। क्षण भर को तुलसीघाट पर सन्नाटा छा गया। लहरों की हलचल थम गई। मानो समय ठहर गया हो। और तभी गंगा के मध्य से जब श्रीकृष्ण कालिय नाग के फन पर मुरली बजाते हुए प्रकट हुए, तो गगन तक गूंज उठा— “जय श्रीकृष्ण! बांके बिहारी लाल की जय! हर हर महादेव!” भक्ति की वह तरंग ऐसी उठी कि हर आंख नम हो गई और हर हृदय पुलकित।


कृष्ण की यह लीला, नदियों की चेतना है

‘नाग नथैया’ केवल भक्ति का अभिनय नहीं, बल्कि प्रकृति और पर्यावरण के प्रति भारतीय चेतना का शाश्वत प्रतीक है। कालिया नाग उस विष और प्रदूषण का प्रतीक है जो मानव लालसा और अंधविकास के कारण नदियों में उतरता गया। श्रीकृष्ण द्वारा उसका दमन नदियों की पवित्रता की रक्षा का संदेश है — यह बताता है कि जब तक हमारी नदियां निर्मल रहेंगी, तब तक हमारे जीवन में पवित्रता बनी रहेगी। तुलसीघाट पर यह लीला प्रतिवर्ष हमें स्मरण कराती है कि गंगा केवल एक नदी नहीं, वह हमारी सभ्यता की आत्मा है। उसकी रक्षा, उसकी निर्मलता, उसका प्रवाह — यही सनातन धर्म की साधना है।


चार सदियों से जीवंत परंपरा

यह अद्भुत परंपरा गोस्वामी तुलसीदासजी के समय से चली आ रही है। 16वीं सदी में उन्होंने रामकथा के साथ-साथ श्रीकृष्ण की लीलाओं के इस उत्सव को भी काशी में प्रतिष्ठित किया था। तबसे लेकर आज तक तुलसीघाट इस भक्ति परंपरा का साक्षी है। हर वर्ष कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को तुलसीघाट पर यह लीला होती है, जिसे देखने देश ही नहीं, विदेशों से भी श्रद्धालु और सैलानी आते हैं। काशी के संत, अखाड़े, मंदिरों के महंत, कलाकार और नगरवासी सब इसमें सम्मिलित होकर इसे जीवंत रखते हैं। यह केवल नाट्य नहीं — यह आध्यात्मिक संवाद है, जो हर पीढ़ी को यह सिखाता है कि जीवन के विषैले नागों पर विजय पाने का एकमात्र उपाय है — निर्मलता, संयम और श्रद्धा।


काशी बन गई वृंदावन, गंगा बन गई यमुना

संध्या के समय जब सूर्य पश्चिम में उतर रहा था, तब गंगा तट दीपों की कतारों से जगमगाने लगा। जल में खिले कमलों पर दीप तैर रहे थे। भक्त घंट-घड़ियाल और शंख की ध्वनि के बीच आरती उतार रहे थे। और उसी क्षण, जब श्रीकृष्ण कालिया नाग के फन पर खड़े होकर मुरली बजाते दिखाई दिए, तो ऐसा लगा मानो धरती पर स्वयं स्वर्ग उतर आया हो। गंगा की लहरें ताल देने लगीं, हवा में तुलसी की सुगंध घुल गई, और काशी के घाटों पर खड़े लाखों भक्तों के चेहरों पर भक्ति की उजास फैल गई। ऐसा लगा, जैसे कालिंदी के तट पर वही वृंदावन पुनः जीवित हो उठा है। कृष्ण की यह लीला हमें यह भी सिखाती है कि जब जीवन में कालिया नाग जैसा अहंकार, विष और कलुषता बढ़ने लगे, तब भीतर का ‘कन्हैया’ जागृत करना आवश्यक है। वही आंतरिक निर्मलता हमें विषम परिस्थितियों से मुक्त कर सकती है। ‘नाग नथैया’ इसीलिए केवल धार्मिक आयोजन नहीं — यह जीवन की साधना है, यह नदियों की पुकार है, और यह भारतीय संस्कृति की वह सतत धारा है जो हमें प्रकृति के साथ आत्मीय संबंध जोड़ने की प्रेरणा देती है। काशी में यह दृश्य केवल देखा नहीं जाता, जिया जाता है। और जब गंगा के तट पर श्रीकृष्ण मुरली बजाते हैं, तब लगता है — धरती सचमुच धन्य है, काशी सचमुच अमर है, क्योंकि यहाँ गंगा बहती है, और गंगा में प्रवाहित होती है भक्ति की अनंत कथा।


इतिहास व परंपरा की झलक

उत्पत्ति — 

‘नाग नथैया लीला’ की परंपरा 1560 ईस्वी के आसपास तुलसीघाट से प्रारंभ हुई मानी जाती है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने काशी में जब ‘रामलीला’ की शुरुआत की, उसी समय ब्रज लीला की परंपरा को भी यहाँ स्थापित किया।


आयोजन — 

यह लीला हर वर्ष कार्तिक शुक्ल एकादशी को काशी नाग नथैया लीला समिति, तुलसीघाट द्वारा आयोजित की जाती है। मंचन में काशी के प्रतिष्ठित अखाड़ों और कलाकारों की सहभागिता रहती है।


सांकेतिक अर्थ — 

यह लीला केवल श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का स्मरण नहीं, बल्कि नदियों को स्वच्छ और प्रदूषणमुक्त रखने का जनजागरण अभियान भी है। कालिय नाग का मर्दन पर्यावरण में फैल रहे विष का प्रतीकात्मक पराभव है।


विशेष आकर्षण —

कालिय दह में कृष्ण का जल में अवतरण

फन पर मुरली बजाते कन्हैया की झांकी

दीपों की आरती और घाटों पर गूंजते शंखनाद

विदेशी सैलानियों की उपस्थिति में काशी का आध्यात्मिक रूप

“निर्मला नदिया निर्मल मन, निर्मल भाव बनाय,

कालिय विष मिट जाव तब, हरि मुरली रस गाये।”

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