छठ आस्था, तपस्या और विज्ञान के अद्भुत संगम का महापर्व है. जहां प्रकृति, श्रद्धा और आत्मशुद्धि का मिलन होता है, मतलब साफ है छठ केवल एक पर्व नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा का उत्सव है। यह वह क्षण है जब मनुष्य प्रकृति के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करता है, सूर्य की किरणों में जीवन, जल में ऊर्जा और मिट्टी में मातृत्व का अनुभव करता है। अस्त होते सूर्य को अर्घ्य देने की भारतीय परंपरा इस पर्व की आत्मा है, जो हमें यह सिखाती है कि प्रकाश और अंधकार दोनों में समान श्रद्धा रखनी चाहिए। छठ, दरअसल, उस आध्यात्मिक यात्रा का नाम है जिसमें मनुष्य स्वयं को प्रकृति के समक्ष नतमस्तक करता है और कहता है, “प्रकाश ही जीवन है, और सूर्य ही आत्मा।” ऋग्वेद में कहा गया है, “सूर्यो आत्मा जगतः स्थावरस्य च।” अर्थात् सूर्य ही चर-अचर जगत का आत्मा है। वह ब्रह्मांड का हृदय है, जो अपनी किरणों से पृथ्वी की नसों में प्राण प्रवाहित करता है। उसके बिना न जल का कंपन होता, न पवन की गति, न वृक्षों का हरापन, न मनुष्य का अस्तित्व
ईशावास्य उपनिषद् में कहा गया है,
“हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पुषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।”
अर्थात् हे सूर्यदेव! अपनी स्वर्णिम किरणों का आवरण हटाइए ताकि हम आपके सत्यरूप का दर्शन कर सकें। छठ इसी आवरण-उन्मोचन की साधना है, जहाँ मनुष्य अपने भीतर की मलीनता को जल में प्रवाहित करता है और सूर्य की आभा में स्वयं को प्रकाशित करता है। छठ पर्व बताता है कि जीवन का वास्तविक प्रकाश बाहरी दीपों से नहीं, भीतर की ज्योति से आता है। जब मनुष्य सूर्य की तरह निस्वार्थ होकर सबको प्रकाश देने लगे, तभी सच्ची सूर्योपासना होती है।
सूर्य : सृष्टि का प्राण, जगत की आत्मा
सूर्य ही सृष्टि का प्राण हैं। ऋग्वेद में कहा गया है, “सूर्य आत्मा जगतः स्थावरस्य च।” अर्थात सूर्य ही इस जगत् की आत्मा हैं। सूर्य के बिना न तो जीवन संभव है और न ही सृष्टि का संचालन। जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी और आकाश, इन पंचमहाभूतों का संतुलन सूर्य के प्रकाश से ही संभव होता है। छठ पर्व इसी शाश्वत सत्य का उत्सव है। यह मात्र पर्व नहीं, बल्कि तप और संयम का साक्षात उत्सव है, जहाँ मनुष्य अपने अहंकार को मिटाकर सूर्य की अनंत ऊर्जा के समक्ष स्वयं को समर्पित करता है। इस पर्व में व्रती आत्मसंयम, शुचिता और नियम का पालन करते हुए चार दिनों तक उपवास, स्नान, और सूर्य अर्घ्य की साधना करते हैं। यह साधना केवल देवोपासना नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव के बीच एक गहरा संवाद है। सूर्य की उपासना, जल का अर्घ्य और व्रत का संयम, तीनों मिलकर छठ को अद्वितीय बनाते हैं। यह पर्व केवल बिहार या पूर्वांचल का नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का उत्सव है। छठ हमें याद दिलाता है कि प्रकृति ही हमारी पहली पूजा है, सूर्य ही हमारा पहला देवता है। जब सूर्य की पहली किरण जल की लहरों पर पड़ती है और व्रती की अंजलि से उठती है ‘जय छठी मइया’ की गूंज, तो लगता है जैसे पूरी सृष्टि प्रार्थना कर रही हो। वह प्रार्थना जो न किसी वर्ग की है, न किसी पंथ की, वह है जीवन की प्रार्थना, प्रकाश की साधना और आत्मा की अभिव्यक्ति। छठ इस धरती के लिए वह उत्सव है जहाँ सूर्य केवल देवता नहीं, बल्कि जीवन के गुरु बन जाते हैं। वह सिखाते हैं, “दान दो, जलो, उजास फैलाओ, अस्त हो जाओ तो भी प्रकाश का स्मरण रहो।” और यही है छठ का संदेश, “सूर्य ही हैं जगत की आत्मा, और छठ है उस आत्मा का महाआवाहन।”अस्त होते सूर्य को प्रणाम, भारतीय दर्शन की विशेषता
दुनिया में हर जगह उगते सूर्य को प्रणाम किया जाता है, लेकिन अस्ताचलगामी सूर्य की पूजा केवल भारत में होती है। यही भारतीय दर्शन का सौंदर्य है, यहाँ अवसान भी उतना ही पवित्र है जितना उदय। यह दृष्टि जीवन की अनित्यता को स्वीकार करने की परिपक्वता देती है। छठ इसी संतुलन का पर्व है, जहाँ उगते सूर्य को भविष्य की आशा और अस्त होते सूर्य को कृतज्ञता का अर्घ्य दिया जाता है। भारतीय धर्म-दर्शन इस विश्वास पर टिका है कि जीवन का प्रत्येक क्षण, चाहे वह प्रारंभ हो या अंत, दोनों में ईश्वर समान रूप से विद्यमान हैं। इसीलिए डूबते सूरज को अर्घ्य देने की यह परंपरा केवल भारत की उजली चेतना में संभव है, जो शिव और शव, जीवन और मृत्यु, आरंभ और अवसान, सभी को समान दृष्टि से देखती है।सूर्योपासना का इतिहास और पौराणिक प्रसंग
सूर्य की आराधना का इतिहास वैदिक युग से जुड़ा है। रामायण, महाभारत, और पुराणों में सूर्यदेव के अनेक उल्लेख मिलते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने रावण-वध से पहले महर्षि अगस्त्य के कहने पर आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ किया था,
“जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम्।
तमोऽरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्।।
इस स्तुति के प्रभाव से उन्हें नयी ऊर्जा मिली और वे विजयी हुए। इसी तरह महाभारत में द्रौपदी के आग्रह पर भगवान सूर्य ने पांडवों को अक्षय पात्र प्रदान किया था। श्रीकृष्ण के पुत्र शाम्ब को जब कुष्ठ रोग हुआ, तब सूर्योपासना से ही वह रोगमुक्त हुए। इन्हीं प्रसंगों से छठ पर्व का उद्गम माना जाता है। राम के अयोध्या लौटने के छठे दिन, कार्तिक शुक्ल षष्ठी को, राम और सीता ने सूर्यदेव की पूजा कर रामराज्य की स्थापना की थी। तब से यह पर्व ‘छठ’ के रूप में जन-जन में प्रतिष्ठित हो गया।
छठ मइया : मातृत्व और प्रकृति की प्रतीक
छठ पर्व में सूर्यदेव की उपासना के साथ उनकी बहन छठ मइया की भी पूजा होती है। छठ मइया मातृत्व की, करुणा और सृजन की प्रतीक हैं। लोकविश्वास है कि छठ मइया व्रतियों की मनोकामनाएँ पूरी करती हैं, परिवार में सुख-शांति और समृद्धि लाती हैं। इस पर्व की सबसे बड़ी खूबी है, स्त्री शक्ति का सम्मान। स्त्रियां इस पर्व की मुख्य साधक होती हैं। वे कठोर व्रत रखती हैं, शुचिता का पालन करती हैं, और गीतों के माध्यम से अपनी भक्ति व्यक्त करती हैं। ये लोकगीत पीढ़ियों से चली आ रही लोकसंस्कृति की अमूल्य निधि हैं।“कांच ही बांस के बहंगी लचकत जाए,
हे छठी मइया तोहरे अँचरा में सुगंध समाए...”
यह गीत सिर्फ भक्ति नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक स्मृति है जो परिवार, जल, सूर्य और स्त्रीकृसभी को जोड़ती है।
लोकजीवन से जुड़ी लोकआस्था
छठ पूजा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें कोई पुरोहित या यज्ञ की आवश्यकता नहीं। यह जन से जुड़ा पर्व है, जिसमें श्रद्धा ही सबसे बड़ा मंत्र है। हर जाति, वर्ग, और आयु का व्यक्ति इसमें भाग लेता है। कहीं घाट पर सामूहिक अर्घ्य होता है, तो कहीं घर की छत पर ही अर्ध्यदान। छठ के गीत, प्रसाद, और संवाद, सब लोकभाषा में होते हैं। ‘थोड़ा-सा गुड़, चावल, ठेकुआ और अंजुरी जल’, यही साधन पर्याप्त हैं। इसलिए छठ गरीब और अमीर के बीच भेद मिटाने वाला पर्व है। यह पर्व परिवारों को जोड़ता है, रिश्तों को पुनः सींचता है और समाज में सामूहिकता की भावना जाग्रत करता है।
सूर्य : विज्ञान और स्वास्थ्य का आधार
छठ पर्व का वैज्ञानिक महत्व उतना ही गहरा है जितना धार्मिक। वैज्ञानिक दृष्टि से षष्ठी तिथि के दौरान सूर्य की पराबैगनी किरणें पृथ्वी पर सामान्य से अधिक प्रभावी होती हैं। व्रत, स्नान, और सूर्य अर्घ्य देने की प्रक्रिया शरीर को इन किरणों के दुष्प्रभाव से बचाती है। सूर्य की किरणें विटामिन डी का प्रमुख स्रोत हैं, जो हड्डियों को मजबूत करती हैं। सूर्यप्रकाश मस्तिष्क में सेरोटोनिन के स्तर को बढ़ाता है, जिससे तनाव कम होता है और मन प्रसन्न रहता है। सूर्योपासना से नींद का चक्र नियंत्रित होता है, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और मानसिक संतुलन कायम रहता है। यही कारण है कि सूर्य को आरोग्य देवता कहा गया है। सूर्य से ही ऋतु चक्र चलता है, फसलें पनपती हैं, वर्षा होती है, और जीवन संचालित होता है। छठ का हर विधान इस प्राकृतिक संतुलन की याद दिलाता है। मतलब साफ है छठ अब केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय पहचान और संस्कृति का जीवंत प्रतीक बन चुका है। यह उस भारतीय परंपरा की शक्ति है जो हजारों मील दूर बसे प्रवासियों को भी अपनी जड़ों से जोड़े रखती है।
विश्व की सभ्यताओं में सूर्य का महात्म्य
सूर्य की उपासना केवल भारत में ही नहीं, बल्कि हर सभ्यता में की गई है। मिस्र में सूर्य ‘रा’ के रूप में पूजित हुआ, यूनान में ‘अपोलो’ के रूप में, जापान में ‘अमतेरसू’ के रूप में। किन्तु भारतीय संस्कृति में सूर्य को जगत् की आत्मा कहा गया, यह आध्यात्मिक ऊँचाई केवल यहाँ संभव है। वेदों में सूर्य को ब्रह्मा, विष्णु और महेश का रूप कहा गया है,
“ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः।।
महर्षि अगस्त्य द्वारा श्रीराम को सिखाए गए आदित्यहृदय स्तोत्र में सूर्य की इसी सर्वशक्तिमान सत्ता का वर्णन है। सूर्य देवता का स्वरूप ही है, सृजन, संरक्षण और संहार, तीनों का अद्भुत समन्वय।
प्रकाश और आत्मशुद्धि की साधना
छठ पर्व केवल बाह्य आडंबर का नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि का उत्सव है। जब व्रती संध्या बेला में अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देता है, तब वह अपने भीतर के अंधकार को भी दूर करने का संकल्प लेता है। जब वह प्रभात बेला में उगते सूर्य को जल अर्पित करता है, तब वह नयी ऊर्जा और आशा का स्वागत करता है। छठ का हर चरण आत्मानुशासन का प्रतीक है, नहीं दिखावा, नहीं दान-पुण्य की गिनती, केवल एक उद्देश्य, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और आत्मा की निर्मलता। यह पर्व हमें सिखाता है कि सूर्य की तरह हमें भी निरंतर दान देना है, बिना किसी अपेक्षा के, बिना किसी प्रतिफल की इच्छा के। अस्त होते सूर्य की पूजा यही कहती है, समर्पण ही श्रेष्ठतम साधना है।
लोकगीतों में छठ का संगीत
छठ पर्व लोकगीतों के बिना अधूरा है। ये गीत पीढ़ियों की स्मृति, स्त्री की संवेदना और समाज की आत्मा को जोड़ते हैं। इन गीतों में न कोई औपचारिकता है, न कोई कठोर नियम, सिर्फ आस्था और स्नेह की मिठास।
“ऊठे सूरज देव, अर्घ ले लऽ,
नेहिया से भरल अंजुरी दे लऽ...”
“कोसी भरल जलवा में,
नाचेला अँगना में सुखवा...”
इन गीतों में प्रकृति, परिवार और भक्ति तीनों एक साथ गूंजते हैं। छठ का गीत एक लोकमंत्र है, जो न केवल आत्मा को शुद्ध करता है, बल्कि पूरे वातावरण को भी पवित्र बना देता है।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी





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